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भारतीय किशोरों की समस्याएँ | Problems of Indian Adolescents in Hindi

भारतीय किशोरों की समस्याएँ
भारतीय किशोरों की समस्याएँ

भारतीय किशोरों की समस्याएँ ( Problems of Indian Adolescents)

भारतीय किशोरों की समस्याएँ | Problems of Indian Adolescents in Hindi- किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन और नाजुक मोड़ है। इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस ओर हो जाता है, उसी दिशा में उसके विकास का स्वरूप निर्धारित होता है। वह धार्मिक या अधार्मिक, अध्यवसायी या अकर्मण्य, देशप्रेमी या देशद्रोही कुछ भी बन सकता है। अगर किशोर बालक और बालिकायें अनेक प्रकार की उलझनों, कठिनाइयों तथा चिन्ताओं का अनुभव करते रहते हैं तो ऐसे बालक लक्ष्यहीन व गुमराह हो जाते हैं जो स्वयं अपने लिये, माता-पिता, शिक्षकों तथा समाज के लिये समस्या बन जाते हैं।

यद्यपि किशोरावस्था “समस्या बाहुल्य की अवस्था” है किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि उनका विकास नकारात्मक होगा। यह सही है कि किशोरावस्था में उत्पन्न समस्यायें अत्यंत जटिल एवं गंभीर होती हैं जो बालक के समायोजन और व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करती हैं। यदि माता-पिता, शिक्षक और विद्यालय द्वारा उनकी इन समस्याओं को सहानुभूतिपूर्वक समझा जाता है और उचित परामर्श द्वारा उनका निराकरण किया जाता है तो किशोरों के एक अच्छे प्रौढ़ जीवन की भावी तैयारी हो जाती है।

किशोरावस्था में अनेक समस्यायें होती हैं। इनका पता लगाने के लिये मूनी (Mooney), पोप (Pope), विलियम्स (Williams), लेविस (Lewis) तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों ने हाई स्कूल तथा कॉलेज स्तर के किशोरों की समस्याओं का अध्ययन किया और निम्नांकित समस्यायें बतायीं-

(i) विद्यालय की समस्यायें

(ii) पारिवारिक समस्यायें,

(iii) आर्थिक समस्यायें

(iv) विपरीत यौन की समस्यायें

(v) व्यक्तिगत सौन्दर्य की समस्यायें

(vi) स्वास्थ्य समस्यायें

(vii) मनोरंजन की समस्यायें

(viii) भविष्य निर्धारण की समस्यायें

(ix) व्यवसाय की समस्यायें।

किशोरावस्था में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को तीन भागों में बाँटा जा सकता है-

1. व्यावसायिक समस्यायें- किशोरावस्था भावी जीवन की तैयारी का समय होता है। उत्तर किशोरावस्था के अंत तक प्रत्येक बालक यह चाहता है कि वह आत्मनिर्भर बन जाये तथा उसे अपनी शिक्षा कुशलता तथा रुचि के अनुसार उपयुक्त व्यवसाय प्राप्त हो जाये लेकिन आज देश की वर्तमान स्थिति ऐसी है जिसमें बेरोजगारी एक विषम समस्या बनी हुई। है। जिन किशोरों का सम्बन्ध उच्च आर्थिक व सामाजिक स्थिति वाले परिवारों से होता है उनके सम्मुख व्यवसाय, अर्थोपार्जन और भविष्य की अनिश्चितता से सम्बन्धित समस्यायें कम होती हैं किन्तु निम्न व मध्यम आर्थिक, सामाजिक स्तर वाली पृष्ठभूमि के किशोरों के सामने यह समस्यायें गंभीर और जटिल होती हैं।

2. काम प्रवृत्ति से सम्बन्धित समस्यायें – किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति क्रियाशील हो उठती है। इस तथ्य को सभी मनोवैज्ञानिकों ने माना है। ‘स्लाटर’ का कथन है कि “काम समस्त जीवन का नहीं तो किशोरावस्था का अवश्य ही मूल तथ्य है। एक विशाल नदी के अति प्रवाह के समान यह जीवन की भूमि के बड़े भागों को सींचता है एवं उपजाऊ बनाता है।”

अत: काम प्रवृत्ति का विकसित होना इस अवस्था की एक विशेषता है फलस्वरूप किशोर काम सम्बन्धी बातों के प्रति जिज्ञासु हो जाता है और इस जानकारी को प्राप्त करने के लिये वह कामुकतापूर्ण साहित्य का अध्ययन करता है, मित्रों तथा समूह से वार्तालाप करता है, जबकि इस आयु परिवार व समाज द्वारा उसकी काम सम्बन्धी बातों का दमन किया जाता है। वे इस सम्बन्ध में जो भी ज्ञान प्राप्त करते हैं वह अपूर्ण व भ्रमित करने वाला होता है। भारतीय परिवारों में आज भी किशोरों की यौन शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। अतः विशाल नदी के समान उफनती हुई कामोत्तेजनाओं का प्रदर्शन वे विभिन्न रूपों में करते हैं; जैसे- कामुकतापूर्ण बातें करना, अश्लील बातों को दीवारों पर लिखना, कामोत्तेजक चित्रों का बनाना, हस्तमैथुन करना तथा समलिंगीय व विषमलिंगीय मैथुन करना, इंटरनेट के माध्यम से अश्लील साइट का अवलोकन करना। ये सभी चीजें किशोरों के व्यक्तित्व विकास में बाधक होती हैं अतः मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति को उचित दिशा में ले जाने के लिये उन्हें उपयुक्त ढंग से यौन शिक्षा दी जाये क्योंकि किशोरों की अनेकों समस्याओं का मूल उनकी काम प्रवृत्ति होती है।

किशोरावस्था के यौनिक परिवर्तन बालक और बालिका दोनों में ही चिन्ता, भय तथा संकोच पैदा कर देते हैं जब बालिकाओं का मासिक धर्म प्रारम्भ होता है और बालकों को स्वप्नदोष के कारण वीर्य का स्राव हो जाता है तो वे इसे असाधारण घटना मानकर घबरा जाते हैं, संकोच तथा लज्जा के कारण किसी से बात करने में घबराते हैं और तनाव में रहते हैं। अतः यह आवश्यक है कि इस अवस्था के आने से पूर्व ही किशोर बालक तथा बालिकाओं को उनके यौनागों की रचना तथा उनकी कार्य विधि का ज्ञान किसी ऐसे माध्यम से देना चाहिये जिसे वे मानें तथा स्वीकार करें।

