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प्रसार शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्त | Principles of Extension Education in Hindi

प्रसार शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्त
प्रसार शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्त

अनुक्रम (Contents)

प्रसार शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्त (Principles of Extension Education)

प्रसार शिक्षा के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. अनुभूत आवश्यकताओं एवं रुचियों का सिद्धान्त (Principle of Felt Needs and Interests) 

प्रसार शिक्षा का आधार व्यक्ति की अनुभूत आवश्यकताएँ एवं रुचियाँ हैं। ग्रामीणों की समस्याएँ अत्यन्त जटिल हैं क्योंकि उनकी समस्याओं के समाधान अनेक प्रकार से बाधित हैं। प्रसारकर्ता का प्रमुख कर्त्तव्य लोगों की रुचियों एवं आवश्यकताओं को समझकर तदनुरूप सहज एवं ग्राह्म हल ढूँढ़ना है। हर व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के प्रति सतर्क रहता.. है। और उनकी पूर्ति के लिए जिज्ञासु होता है। कोई व्यक्ति जब उसकी समस्याओं को सुलझाने तथा उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उद्यत होता है तो परिस्थिति अत्यन्त प्रभावकारी एवं विश्सनीय होती है। लोगों को जब उनकी समस्याओं के हल मिलते हैं तथा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, तभी कोई भी कार्यक्रम सफल समझा जाता है।

2. जड़ से आरम्भ करने का सिद्धान्त (Principle of Grass-root beginning)

किसी भी समस्या के उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि उसकी जड़ तक पहुँचा जाए तथा निराकरण के उपाय ढूँढे जाएँ। ग्रामीणों की समस्याओं को आर्थिक विपन्नता, निरक्षरता, तकनीकी ज्ञान एवं आधुनिक साधनों की कमी जैसे तत्व प्रभावित करते हैं। समस्या की जड़ तक पहुँचकर ही कारण एवं निदान निकाले जा सकते हैं। प्रसार कार्यकर्त्ता को सर्वप्रथम यह देखना होता है कि ग्रामीणों की वर्तमान स्थिति क्या है। इन स्थितियों में आर्थिक, बौद्धिक, शैक्षिक, आवासीय, संसाधन सम्पन्नता जैसे संदर्भ आते हैं। इन सन्दर्भों के अन्तर्गत ग्रामीणों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए कार्यक्रम आयोजन किए जाने चाहिए क्योंकि यह एक सर्वमान्य सत्य है कि पहली सीढ़ी पर कदम रखकर ही कोई व्यक्ति मंजिल तक पहुँच पाता है।

3. नमनीयता का सिद्धान्त (Principle of Flexibility)

प्रसार शिक्षण पद्धति में नमनीयता का विशेष महत्व होता है। विभिन्न परिवेशों, स्थानों व्यक्तियों के निमित इसके स्वरूप में परिवर्तन लाना होता है। इसके अन्तर्गत किसी प्रतिबद्ध पाठ्यक्रम का अनुपालन नहीं होता। जिस परिवेश, जिस स्थान अथवा जिस व्यक्ति के निमित्त कार्यक्रम चलाना हो उसी को लक्षित करके कार्यक्रम-नियोजन किया जाता है। अतः प्रसार शिक्षण पद्धति में पर्याप्त नमनीयता का होना आवश्यक है। साथ ही समय के साथ इनमें बदलाव लाने की सम्भावनाएँ भी होनी चाहिए।

4. स्वेच्छा से शिक्षा का सिद्धान्त (Principle of Voluntary Education)

सीखने की क्रिया स्वैच्छिक होनी चाहिए। किसी प्रकार के दबाव में आकर किया गया काम स्थायी स्वभाव ग्रहण नहीं कर सकता। यही कारण है कि प्रसार शिक्षा के अन्तर्गत मानव-व्यवहार में परिवर्तन लाने पर जोर दिया जाता है। व्यक्ति की मनोवृत्ति या दृष्टिकोण में जब परिवर्तन आते हैं। तो अन्तःप्रेरणा या स्वतः प्रेरणा से अभिभूत होकर वह आगे बढ़ता है। स्वेच्छा से प्रेरित व्यक्ति समस्याओं के हल ढूँढने के प्रति भी उत्साहित नहीं होता, जबकि दबाव में काम करने वाला व्यक्ति शीघ्र ही हतोत्साहित हो जाता है एवं उसके विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है।

