अनुक्रम (Contents)
संसदीय शासन प्रणाली के गुण
1. कार्यपालिका तथा विधान मण्डल में पूर्ण सहयोग-इसमें कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के मध्य पूर्ण सहयोग बना रहता है। मन्त्रिमण्डल के सदस्य व्यवस्थापिका के सदस्य होते हैं। उसके वाद-वावद में भाग लेते हैं और विधेयक (बिल) प्रस्तुत करते हैं। चूँकि मंत्रिमण्डल को बहुमत प्राप्त होता है इसलिए उसकी सहमति के बिना कोई भी विधेयक पारित नहीं हो सकता। दोनों के मध्य सहयोग के कारण श्रेष्ठ विधियों का निर्माण होता है और शासन में दक्षता आती है।
2. उत्तरदायी सरकार-संसदात्मक व्यवस्था में सरकार उत्तरदायी होती है, जिसका अर्थ है कि मंत्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों तथा नीतियों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होता है। मंत्रिमण्डल अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी इच्छानुसार न करके विधानमण्डल की इच्छानुसार करता है। व्यवस्थापिका के सदस्य जनता के प्रतिनिधि होने के नाते जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। इसलिए इसमें शक्तियों का प्रयोग जनहित में किया जाता है। मंत्रिमण्डल के उत्तरदायित्व का अनुभव प्रश्न एवं पूरक प्रश्न, काम रोको तथा निन्दा प्रस्ताव, एवं अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा किया जाता है।
3. सरकार निरंकुश नहीं बन सकती-इसमें सरकार व्यवस्थापिका के प्रति उदारदायी होने के कारण निरंकुशतापूर्ण आचरण नहीं कर सकती। अविश्वास के प्रस्ताव के द्वारा उसे हटाया जा सकता है। विरोधी दल बराबर छाया की तरह उसके पीछे लगा रहता है और उसकी आलोचना करके जनमत को अपने पक्ष में करने का प्रयत्न करता है । सरकार जनमत के अनुसार चलती है। मंत्री व्यवस्थापिका के सदस्य होने के नाते जनता के प्रतिनिधि होते हैं और निर्वाचन के समय जनता को दिये गये वचनों को पूर्ण करने का दायित्व उन पर होता है। यदि मंत्री उन वायदों को पूरा न कर जनमत की अवहेलना करता है, तो सरकार को अगले निर्वाचन में जनता के सम्मुख जवाबदेह होना पड़ता है।
4. परिवर्तनशील सरकार-इसमें सरकार आवश्यकतानुसार बदली जा सकती है।
5. योग्य व्यक्तियों का शासन-इसमें बहुमत दल उसी को अपना नेता बनाता है, जो उस दल में सबसे योग्य, लोकप्रिय तथा विद्वान् होता है और प्रधानमंत्री भी योग्य व्यक्तियों को ही मन्त्री बनाता है। यदि कोई अयोग्य व्यक्ति मन्त्री बन जाता है तो उसे हटाया भी जा सकता है। मन्त्री को अपनी योग्यता को दिखलाने का अवसर भी प्राप्त होता है
6. जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करती है – संसदीय शासन व्यवस्था में राजनीतिक दल और विरोधी दल बराबर जनता और जनमत के सम्पर्क में रहते हैं, ताकि जनमत को अपने पक्ष में करके अगले निर्वाचन को भी जीतने का प्रयत्न कर सकें। इससे नागरिकों की राजनीति में अभिरुचि बनी रहती है।
7.राज्य का अध्यक्ष निष्पक्ष परामर्श देता है-राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का और राजनीतिक दलों से असंबद्ध होने के कारण निष्पक्ष सलाह प्रस्तुत करता है और प्रधानमंत्री को ऐसे निष्पक्ष परामर्श की आवश्यकता होती है क्योंकि वह स्वयं बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल से सम्बन्धित होने के कारण निष्पक्षतापूर्वक राष्ट्रहित में विचार नहीं कर पाता।
8. राजतन्त्र को प्रजातन्त्र में बदलना-इस व्यवस्था में राज्य का मुखिया राष्ट्रपति या सम्राट और सरकार का मुखिया प्रधानमंत्री अलग-अलग होते हैं। राजा राज्य का मुखिया होता है जो कि राजतन्त्र का प्रतीक है। लेकिन प्रधानमंत्री जनता का प्रतिनिधि होने के कारण इस राजतन्त्रीय व्यवस्था में सही माने में प्रजातन्त्र की स्थापना कर देता है । इंग्लैण्ड, जापान, स्वीडन, नाव्वे, डेनमार्क, बेल्जियम आदि में ऐसा ही होता है ।
9. वैकल्पिक शासन की व्यवस्था- चूंकि मन्त्रिमण्डल तभी तक अपने अस्तित्व में रहता है जब तक उसे व्यवस्थापिका का विश्वास प्राप्त रहता है। इसलिए जब उसके विरुद्ध अविश्वास की प्रस्ताव पारित होने पर पद त्याग करना पड़ता है तो विरोधी दल तुरन्त सरकार का निर्माण कर लेता है और शासन कार्य में अवरोध उत्पन्न नहीं होने पाता।