रॉस (Ross) ने भी इस सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुये कहा है कि-“यौन शिक्षा की आवश्यकता को कोई अस्वीकार नहीं करता है। आवश्यकता इस बात की है कि किशोरों को एक ऐसे वयस्क द्वारा गोपनीय शिक्षा दी जाये जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो। “

यौन शिक्षा द्वारा किशोरों में विषमलिंगी के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करना चाहिये तथा शिक्षा देते समय इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिये कि शिक्षा उत्तेजना प्रदान करने वाली न हो। घर पर माता-पिता और विद्यालय में शिक्षक बालकों को इस प्रकार की शिक्षा दे सकते हैं।

विद्यालय में अध्यापकों को चाहिये कि वे किशारों को अधिक से अधिक रचनात्मक कार्यों में लगायें जिससे उनकी काम शक्ति का मार्गान्तीकरण हो सके।

समायोजन समस्यायें- किशोरों की समायोजन समस्यायें अधिकांशतः वातावरण सम्बन्धी होती हैं। जिसमें प्रायः दो प्रकार के वातावरण आते हैं-

(i) पारिवारिक वातावरण

(ii) विद्यालय का वातावरण।

यद्यपि जन्म के पश्चात् परिवार द्वारा ही बच्चे का पालन-पोषण होता है किन्तु किशोरावस्था में देखा जाता है कि बालक अपने परिवार के वातावरण में समायोजन करने में असमर्थ रहते हैं । इसके कई कारण हैं; जैसे- किशोरों की स्वतंत्रता की चाह, उचित महत्व तथा उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा, विषमलिंगी प्रेम आदि। यदि माता-पिता या अभिभावकों द्वारा किशोरों को नियंत्रण रखा जाता है, उनके ऊपर बंधन लगाये जाते हैं तो वह परिवार के साथ समायोजन नहीं कर पाता है। अतः माता-पिता को चाहिये कि वे किशोरों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें उनके ऊपर अनुशासन को न थोपें तथा उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने का अवसर दें।

दूसरी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब विद्यालयों में किशोरों को उचित वातावरण नहीं मिलता है । शिक्षकों का व्यवहार, शिक्षण प्रकृति, विद्यालय का अनुशासन, पाठ्य सहगामी क्रियायें आदि किशोरों की समायोजन प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं अतः शिक्षकों को चाहिये कि बालकों के समायोजन में उनकी सहायता करें। किशोरों की शिक्षा के लिये विद्यालयों में उनकी रुचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिये जिनके द्वारा भविष्य में वे किसी व्यवसाय का चुनाव कर सकें। ‘शैस’ के अनुसार “विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से होना चाहिये तथा दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिये।” पाठ्यक्रम में पाठ्य सहगामी क्रियाओं का समावेश करना चाहिये इनके द्वारा किशोरों की पाशविक मूल प्रवृत्तियों का शोधन होता है, उनका जीवन सक्रिय तथा साहसिक होता है तथा सहयोग व सामाजिकता की भावना का विकास होता है। विद्यालय बालकों को उनकी उपयोगिता का अनुभव कराकर उनकी निराशा कम कर सकता है। सृजनात्मकता का विकास करके उनकी अपराध प्रवृत्ति को कम किया जा सकता है।

किशोरों के स्वस्थ व सुखी प्रौढ़ जीवन के लिये यह आवश्यक है कि उनकी समस्त समस्याओं का समाधान संतोषप्रद तथा प्रभावशाली ढंग से किया जाये। इस दिशा में माता-पिता, शिक्षक तथा स्वयं किशोर तीनों के परस्पर सहयोग की आवश्यकता होती है।

किशोरों की समस्याओं के निराकरण के लिये माता-पिता तथा शिक्षकों को बड़े धैर्य से काम लेना चाहिये। उन्हें किशोरों के स्वभाव, उनकी समस्याओं तथा समस्याओं को उत्पन्न करने वाले कारणों का अध्ययन गंभीरतापूर्वक करना चाहिये जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से उसके समायोजन को प्रभावित कर रहे हैं तद्नुसार ही उनका निदान करना चाहिये। जैसे यदि कोई किशोर बालिका चित्रकारी में रुचि रखती है और उसी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहती है और यदि माता-पिता उसे एक चिकित्सक बनाने की सोचते हैं और उसी प्रकार के विषयों के चुनाव और शिक्षा के लिये बाध्य करते हैं तो उसका समायोजन परिवार और पाठशाला दोनों जगह नहीं हो पाता है अतः यह आवश्यक है कि किशोर स्वभाव को भली-भाँति समझें और उन सभी तथ्यों को जानें जो किशोरों के समायोजन को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त बालक के सामाजिक सम्बन्धों, उनके ऊपर पड़ने वाले सामाजिक दबावों, उनकी प्रेरक वृत्तियों तथा किशोरों द्वारा अपनाई गई समायोजन विधियों का वांछित ज्ञान प्राप्त करे, साथ ही उन परिस्थितियों की भी जानकारी प्राप्त करें जो किशोरों की समस्याओं की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी हैं- इसके अतिरिक्त उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करें। किशोरों की समस्याओं का मूल्यांकन प्रौढ़ स्तर पर न करें, उनके साथ क्रोध व दण्ड का प्रयोग न करें। किशोरों को स्वयं अपनी समस्याओं पर विचार करने तथा उनके निराकरण के उपायों को ढूँढने के लिये प्रेरित करें। किशोरों के साथ उनकी समस्या पर विचार-विमर्श करें, अधिक से अधिक प्रश्न पूछकर समस्या के मूल कारण को जानने का प्रयास करें, तभी निर्देश दें।

अध्यापक, परिवार और समुदाय की भूमिका (Role of the teacher, family and Community)

अध्यापक, परिवार और समुदाय की भूमिका के विषय में अग्रलिखित विवेचन किया गया है-

अध्यापक की भूमिका (Role of the teacher)- किशोरों के सन्तुलित विकास में अध्यापकों की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किशोरों को विविध प्रकार की समस्याओं से बचाने के लिए विद्यालय के माध्यम से अध्यापकों से अनेक औपचारिक और अनौपचारिक कार्यों की अपेक्षा की जाती है ।

(I) अध्यापक के औपचारिक कार्य (Formal Functions of Teacher)

1. बौद्धिक शक्तियों का विकास (Development of Intellectual Powers) – विद्यालय में ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाता है जहाँ बालक के ज्ञान और