5. स्वयं की सहायता का सिद्धान्त (Principle of Self help)

स्वतःप्रेरणा या अंतःप्रेरणा प्रसार शिक्षा का सार तत्त्व है। प्रसार कार्यकर्त्ता का मूल कर्त्तव्य व्यक्तियों को उत्प्रेरित कर मैं आत्मोत्थान की ओर ले जाना है। ऐसा तभी सम्भव है जब व्यक्ति अपनी सहायता आप करे। प्रसार कार्यक्रम में कृषकों को खेती के उन्नत तरीकों से परिचित कराकर उन्हें स्वयं उन पद्धतियों के परिपालन करने को प्रेरित किया जाता है। स्वयं कार्य-निष्पादन करके व्यक्ति अधिक सीखता है तथा स्थायी रूप से सीखता है। प्रसार कार्यकर्त्ता की भूमिका मात्र एक सहायक की होनी चाहिए, जो लोगों को उत्प्रेरित करे तथा समय-समय पर सामने आने वाली समस्याओं को हल करने में अपने सुझाव प्रस्तुत करे।

6. स्वावलम्बन का सिद्धान्त (Principle of Self-dependence)

जब व्यक्ति स्वयं की सहायता करने को तत्पर होता है तथा स्वयं कार्य निष्पादन करता है तो उसमें आत्म-निर्भरता एवं स्वावलम्बन की भावना जागती है, जो उसे निरन्तर आगे बढ़ने की प्रेरणा प्रदान करती है। प्रसार शिक्षण का यही सिद्धान्त है कि ग्रामीण आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बनें। यह स्वावलम्बन उन्हें जीवन के अनेक क्षेत्रों में सहायक सिद्ध होता है। यही नहीं, नई पद्धतियों एवं जानकारियों की खोज के प्रति  वह जिज्ञासु रहता है। अपने कार्य-क्षेत्र में प्रतिदिन उठने वाली समस्याओं के हल भी व्यक्ति स्वयं ढूँढ़ने को प्रयत्नशील होता है। साथ आत्मोन्नति के हर सम्भव प्रयासों को करने को तत्पर रहता है।

7. संतुष्टि का सिद्धांत (Principle of Satisfaction)

मानव जीवन में संतुष्टि अत्यन्त प्रेरक भूमिका निभाती है। किसी भी कार्य से सन्तुष्ट व्यक्ति उस कार्य में, उस कार्य की निष्पादन पद्धति में तथा उन कारकों में विश्वास व्यक्त करने लगता है जिनके माध्यम से सम्बन्धित जानकारियाँ उसे प्राप्त होती है। प्रसार माध्यमों की ओर बढ़ता हुआ विश्वास व्यक्ति को निश्चित रूप से समृद्धि एवं सम्पन्नता की ओर ले जाता है। स्वयं काम करके जब व्यक्ति लाभान्वित होता है तो उच्च स्तरीय संतुष्टि की प्राप्ति होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से ऐसा पाया जाता है कि लोग जब प्रसार कार्यक्रमों के प्रति संतुष्ट होते हैं तो प्रसार कार्यकर्त्ता के साथ उनका अच्छा सम्बन्ध स्थापित हो पाता है तथा अन्य विकास एवं प्रसार कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक चलाने में सुविधा होती है।

8. सहयोग का सिद्धान्त (Principle of Co-operation)

प्रसार कार्यक्रम ग्रामीणों के निमित बनाए जाते हैं। इनके, कार्यान्वयन के लिए ग्रामीणों का सहयोग लेना एक महत्त्वपूर्ण शर्त है। प्रसार कार्य के अन्तर्गत सभी कार्यक्रम ग्रामीणों के सहयोग से चलाए जाते हैं, चाहे वह उन्नत खेती हो, यातायात सुविधा हो, बच्चों की पाठशाला हो, स्वास्थ्य सेवा हो या पोषाहार कार्यक्रम हो। प्रसार कार्यकर्त्ता तो अकेला चना होता है, जो भाड़ नहीं फोड़ सकता। ग्रामीणों का विश्वास एवं सहयोग प्राप्त करके ही वह प्रसार कार्यक्रमों को कार्यान्वित करके साकार रूप दे सकता है।