संसदीय प्रणाली के दोष
1. शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध है-इसमें शक्तियों के एक व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों में केन्द्रित होने के कारण नागरिकों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात होने का डर रहता है। मन्त्रिमण्डल कार्यकारिणी का भी कार्य करता है। यानी सरकार को भी चलाता है और विधि का निर्माण भी करता है। मन्त्री और प्रधानमंत्री संसद की बैठकों में शामिल होते हैं, विधेयक प्रस्तुत करते हैं, मत देते हैं, और आवश्यकता पड़ने पर प्रधानमंत्री संसद को भंग भी करा देता है। इस तरह इसमें शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है और शक्तियों के पृथक्करण सिद्धान्त के लाभ प्राप्त नहीं होते।
2. अस्थिर सरकार- इसमें कार्यपालिका की अवधि अनिश्चित होने के कारण मन्त्रियों को सदैव इस बात की चिन्ता बनी रहती है कि व्यवस्थापिका उनसे नाराज होकर उनके विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित न कर दे। जहाँ बहुदलीय प्रणाली होती है वहाँ यह अस्थिरता और भय ज्यादा होता है जिसके कारण सरकार स्थिर नीतियाँ और दीर्घकालीन योजनाओं का निर्माण नहीं कर सकती और उसका सारा समय व्यवस्थापिका को प्रसन्न करने में ही व्यतीत होता है।
3. मन्त्रिण्डल की तानाशाही का भय-संसदीय शासन प्रणाली में जहाँ दो से अधिक दल होते हैं, वहाँ शासन अस्थायी होता है। परन्तु जहाँ केवल दो दल होते हैं वहाँ मन्त्रिमण्डल की तानाशाही स्थापित हो जाती है । निर्वाचन में जिस दल को बहुमत प्राप्त होता है उसी दल की सरकार बनी रहती है और कठोर दलीय अनुशासन के कारण उस दल का बहुमत अगले निर्वाचन के पहले तक बना रहता है जिसके कारण मन्त्रिमण्डल को अपने अस्तित्व के सम्बन्ध में कोई चिन्ता नहीं होती और तानाशाही की तरह आचरण करता है। विरोधी दल अगले चुनाव तक उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। उसकी सहायता के बिना कोई विधेयक पारित नहीं हो सकता और यदि संसद मन्त्रिमण्डल को निष्कासित करने का प्रयत्न करती है तो मन्त्रिमण्डल संसद को भंग करने की धमकी दे सकता है। इस तरह मन्त्रिमण्डल निरंकुशतापूर्ण ढंग से मनमानी करता है।
4. यह अदक्षतापूर्ण शासन है- इसमें शासन अकुशल होता है क्योंकि शासन की बागडोर अनाड़ी और अकुशल मन्त्रियों के हाथ में होती है जिनकी नियुक्ति योग्यता के आधार पर न होकर राजनीतिक आधार पर होती है। मन्त्रियों के पास संसद की बैठकों में भाग लेने, विरोधी दल द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने, अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों से मिलने-जुलने तथा विभिन्न उत्सवो में भाग लेने के कारण शासन और प्रशासन की ओर ध्यान देने का न तो समय मिलता है और न तो सामान्यत: कुशलता होती है।
5. संसद की दुर्बल स्थिति-इसमें संसद बहुत कमजोर हो जाती है। संसद का मन्त्रिमण्डल पर नियंत्रण होने की बात तो दूर की है, वास्तव में मन्त्रिमण्डल का संसद पर नियंत्रण होता है।
6. यह उग्रदलीय भावना को जन्म देती है-यह शासन प्रणाली राजनीतिक दलों पर आधारित है। इसमें बहुमत दल सरकार का निर्माण करता है और अन्य दल विरोधी दल के रूप में कार्य करते हैं। बहुमत अधिक-से-अधिक समय तक शासन करना चाहता है जिसके लिए वह हर संभव प्रयास करता है। लेकिन विरोधी दल जल्दी-से-जल्दी बहुमत दल को हटi कर स्वयं शासन सत्ता पर अधिकार जमा लेना चाहता है। विरोधी दल सत्तारूढ़ दल की अच्छी से अच्छी नीतियों की भी आलोचना केवल आलोचना के लिए करता है। फलस्वरूप विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच घृणा और ईष्ष्या भाव उत्पन्न हो जाता है। उनके सामने अपने दल का हित सर्वोपरि हो जाता है जिसके लिए वे राष्ट्रीय हित के लिए भयंकर खतरा बन जाती हैं ।
7. संकट काल के समय निर्बल सरकार-डायसी के अनुसार इस व्यवस्था में निर्णय किसी एक व्यक्ति के द्वारा लिये जाने के बजाय बहुसंख्यक मन्त्रिमण्डल के द्वारा लिये जाते हैं। जिसके कारण प्राय: निर्णय लेने में विलम्ब हो जाता है। फलस्वरूप यह संकटकाल का सामना करने में अनुपयुक्त और कमजोर साबित होती है।
संसदीय शासन प्रणाली के लक्षण
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