बुद्धि का विकास हो सके। विद्यालय बालक में तर्क शक्ति एवं वैज्ञानिक अभिवृत्ति का विकास करता है। विद्यालय विभिन्न संसाधनों और क्रियाकलापों से बालक के मस्तिष्क का विकास करता है, ज्ञान के द्वार खोलता है, बालक को चिन्तनशील बनाता है । बुद्धिमान व ज्ञानवान बालक उचित-अनुचित में भेद करने में सक्षम होते हैं और समाज सम्मत व्यवहार करना सीखते हैं। विभिन्न प्रकार के शैक्षिक उपकरणों या श्रव्य-दृश्य साधनों का उपयोग करके, खासकर शैक्षिक प्रौद्योगिकी का, विद्यालय को बालकों में विचारने, सोचने, तर्क करने, कल्पना करने तथा निरीक्षण, अवलोकन, परीक्षण, प्रयोग आदि के द्वारा बालकों में उचित निष्कर्ष निकालने की क्षमता का विकास करना चाहिए। अन्वेषणशीलता, मौलिकता, रचनात्मकता आदि में सहायक आवश्यक बौद्धिक क्षमताओं के विकास के लिए वाद-विवाद, परिचर्चा, व्याख्यान, विशेषज्ञों के भाषण, विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन विद्यालय द्वारा किया जाना चाहिए।

2. गतिशील एवं सन्तुलित मस्तिष्क का निर्माण (Cultivation of a Dynamic and Adaptable Mind)- विद्यालय का एक महत्त्वपूर्ण कार्य यह है कि बालक को ऐसा ज्ञान दे जिससे बालक के मस्तिष्क का गतिशील और सन्तुलित विकास हो सके। प्राप्त ज्ञान को साधन बनाकर नवीन ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करे, अभिनव प्रयोग करने में सक्षम हो सके, परिवर्तनशील समाज और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में सहयोगी हो सके। आवश्यकतानुसार आदतों, व्यवहार, मनोवृत्तियों आदि में परिवर्तन कर सके।

3. संस्कृति की सुरक्षा और हस्तान्तरण (Preservation and Transmission * of Culture)- विद्यालय का प्रमुख कार्य मानव संस्कृति को सुरक्षित रखते हुए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तान्तरण करना है।

4. व्यावसायिक तथा औद्योगिक शिक्षा (Vocational and Industrial Education) – प्राचीन समय में परिवार द्वारा पारम्परिक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त हो जाती थी, परन्तु आधुनिक समय में जीविकोपार्जन के लिए विशिष्ट तकनीकी ज्ञान की शिक्षा आवश्यक हो गयी है। अतः जीविकोपार्जन के लिए व्यावसायिक और औद्योगिक शिक्षा देना आवश्यक हो गया है। भविष्य में विद्यार्थी जीविकोपार्जन के लिए अपनी योग्यता और सामाजिक आवश्यकताओं के आधार पर सही दिशा का चयन कर सकें, इसके लिए शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन की व्यवस्था भी विद्यालय में होनी चाहिए।

5. मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन तथा पुनर्रचना (Reorganization and Reconstruction of Human Experiences) – विद्यालय का कार्य मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन और पुनर्रचना भी है। वास्तविकता यह है कि विद्यालय का सम्बन्ध केवल समाज की निरंतरता को बनाये रखने से ही नहीं है, अपितु उसे इस विकास के लिए भी प्रयास करना चाहिए। विद्यालय को सदैव मानवीय अनुभवों का पुनर्गठन करना चाहिए। चूँकि विद्यालय समाज की पुनर्रचना करता है, इसलिए उसे उच्च प्रकार की संस्कृति के निकट भी रहना चाहिए। इसके लिए उच्च शाखाओं में शोध की आवश्यकता है। इस कार्य को केवल विद्यालय ही कर सकता है।

6. नागरिकता का विकास (Development of Citizenship) – विद्यालय का कार्य बालकों को कुशल नागरिक बनाना भी है जिससे कि वह सक्रिय रूप से राजनैतिक, और आर्थिक कार्य में भाग ले सके। उसमें अधिकार और कर्त्तव्य को सन्तुलित करने की क्षमता जाग्रत करना विद्यालय का ही कार्य है। जनतंत्र की सफलता योग्य नागरिकों पर ही निर्भर होती है। इस दृष्टि से विद्यालय को बालकों के समक्ष ऐसा वातावरण प्रस्तुत करना चाहिए जिसमें रहते हुए उन्हें अपने कर्त्तव्यों तथा अधिकारों का ज्ञान हो जाये।

7. चरित्र का विकास (Development of Character)- विद्यालयों का वातावरण ऐसा होना चाहिए जिसमें बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण हो सके तथा उनके चारित्रिक और नैतिक गुणों का विकास हो सके। इसके लिए विद्यालयों को निरन्तर विविध कार्यक्रमों का आयोजन करते रहना चाहिए, जैसे- प्रार्थना सभा, विविध सांस्कृतिक एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन, पुस्तकालय में उपयोगी अध्ययन सामग्री की उपलब्धता, समाज-सेवा कार्य आदि। एक अच्छे चरित्र वाला व्यक्ति ही संकुचित दृष्टिकोण, व्यक्तिगत लाभ, क्रोध, भय तथा धन-लोलुपता से ऊपर उठ सकता है। विद्यार्थी के चरित्र निर्माण का कार्य विद्यालय पर ही निर्भर होता है।

(II) अध्यापक के अनौपचारिक कार्य ( Informal Functions of Teacher)

(1) शारीरिक विकास (Physical Development)- विद्यालयों का एक अनौपचारिक कार्य ‘शरीर का उत्कर्ष’ करना है। मानसिक क्रियाओं का आधार भी शारीरिक विकास होता है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क होता है। विद्यालय का सम्पूर्ण वातावरण ऐसा होना चाहिए जिसमें रहते हुए बालक स्वयं ही स्फूर्ति अनुभव करते रहे ।

(2) सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feeling) – विद्यालय का यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य होता है कि वह बालक को इस प्रकार तैयार करे, ऐसी भावना का विकास करे, जिससे वह अपने आपका नहीं, समाज का ध्यान सर्वदा रखे । सामाजिक भावना के विकास से बालकों को सामाजिक उन्नयन, सामाजिक कल्याण तथा मानवतावादी दृष्टिकोण से कार्य व्यवहार करना आ जाता है, जिससे समाज में एकता, भाईचारा, सौहार्द्र की स्थापना होती है।

विद्यालय में विभिन्न वर्गों, समुदायों और समाज के बालक एक साथ रहते हैं, एक साथ क्रिया करते हैं । विद्यालय को चाहिए कि ऐसे वातावरण का निर्माण करे जिससे बालकों में ‘हम’ भावना का विकास हो सके, हम भावना से एकता स्थापित होती है। एकता वह सम्बल है जिससे समाज अटूट बनता है।