9. सहभागिता का सिद्धान्त (Principle of Participation)

किसी भी कार्यक्रम में व्यक्ति अपनी भूमिका या अस्तित्व ढूंढ़ता है। वह जानना चाहता है कि अमुक कार्यक्रम में उसकी स्थिति क्या है और उसके द्वारा उसे क्या लाभ होने वाले हैं। लाभ की आशा होने पर ही व्यक्ति अपने को उस कार्यक्रम से जोड़ता है। कार्यक्रम के कार्यान्वयन में जब व्यक्ति भाग लेता है तो उसका जुड़ाव कार्यक्रम के अन्तर से होता है। इसे एक साधारण से उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। जब घर में कोई समारोह होने वाला होता है तो हर सदस्य को कोई न कोई काम सौंपा जाता है। इससे हर व्यक्ति उस समारोह की सफलता के प्रति प्रयत्नशील रहता है तथा अपनी भूमिका एवं उत्तरदायित्व समझता है। गाँवों में विभिन्न आयु, समुदाय तथा धंधों से संलग्न लोग रहते हैं। प्रसार कार्यक्रम में इन सबके लिए कोई न कोई कार्यक्रम होना चाहिए, जिससे उनकी सहभागिता हो सके।

10. सांस्कृतिक विभेद्य का सिद्धान्त (Principle of Cultural Differences)

भारत विविधताओं का देश है। यहाँ अनेक प्रकार की संस्कृति, धर्म, परम्पराएँ, रीति-रिवाज, लोकाचार, भाषाएँ तथा आदतें विविध क्षेत्रों के निवासियों के जीवन को प्रभावित करती हैं। प्रसार शिक्षा में, जीवन के इन प्रभावकारी तत्त्वों को विशेष महत्त्व दिया जाता है। प्रसार कार्यकर्त्ता को अपने कार्य-क्षेत्र के निवासियों की संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाज जैसे तत्त्वों का अध्ययन करके प्रसार कार्यक्रम सम्बन्धी योजनाएँ बनानी चाहिए। ऐसा सम्भव है कि कोई योजना या पद्धति किसी एक क्षेत्र के अनुरूप है तो दूसरे क्षेत्र में अनुपयुक्त या असफल हो सकती है। क्षेत्र परिवर्तन होने पर निवासियों के शैक्षिक स्तर, बौद्धिक स्तर, रुचियों, मान्यताओं में भी अन्तर देखे जा सकते हैं। सांस्कृतिक विभेद्य के साथ, प्रसार पद्धति में भी अन्तर आना, प्रसार कार्यक्रम की सफलता के लिए आवश्यक है। अतः इस सिद्धान्त का पालन किया जाता है कि यदि सांस्कृतिक विभेद्य हो तो प्रसार योजनाओं में भी अनुकूल परिवर्तन होने चाहिए।

11. सांस्कृतिक परिवर्तन का सिद्धान्त (Principle of Cultural Change)

प्रसार कार्य द्वारा सांस्कृतिक परिवर्तन आना आवश्यम्भावी है। सांस्कृतिक परिवर्तन को शिक्षा, यातायात के साधन, औद्योगीकरण, आर्थिक सम्पन्नता, राजनीतिक चेतना जैसे तत्त्व प्रभावित करते हैं, जो प्रसार कार्यक्रम के भी अंग हैं। प्रसार शिक्षा मानव विकास पर आधारित है। व्यक्ति के जीवन में जब परिवर्तन आते हैं, व्यक्ति जब शिक्षित होता है, जब उसका बौद्धिक स्तर ऊँचा उठता है तो अनेक सामाजिक कुरीतियों, गलत परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों के बन्धन से विमुक्त होता है। प्रसार कार्यक्रमों के माध्यम से वह बाहरी दुनियाँ, अन्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेशों से परिचित ही नहीं होता, वरन् उन्हें अपनाता भी है। इस प्रकार व्यक्ति के रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्पराएँ मान्यताएँ- सभी में परिवर्तन आते हैं जो सांस्कृतिक परिवर्तन के द्योतक हैं।