बालक परिवार में जन्म लेता है, जहाँ उसका प्रारम्भिक विकास होता है, परंतु अन्ततः उसे समाज का सदस्य बनना पड़ता है। वह समाज का सफल और समाजोपयोगी सदस्य बन सके, इसके लिए विद्यालय को महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनी पड़ती है। विद्यालय अनेक प्रकार से घर और समाज के बीच कड़ी का काम करता है। विद्यालय के इन महत्त्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख निम्नवत् किया जा सकता है-

(i) समाज बन्धुओं से सम्पर्क

(ii) सामाजिकता की भावना का विकास

(iii) नागरिक गुणों का जागरण

(iv) सामाजिक संस्कृति की सुरक्षा

मनुष्य परिवार की भूमिका (Role of family)- वर्तमान समय में परिवार के कार्यों में बहुत परिवर्तन आया है। समाज की जटिलता, औद्योगिक विकास तथा सूचना क्रांति ने की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को विस्तृत कर दिया है। एक सामाजिक समूह से दूसरे सामाजिक समूह की ओर गति करता है। कोई भी व्यक्ति उच्च सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक पदस्थिति प्राप्त करने के लिए संघर्षशील बनता जा रहा है। आदिम समाजों के कई मूल्यों और सामाजिक संरचनाओं में भारी बदलाव आये हैं, जैसे- औद्योगीकरण, तर्कवाद में विश्वास, पूँजीवाद, वैज्ञानिकता, सांसारिकता, समता, न्याय, स्वतंत्रता, व्यक्तिवाद, मानववाद, धर्मनिरपेक्षता आदि। इन सभी ने परिवार के शैक्षिक कार्यों को अन्य संस्थाओं के ऊपर डाल दिया है ताकि बालकों को विशेषीकृत शिक्षा विशिष्ट कौशलयुक्त प्रशिक्षकों/अध्यापकों से प्राप्त हो सके । फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए कि बालक के कुछ भी सीखने की शुरूआत परिवार से ही होती है। परिवार के वातावरण, परिवार के सदस्यों के कृत्यों व व्यवहारों, परिवार के आदर्शों व मूल्यों से बालक प्रभावित होते हैं और उन्हीं के अनुरूप सीखते हैं। पारिवारिक सदस्यों के बीच रहकर जितना अधिक नैतिक चारित्रिक-सामाजिक मूल्यों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, उतना शिक्षा के किसी अन्य अभिकरण से नहीं प्राप्त कर सकता । बड़े-बड़े महापुरुषों के व्यक्तित्व के विकास में उनके परिवार का ही योगदान रहा है, चाहे वह रवीन्द्रनाथ टैगोर हो, स्वामी विवेकानन्द हो, महात्मा गाँधी हो, स्वामी दयानन्द हो या राजा राममोहन राय हो । परिवार के शैक्षिक कार्यों का उल्लेख निम्नवत् किया जा सकता है-

1. बालक का शारीरिक विकास (Physical Development of the Child)- परिवार बच्चों के खाने-पीने की व्यवस्था करता है, उनके स्वास्थ्य की नियमित तौर पर निगरानी करता है। बच्चों के सन्तुलित भोजन का प्रबंध कर उन्हें कुपोषण से बचाता है। परिवार बच्चों के लिए साफ पानी, सफाई और स्वच्छता जैसे स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों का ध्यान रखता है । विभिन्न रोगों से प्रतिरोध करने की क्षमता के विकास के लिए माता-पिता अपने बच्चों को आवश्यक टीके उचित समय पर लगवाते रहते हैं। बच्चों के बीमार पड़ जाने पर उनका इलाज कराना, उनकी विशेष देखभाल करना परिवार का ही कर्त्तव्य होता है। सभी परिवार अपने बच्चों को स्वास्थ्य सम्बन्धी नियम सिखाते हैं, उनके अंदर स्वास्थ्य सम्बन्धी आदतों और मूल्यों का विकास करते हैं। विद्यालय में सीखी हुई स्वास्थ्य सम्बन्धी जानकारियों को परिवार व्यावहारिक रूप क्रियान्वित करने के लिए बच्चों को प्रेरित करता है।

2. बच्चे का मानसिक विकास (Mental Development of the Child)- बालकों के मानसिक विकास में परिवार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। माता-पिता बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए परिवार में उचित वातावरण का निर्माण करते हैं, उनकी रुचियों और आवश्यकता के अनुसार उनके लिए खेल के उपकरणों की व्यवस्था करते हैं। शिक्षित माता-पिता अपने बच्चों को स्वयं के प्रति तथा चारों ओर की वस्तुओं एवं लोगों के प्रति सचेत करते हैं। शैशवावस्था में सूक्ष्म प्रत्ययों को परिवार में ही स्पष्ट किया जाता है जो बाद में बौद्धिक विकास का आधार बनते हैं। जिन बच्चों के माता-पिता शिक्षित होते हैं, वे अपने बच्चों को शिक्षा की प्रेरणा देने में सफल होते हैं, ऐसे बच्चों का मानसिक विकास शीघ्र और अधिक मात्रा में होता है। घर के अन्य बड़े बालकों (भाई-बहन) के शैक्षिक क्रियाकलापों से छोटे बालकों को प्रेरणा मिलती है, प्रभावित होते हैं।

आधुनिक सूचना सम्प्रेषण क्रांति के युग में बालकों के मानसिक विकास के लिए परिवार उन्हें विविध साधन उपलब्ध कराता है, जैसे-टी.वी., कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि । जिन परिवारों में विभिन्न प्रकार की पुस्तकों, समाचार-पत्रों तथा पत्रिकाओं की पर्याप्त उपलब्धता होती है उन बच्चों का मानसिक विकास अपेक्षाकृत शीघ्रता से होता है। साधन-सम्पन्न परिवारों के बच्चों को अपने माता-पिता के साथ विद्यालय के बाहर होने वाली विविध प्रतियोगिताओं, कार्यक्रमों, क्रियाकलापों को देखने तथा उनमें भाग लेने का अवसर मिलता है, कुछ कमजोर आर्थिक स्थिति वाले माता-पिता भी अपने बच्चों को आगे बढ़ाने के किसी न किसी तरह से इंतजाम करते हैं। मानसिक विकास के लिए केवल कक्ष शिक्षण ही पर्याप्त नहीं होता । माता-पिता के विविध प्रयासों से बालक नई परिस्थितियों से समायोजन करना सीखते हैं, समस्या समाधान का प्रयास करते । माता-पिता सफलता-असफलता दोनों स्थितियों में बच्चों के साथ रहते हैं। कहने का अर्थ यह है कि परिवार अपने बच्चों के मानसिक विकास के लिए वातावरण तैयार करता है और हर सम्भव साधन की व्यवस्था करता है।

3. बच्चे का संवेगात्मक विकास (Emotional Development of the Child) – परिवार बच्चे को उचित परिवेश प्रदान करके उसके संवेगात्मक विकास को उचित दिशा में मोड़ने का प्रयास करता है। परिवार बच्चे को विश्राम की कमी नहीं होने देता, सन्तुलित भोजन की व्यवस्था करता है, जिससे बच्चे के स्वास्थ्य विकास में बाधा न उत्पन्न हों और बच्चा चिड़चिड़ा तथा क्रोधी न हो। बच्चों को माँ की ममता, पिता का संरक्षण और भाई-बहिनों का स्नेह मिलता है, उनके मन में एक विश्वास और सुरक्षा की भावना पनपती है, जिससे संवेगात्मक विकास को दिशा मिलती है। परिवार में शान्ति और सुरक्षा एवं आनन्द के कारण उत्तेजना उत्पन्न नहीं होती है, तो बच्चे के संवेगात्मक विकास का रूप सन्तुलित होता है। परिवार आदर्श, स्वतंत्र और स्वस्थ वातावरण बच्चे के संवेगों का परिष्कार करता है। परिवार में समय-समय पर विभिन्न उत्सव, सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं, जैसे- जन्म-दिवस मनाना, धार्मिक उत्सव मनना, विवाहोत्सव आदि । ये अवसर बच्चे में उल्लास भर देते हैं। माता-पिता बच्चे के भय, क्रोध आदि अवांछित संवेगों का मार्गान्तरीकरण करके, उसे अच्छे कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं. तथा उचित या अनुचित पर विचार करना सिखाते हैं। संवेगों पर नियंत्रण करना सिखाने में माता-पिता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

4. भाषा का विकास करना ( Development of Language) – भाषा के विकास पर परिवार का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। बोलना एक प्रकार का व्यवहार है जो बालक अपने परिवार के सदस्यों से सीखता है। अध्ययनों से पता चला है कि जिन परिवारों में अकेला बालक होता है, उसका विकास अधिक होता है, क्योंकि वह वरिष्ठ व्यक्तियों का ही अनुकरण करता है। इससे स्पष्ट होता है कि बालक के भाषा विकास पर परिवार का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। जिन परिवारों के सदस्य अनुशासित और सुसंस्कृत भाषा का प्रयोग करते हैं, उनके बच्चों की भी भाषा संस्कारयुक्त होती है । वरिष्ठ सदस्यों की भाषा को बालक आत्मसात् करता रहता है। आज दूरदर्शन के प्रभाव के कारण बच्चों की भाषा को नियंत्रित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। बच्चे जाने-अनजाने अभद्र भाषा का भी प्रयोग करने लगते हैं। माता-पिता को निरंतर सचेत रहकर अपने बच्चों के भाषा विकास पर ध्यान रखना चाहिए।

5. बालक का सामाजिक विकास (Social Development of the Child)- बच्चे का सामाजिक विकास करना परिवार का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है । बच्चा माँ के और पिता के संरक्षण से बहुत कुछ सीखता है। परिवार में प्रायः भिन्न-भिन्न रुचि और मिजाज वाले सदस्य होते हैं, इनके व्यवहार के तरीके और भावनाएँ भी अलग-अलग होती हैं। इन सभी को बच्चे के साथ सम्बन्ध स्थापित करना पड़ता है। इससे बच्चा दूसरों के साथ अनुकूलन करना सीखता है। परिवार के बड़े सदस्यों की बातों को सहना और मानना पड़ता है, जिससे उसमें सहनशीलता का गुण विकसित होता है। दूसरों से अनुकूलन करने की क्षमता और सहनशीलता, जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सामाजिक गुण है, का प्रारम्भिक विकास परिवार में ही होता है।

परिवार में ही बच्चा सर्वप्रथम यह सीखता है कि किस प्रकार खाना चाहिए, किस ढंग से कपड़े पहनने चाहिए, किस तरह उठना-बैठना चाहिए एवं दूसरों से कैसे बात करनी चाहिए। माता-पिता अपने बच्चों को सिखाते हैं-बाहर से आने वाले लोगों को नमस्ते करें, खाने से पूर्व हाथों को साफ करें आदि-आदि। इसी प्रकार अनेक रीति-रिवाज, धर्म, प्रथा, परम्परा, आचार आदि का ज्ञान बच्चे को परिवार से ही होता है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि परिवार का वातावरण, संस्कृति, माता-पिता अन्य सदस्यों का आचरण-व्यवहार तथा पालन-पोषण विधि, उसके सामाजिक विकास पर बहुत प्रभाव डालते हैं।

6. बालक का सांस्कृतिक विकास (Cultural Development of the Child) – अपने बच्चों के सांस्कृतिक विकास के लिए परिवार हमेशा सचेत और तत्पर रहता है, नई पीढ़ी को संस्कृति का ज्ञान प्रदान करता है। वरिष्ठ लोग अपने ज्ञान और अनुभवा से अपने बच्चों को लाभान्वित करने का प्रयास करते रहते हैं। परिवार अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से नई पीढ़ी को सम्पृक्त करने का प्रयास करता है। प्रत्येक परिवार के क्रियाकलापों में उसके मूल्य, परम्पराएँ व रीति-रिवाज परिलक्षित होते हैं, उन्हीं को देख-सुनकर बच्चे वैसा ही करने का अभ्यास करते हैं। परिवार वह नर्सरी एवं प्रयोगशाला है जहाँ बालक का सांस्कृतिक विकास होता है।

7. बालक का धार्मिक एवं आध्यात्मिक विकास (Religious and Spirtual Development of the Child) – माता-पिता के धार्मिक विचारों और दृष्टिकोणों का बच्चे के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक परिवार किसी न किसी धर्म का अनुयायी होता है। बच्चे धार्मिक शिक्षा, धार्मिक, प्रथाएँ, नैतिकता आदि परिवार से ही सीखते हैं। बच्चे अपने परिवार में आयोजित प्रार्थना, पूजा-पाठ तथा आराधना में सम्मिलित होते हैं, देवालयों में जाते हैं, धार्मिक सामग्रियों और धार्मिक प्रतीकों की जानकारी हासिल करते हैं, पौराणिक कथाओं से अवगत होते हैं, पवित्रता से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों को धारण करते हैं । धार्मिक नियमों के पालन से बालक में कत्तर्व्यपालन की भावना का विकास होता है, दूसरों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना सीखता है, अनेक प्रकार की अनिश्चितता, निर्बलता, असुरक्षा और अभाव में भी धैर्य रखता है तथा निराशाओं से बचता है। परिवार द्वारा प्राप्त धार्मिक शिक्षा से बालक में नैतिक और आध्यात्मिक विकास होता है । ईश्वर की पूजा, अर्चना, उपासना, मंत्र जाप, ग्रन्थ-पाठ, आरती सभी कुछ सांगीतिक रूप में हुआ करती हैं, जो बालक में कोमल भावना उत्पन्न करते हैं।