12. प्रजातान्त्रिक प्रकृति का सिद्धान्त (Principle of Democratic Nature)

प्रसार शिक्षण का ढाँचा, पूर्णतः प्रजातान्त्रिक है। इस गाँव के हर सदस्य के विकास की बात सोची जाती है। हर व्यक्ति स्वयं को प्रसार कार्यक्रम का अंग समझता है। प्रसार कार्यक्रम की सभी योजनाएँ लोगों के विचार-विमर्श द्वारा बनायी जाती हैं। योजनाओं का कार्यान्वयन किस प्रकार किया जाए जिससे अधिकाधिक लाभ की प्राप्ति हो सके, इसका विचार सब मिल-बैठकर करते हैं। इसके माध्यम से ग्रामीण पंचायत को भी एक स्वस्थ स्वरूप मिलता है।

13. स्थानीय संगठनों के सहयोग का सिद्धान्त (Principle of Cooperation from Local Organizations)

जिस प्रकार प्रसार कार्य ग्रामीण सहभागिता एवं स्थानीय नेतृत्व के सिद्धान्त पर आधारित हैं, उसी प्रकार इस कार्य में स्थानीय संगठनों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। ये संगठन पूर्व-स्थापित भी हो सकते हैं और नव-स्थापित भी। इनके माध्यम से कार्यक्रमों को चलाने में प्रसारकर्ता को सुविधा होती है। स्थानीय संगठनों को नकार कर चलाया गया कोई भी कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता है। गाँवों में पंचायत, युवा मण्डल, महिला मण्डल जैसे संगठन होते हैं। इनके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार नए संगठनों का गठन भी किया जा सकता है, किन्तु इस बात पर बाल अवश्य दिया जाता है कि कार्यक्रम इन संगठनों के सहयोग से चलाए जाएँ।

14. निरपेक्षता एवं तटस्थता का सिद्धान्त (Principle of Neutrality and Non-alignment)

प्रसार कार्य की प्रकृति प्रजातान्त्रिक है, जिसमें हर वर्ग, समुदाय, जाति, धर्म, दल एवं संगठनों के लोगों को सम्मिलित किया जाता है तथा उनका सहयोग प्राप्त किया जाता है। प्रसार कार्यक्रमों में सभी को समान महत्त्व दिया जाता है तथा ये कार्यक्रम सभी को समान रूप से लक्षित होते हैं। प्रसार कर्यक्रम सभी के लिए निरपेक्ष एवं तटस्थ भाव से तैय किए जाते हैं तथा प्रसार कार्यकर्ता को इस सिद्धान्त का पालन करना होता है कि वह जातिगत, धर्मगत, दलगत भावनाओं से परे होकर निरपेक्ष एवं तटस्थ रहे। किसी व्यक्ति या समुदाय में न तो उसे आवश्यकता से अधिक रुचि दिखानी चाहिए, न कटुता रखनी चाहिए। प्रसार कार्य सभी के हितों की रक्षा करता है तथा इस कार्यक्रम से लाभान्वित होना सभी का अधिकार है-इस बात के लिए प्रसार कार्यकर्ता को सचेष्ट रहना चाहिए।

15. समता का सिद्धान्त (Principle of Equality)

गाँवों में विविध सम्प्रदाय, धर्म एवं जाति के लोग निवास करते हैं। इनके रीति-रिवाज, मान्यताएँ, परम्पराएँ एवं संस्कृति में अन्तर होता है। किन्तु आगे बढ़ने का सभी को समानाधिकार एवं समान अवसर प्राप्त होने चाहिए। प्रसार कार्यक्रम बनाते समय प्रसारकर्ता को सतर्क एवं आश्वस्त रहना चाहिए कि कार्यक्रम का लाभ समान रूप से सभी सम्प्रदायों, धर्मावलम्बियों एवं जातियों को प्राप्त हो रहा है ऐसा नहीं होने पर प्रसार कार्य का प्रजातान्त्रिक ढाँचा खंडित होता है। साथ ही समुन्नत ग्रामीण विकास की कल्पना भी अधूरी रह जाती है।

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shubham yadav

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