8. बालक में सृजनात्मकता का विकास करना ( Development of Creativity in the Child) – बालकों की सृजनात्मकता के विकास में परिवार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बच्चों में थोड़ी या अधिक मात्रा में सृजनशीलता अवश्य होती है। बच्चों की सृजनात्मकता की प्रवृत्ति को अभिव्यक्ति का अवसर देकर सहज रूप से विकसित किया जा सकता है। माता-पिता को चाहिए कि बच्चों को प्रेरणा और प्रोत्साहन दें। माताओं के सृजनात्मक क्रियाकलापों से लड़कियाँ बहुत कुछ घर में ही देख-देखकर सीख लेती हैं, जैसे- सिलाई-कढ़ाई, घर की सजावट, गुड़िया बनाना, अभिनव, पाक कला आदि। लड़के अपने पिता को देखकर विविध जटिल कार्यों में रुचि लेते हैं। माता-पिता का कर्त्तव्य होता है कि अपने बच्चों को ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध करायें जिससे वे नवीनतम सूचनाओं का संकलन कर सकें और अपने सृजनात्मक क्रियाकलापों में उनका उपयोग कर सकें। माता-पिता जब अपने बच्चों के कार्यों की प्रशंसा करते हैं, सृजनात्मक कार्यों के अभ्यास का अवसर प्रदान करते हैं तो उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। कुछ माता-पिता दैनिक जीवन की छोटी-छोटी समस्याओं का समाधान खोजने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं तथा समाधान खोज लेने पर पुरस्कृत भी करते हैं, बालकों की ये समस्याएँ उनके विद्यालयी कार्य, खेल, मित्रों आदि से सम्बन्धित हो सकती हैं।

जिन परिवारों का वातावरण साहित्यिक होता है, वरिष्ठ सदस्य कला के क्षेत्र के होते हैं, उनके बच्चों को सृजनात्मक वातावरण तो मिलता ही है, वे भी विभिन्न क्रियाकलापों में किसी न किसी रूप से प्रतिभागिता भी करते हैं। ऐसे परिवार अपने बच्चों को पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, आवश्यकतानुसार विभिन्न दूर के स्थानों में विभिन्न प्रतियोगिताओं में शामिल होने की अनुमति तथा सुविधा भी प्रदान करते हैं।

9. बालक का व्यावसायिक विकास (Carrier Development of the Child)-आदिम समाजों में बालक को व्यावसायिक शिक्षा अपने परिवार में ही प्राप्त होती थी। आज स्थितियाँ बदल गयी हैं। औद्योगीकरण, नगरीकरण तथा वैज्ञानिक आविष्कारों ने बालक की व्यावसायिक शिक्षा के लिए विशिष्ट संस्थाओं को जन्म दिया। परंतु आज की बढ़ईगीरी, लुहारगीरी, चमड़े का काम, दर्जी का काम, सूत कातना, खेतों में बुवाई करना, मिट्टी के बर्तन बनाना, परम्परागत खिलौने बनाना, मिठाई बनाना आदि व्यावसायिक और औद्योगिक कार्य बच्चे अपने परिवार में ही सीखते हैं।

परंतु आज के बदलते हुए परिवेश में विभिन्न व्यवसायों के प्रशिक्षण की विशेषीकृत संस्था की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। इन संस्थाओं में बालक सफलतापूर्वक प्रशिक्षण ले सकें, इसके लिए परिवार का दायित्व होता है कि आर्थिक व्यवस्था करे। परिवार के सहयोग के बिना बालक का व्यावसायिक विकास सम्भव नहीं है। आर्थिक उपाय के साथ-साथ परिवार बालकों में स्फूर्ति और प्रेरणा भरने का कार्य करते हैं। बालकों की रुचि व रुझान का विकास करने में परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

आजकल जो कोचिंग संस्थाओं की भरमार दिखाई देती है, इसका एक कारण अपने बालकों के लिए माता-पिता की व्यावसायिक शिक्षा की आकांक्षा है। विभिन्न कैरियर क्षेत्रों में प्रवेश मिल सके, इसके लिए माता-पिता अवसर और मार्गदर्शन की व्यवस्था जुटाते हैं। ऐसा भी देखने को मिलता है कि माता-पिता अपनी मूलभूत आवश्यकताओं में भी खर्च की कटौती कर महँगे व्यावसायिक संस्थानों में अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाते हैं।

सामान्यतः शिक्षा के साथ-साथ आजकल बालक व्यावसायिक शिक्षा में प्रवेश की तैयारी के लिए कोचिंग करते हैं। उनका लगभग पूरा का पूरा दिन अपनी शिक्षा और भावी प्रशिक्षण की तैयारी में बीत जाता है। माता-पिता ही ध्यान देते हैं कि बच्चों को उचित पोषण, निद्रा तथा अन्य सुविधाएँ मिलें, जिससे बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहकर अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो सकें। प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में माता-पिता अपने बच्चों का मनोबल बनाये रखते हैं।

10. मूल्यों की शिक्षा देना (Teaching Values) – परिवार सांस्कारिक प्रतिमानों को व्यावहारिक रूप में अपने बच्चों को प्रदान करते हैं। समकालीन परिस्थितियों में परम्परागत मूल्यों से सामंजस्य बनाते हुए जो माता-पिता नवीन संस्कार बच्चों को देते हैं, उसके बल पर बच्चे नव-समाज में अपने को स्थापित करने का प्रयास करते हैं। माता-पिता को यह भी ध्यान देना पड़ता है कि साहित्य, धारावाहिक, सिनेमा, पत्र-पत्रिकाओं, टी.वी. चैनलों, मोबाइल, इण्टरनेट, कम्प्यूटर, चैटिंग आदि तथा मनोरंजन के अन्य साधनों से उनके बच्चे नकारात्मक आचरण और व्यवहार न ग्रहण करें। जब बालक देखता है कि मूल्याभिमुख व्यवहार व असांस्कारिक व्यक्ति अधिक सुखी व सुविधा सम्पन्न है तब उसे मूल्यों से विरक्ति होने लगती है। हताशा के ऐसे समय में माता-पिता ही अपने बच्चों को सँभालते हैं। अनेक बार कतिपय कारणों से बच्चे मूल्य-विरोधी व्यवहार प्रदर्शित कर देते हैं, ऐसी स्थिति में माता-पिता उन्हें शारीरिक दण्ड, डाँट-फटकार न करके उनमें सुधार का प्रयास करते हैं।

बच्चे के ऊपर परिवार के सदस्यों के विचारों, आचरणों एवं व्यवहार प्रतिमानों का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है। विभिन्न शोधों के माध्यम से पता चलता है कि माँ के द्वारा बतायी गयी बात बच्चे अति शीघ्र सीख लेते हैं । कुन्ती ने पाण्डवों को जो संस्कार की शिक्षा दी, उसी का परिणाम था कि मात्र पाँच पाण्डव सत्य, धर्म कर्मनिष्ठा से असत्य व अधर्म पर विजय प्राप्त करने में सफल हुए। सीता ने निर्वासित जीवन जीते हुए भी लव-कुश को धर्म-संस्कार और मूल्यों की अनूठी शिक्षा दी। पुतलीबाई ने बचपन से ही नैतिकता की कहानियाँ सुनाकर गाँधीजी को सत्य, अहिंसा व शान्ति का दूत बना दिया।

11. बालक की आदतों का निर्माण (Formation of Habits of the Child)- बच्चे छोटी-छोटी आदतें परिवार में ही सीखते हैं, किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती, जैसे- जूते के फीते बाँधना, बोलने की आदत, खाना खाने की आदत आदि। परिवार के बड़े सदस्यों का अनुकरण कर बालक भी वैसा ही करने लगते हैं। परिवार अपने संकल्प के अनुसार बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण कर सकते हैं। नित व्यायाम, समय तत्परता, सत्य बोलना, पवित्र जीवन व्यतीत करना आदि आदतों को उपदेश से नहीं, बल्कि अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करके विकसित किया जा सकता है।

बुरी आदतों को तोड़ने में भी परिवार का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। बालक में यदि कोई गलत आदत पड़ गयी है, तो उसका ठीक अभ्यास कराकर परिवार के वरिष्ठ सदस्य गलत अभ्यास को समाप्त करा सकते हैं, जैसे कुछ बच्चे ‘श’ को ‘स’ बोलते हैं, कुछ बच्चों में अत्यधिक झुककर लिखने की आदत पड़ जाती है। जब तक बालक गलत आदत का परित्याग नहीं कर देता, माता-पिता लगातार अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं।

बालकों पर साथी-संगियों की आदतों का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है । बुरी संगति में चोरी करना, झूठ बोलना, विद्यालय से भागना आदि आदतें पड़ जाती हैं । ऐसी दशा में माता-पिता प्रयास करते हैं कि बच्चे को बुरी आदत वाले बालकों से दूर रखा जाये।

12. अवकाश काल के सदुपयोग का प्रशिक्षण ( Training for Proper Utilization of Liesure Time)- आजकल बच्चों के ऊपर पढ़ाई का इतना बोझ होता है कि उन्हें अवकाश मिल ही नहीं पाता है। विद्यालय ग्रीष्मावकाश, शीतावकाश व अन्य कई अवकाश करते हैं, उन अवकाशों को बच्चे के विकास के निमित्त किस प्रकार नियोजित किया जाये, यह परिवार का कर्त्तव्य होता है। लम्बे अवकाशों में बच्चे अपनी नानी, दादी के घर जाते हैं, परंतु अब इसका चलन भी कम होता जा रहा है कि पूरी छुट्टियाँ बच्चे कहीं और बिताकर आयें। छुट्टियों में बच्चों को किस तरह व्यस्त रखा जाये ताकि ये समय का दुरुपयोग न करें, यह भी माता-पिता के लिए विचारणीय विषय होता है, क्योंकि यदि बच्चों के अवकाश के लिए कोई रचनात्मक प्रावधान नहीं किया जायेगा तो उनके बिगड़ने की सम्भावना बन जाती है और वे परिवार के पूरे वातावरण को खराब करने लगते हैं। जागरूक माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार, अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार विविध इंतजाम करते हैं, जिससे उनके बच्चे व्यस्त भी रहें और उनके व्यक्तित्व का विकास भी हो। माता-पिता द्वारा किये जाने वाले उन तमाम इंतजामों में से कुछ निम्न प्रकार हैं-

(i) तैरना सीखने के लिए भेजना ।

(ii) किसी खेल का प्रशिक्षण दिलवाना ।

(iii) संगीत कक्षाओं, नृत्य कक्षाओं में भेजना ।

(iv) चित्रकला व अन्य हॉबी क्लासेस में प्रवेश दिलवाना ।

(v) पारिवारिक उद्योग में उनके अनुसार कार्य सौंपना ।

(vi) पिकनिक या भ्रमण की व्यवस्था ।

(vii) संग्रहालय, चिड़ियाघर, प्रदर्शनी, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक स्थानों पर घुमाना।

(viii) ‘होम मैनेजमेण्ट’ में लगाना ।

(ix) बागवानी में लगाना ।

(x) लड़कियों को पाक कला, सिलाई आदि सिखाना ।

(xi) अच्छी-अच्छी पुस्तकों, पत्रिकाओं, सी.डी. आदि उपलब्ध कराना ।

(xii) कम्प्यूटर कोर्स करवाना आदि ।

विद्यालय में जाते-जाते, लगातार पढ़ते रहने से बालकों को उबा देने, थकाने, उदासीनता आने की स्थिति समाप्त हो जाती है। पुनः विद्यालय खुलने पर स्फूर्ति के साथ जाने लगते हैं। अवकाश का सदुपयोग करने से उद्दण्डताओं में बहुत कमी आती है और बच्चों की प्रतिभा को निखरने का अवसर मिलता है।

13. बालक में सौन्दर्यबोध का विकास करना (Aesthetic Development in the Child)- बालक में सौन्दर्यबोध का विकास करने में परिवार की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। घर में बहुत-से ऐसे कार्य व वरिष्ठ सदस्यों की प्रवृत्तियाँ होती हैं, जिनसे बालक सौन्दर्य की अनुभूति करते हैं इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं-

(i) घर के प्रत्येक कक्ष की सजावट।

(ii) माता-पिता द्वारा खूबसूरत व रंग-बिरंगे परिधानों का चयन ।

(iii) गमलों की रंगाई-पुताई कर खूबसूरत पौधे लगाना ।

(iv) भोजन को सुन्दर तरीके से परोसना ।

(v) अतिथियों के आने से पूर्व घर की विशेष साज-सज्जा करना ।

(vi) पूजा के लिए थाल सजाना, पूजास्थल को सजाना ।

(vii) जन्मदिवस के मौके पर विशेष रूप से घर को सजाना ।

(viii) साप्ताहिक, मासिक व वार्षिक सफाई ।

(ix) दैनिक उपयोग के लिए खूबसूरती से वस्तुएँ बनाना, जैसे-अखबार रखने का हैंगर, वॉल हैंगिंग, मेजपोश, गुलदस्ता आदि ।

(x) उपहार को खूबसूरती से पैक करना ।

(xi) बच्चों के लिए मनमोहक स्कूल बैग, टिफिन बॉक्स, पेन्सिल बॉक्स आदि खरीदना आदि ।

14. निःस्वार्थता की शिक्षा (Education for Selflessness) – बोगार्डस ने लिखा है- “परिवार का आधार आत्म-बलिदान का सिद्धांत है। आत्म-बलिदान के कारण ही इसकी महान शक्ति है और इसलिए यह बालकों के सामाजिक प्रशिक्षण का केन्द्र है।” माता-पिता अपनी संतानों के लिए त्याग और कर्त्तव्य चेतना से ओत-प्रोत होते हैं। बालक अपने माता-पिता की निःस्वार्थ सेवा को हर पल देखता है, वे स्वयं मुसीबत उठाकर अपने बच्चों को आराम देने की कोशिश करते हैं। इससे बच्चे के अंदर भी निःस्वार्थ सेवा के भाव जाग्रत होते हैं।

15. कौशल विकास (Skill Development)- परिवार में बालक विविध प्रकार के नागरिक व सामाजिक कौशलों को सीखते हैं। माता-पिता प्रयासरत रहते हैं कि उनके बच्चे धर्म मार्ग की ओर अग्रसर हों, क्रियाशील रहें, आज्ञापालन करें, साहसी और निर्भीक बनें, अपनी छोटी-मोटी समस्याओं को स्वयं सुलझाने में सक्षम बनें, विभिन्न व्यावसायिक कौशल सीखें, सामाजिकता में दक्ष हों, आत्मनिर्भर बनें। इसके लिए वे विभिन्न प्रकार से प्रयास करते हैं, मार्गदर्शन देते हैं।

परिवार शिक्षा का अनौपचारिक अभिकरण होते हुए अति महत्त्वपूर्ण है। बच्चे की शिक्षा परिवार से ही प्रारम्भ होती है और सभी अवस्थाओं में परिवार के शैक्षिक कार्य और दायित्व होते हैं । पारिवारिक परिस्थितियों को देखकर ही बच्चों की मनःस्थित विनिर्मित होती है । अतः बच्चों को केवल खिलाने-पिलाने व विद्यालय में प्रवेश दिलाने से परिवार का दायित्व पूरा नहीं हो जाता, परिवार जितना सुसभ्य एवं सुसंस्कृत होगा, सन्तान भी उसी में ढलती चली जायेगी ।

बदलते पारिवारिक परिदृश्य और परिवार शिक्षा (Changing family Patterns and family Education) – आज हर क्षेत्र में नई प्रौद्योगिकी और नई विचारधारा का विकास हुआ है, जिसने परिवार के ढाँचे और कार्यों को तेजी से बदला है, पारिवारिक मूल्यों को प्रभावित किया है, भौतिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त मानसिक आवश्यकताओं में भी परिवर्तन आ गया है। आज पारिवारिक जीवन में सामान्य सहमति का अभाव दिखाई पड़ता है। परिवार अपने बच्चों को स्वाभाविक और प्रभावशाली शिक्षा प्रदान नहीं कर पा रहे हैं। परिवार के बदलते परिदृश्य का परिवार शिक्षा पर प्रभाव निम्नवत् देखा जा सकता है-

1. वर्तमान समय में परिवार का आकार छोटा होता जा रहा है। इरावती कर्वे ने संयुक्त परिवार को एक छोटी-मोटी दुनिया माना है। संयुक्त परिवार में वयोवृद्ध स्त्री-पुरुष बच्चों के पालन-पोषण में सहयोग प्रदान करते है एवं उनके समाजीकरण व शिक्षण में योगदान देते हैं। अब छोटे परिवारों या एकाकी परिवारों में माता-पिता पर ही बच्चों का पूरा दायित्व होता है।

2. जिन परिवारों में माता-पिता दोनों नौकरी करते हैं और बच्चे नौकरों की देखरेख में रहते हैं, स्थिति बड़ी भयावह हो गयी है, क्योंकि वहाँ कई बार निम्नस्तरीय आदतें सीख लेते हैं, उनमें अच्छे गुणों का विकास नहीं हो पाता है।

3. परिवार में वयोवृद्ध व्यक्तियों के अभाव के कारण बच्चों का मार्गदर्शन युवा माता-पिता पर होता है, माता-पिता के पास अनुभवों की कमी होती है, विकट परिस्थितियों में धैर्य खो बैठते हैं, जिससे बच्चे प्रभावित होते हैं।

4. शिक्षा और सामाजिक चेतना ने स्त्रियों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया परन्तु सभी परिवारों में स्त्रियों की बराबरी की स्थिति को स्वीकार नहीं किया जाता, ऐसे में पारिवारिक कलह उत्पन्न होती है, जो बालक के मानसिक विकास पर अनुचित प्रभाव डालते हैं।

5. कुछ परिवार तो ऐसे भी पाये जाते हैं जहाँ स्त्री-पुरुष कर्त्तव्य के बजाय अधिकारों पर अधिक बल देते हैं और अपनी स्वयं की आवश्यकताओं को हर दशा हैं। वहाँ पारिवारिक तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है। इस स्थिति में उनका ध्यान अपने में बच्चों के विकास पर नहीं रहता है। बच्चों को उचित पारिवारिक वातावरण न मिलने पर उनका पूरा करना चाहते समाजीकरण नहीं हो पाता, चरित्र का विकास प्रभावित होता है, बच्चे असामान्य स्थिति में चले जाते हैं।

6. परिवार के मनोरंजन सम्बन्धी कार्य अब क्लबों, किटी पार्टियों, सिनेमा आदि ने ले लिये हैं। घर के अन्दर टी. वी. और इण्टरनेट ने अपना स्थान बना लिया है।

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shubham yadav

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