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सूचना का उद्देश्य | सूचना का विषयवस्तु | Purpose of Notice in Hindi

सूचना का उद्देश्य
सूचना का उद्देश्य

सूचना का उद्देश्य(Purpose of Notice)

धारा 80 के अधीन सूचना देने का उद्देश्य है, सम्बन्धित सरकार या लोक-अधिकारी को एक अवसर प्रदान करना ताकि वह अपनी विधिक स्थिति पर पुनः विचार कर ले और अगर यह उचित समझे तो दावे को न्यायालय से बाहर सुलझा ले। अगर सरकार या लोक-अधिकारी ऐसा कर लेता है तो वादी को वाद संस्थित करने की आवश्यता नहीं पड़ेगी। वादी और सरकार दोनों अनावश्यक मुकदमेबाजी एवं व्यय से बच जायेंगे।

धारा 80 के अन्तर्गत सूचना के बारे में अपना विचार व्यक्त करते हुये, उच्चतम न्यायालय ने सलेम एण्डवोकेट बार एसोसिएशन बनाम यूनियन आफ इण्डिया में कहा कि इस बात का न्यायिक संज्ञान किया जाना चाहिये कि बहुत सारे मामले में सूचना का (सरकारों या अधिकारियों द्वारा) या तो उत्तर नहीं दिया जाना या यदि कुछ मामलों में दिया भी जाता है तो स्पष्ट या भुलावा देने वाला (evasive) होता है।

इसका परिणाम होता है कि धारा 80 या उसी तरह के अन्य प्रावधानों का उद्देश्य असफल हो जाता है। इससे न केवल बचे जाने वाले मुकदमें में वृद्धि होती है, अपितु सरकारी खर्चे में भी वृद्धि होती है। वर्तमान स्थिति और परिस्थितियों को देखते हुये हम सम्बन्धित सरकारों (केन्द्र या राज्यों की) या अन्य प्राधिकारियों को यह निर्देश देते हैं कि वे तीन माह के भीतर एक ऐसे अधिकारी को नामित करे जो नोटिस (सूचना) का जवाब अधिनियम द्वारा अपेक्षित समय के अन्तर्गत देने के लिये उत्तरदायी हो।

फिर भी यदि उत्तर नहीं दिया जाता या उत्तर अस्पष्ट है और भुलावा देने वाला हो या उत्तर बिना मस्तिष्क के प्रयोग के दिया गया हो तो न्यायालय भारी खर्चे लगा सकता है और सरकार को निदेश दे सकता है उसके विरुद्ध समुचित कार्यवाही करे और जिसमें उससे खर्चे वसूलने का निर्देश सम्मिलित है।

सूचना की विषयवस्तु का वर्णन कीजिये । Describe the contents of notice

सूचना की विषय-वस्तु (Contents of notice) लिखी रहनी चाहिये :

(1) वाद हेतुक

(2) वादी का नाम, वर्णन,

(3) वादी का निवास स्थान तथा नोटिस में निम्न बातें अवश्य

(4) वह अनुतोष वादी जिसका दावा करता है। नोटिस का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है। लेकिन नोटिस की भाषा में यह स्पष्ट होना चाहिये कि वादी क्यों दावा करना चाहता है, वाद हेतुक कैसे उत्पन्न होता है और वादी क्या अनुतोष चाहता है।

जहाँ वाद सरकार के विरुद्ध है सूचना आवश्यक है परन्तु जहाँ सूचना ठेकेदार द्वारा सरकार को दी गयी है किन्तु सरकार ने ठेकेदार के दावे को अस्वीकार किया है और ठेकेदार की मृत्यु वाद संस्थित करने से पहले हो गयी और वाद उसके बेटे संस्थित करते हैं, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने घनश्याम दास बनाम डोमिनियन ऑफ इण्डिया नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि पुनः सूचना (fresh notice) की कोई आवश्यकता नहीं है।

सूचना के अभित्यजन पर टिप्पणी लिखिये। Write a comment on waiver of notice

सूचना का अभित्यजन (Waiver of notice) – कोई कारण नहीं है कि वह अधिकारी या सरकार जिसको नोटिस दी जानी है, वह नोटिस का अभित्यजन कर सके क्योंकि नोटिस उसके हितों की रक्षा के लिये है। किन्तु जहाँ ऐसा अभित्यजन किया गया है वहाँ यह प्रमाणित करना वादी का काम है। सूचना का अभित्यजन आचरण (conduct) द्वारा भी किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने बिशनलाल एण्ड सन्स बनाम स्टेट ऑफ ओरीसा में यह कहा कि इस प्रतिपादन में कोई सन्देह नहीं है कि धारा 80 की सूचना का अभित्यजन किया जा सकता है।

किन्तु यहाँ प्रश्न यह है कि क्या संशोधित लिखित कथन में इस तर्क को न उठाया जाना, इसका (अर्थात् धारा 80 की सूचना का अभित्यजन माना जायेगा ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुये उच्चतम न्यायालय ने कहा, नहीं। एक बार जब तर्क मूल लिखित कथन में उठा दिया गया, और यह एक विवाद्यक बन गया, तब इसका संशोधित लिखित कथन में उठाया जाना आवश्यक नहीं।

जहाँ सूचना के अभाव की बात सरकार द्वारा लिखित कथन और अतिरिक्त लिखित कथन में नहीं उठाया गया, वहाँ यह मान लिया जायेगा कि सूचना का अभित्यजन कर दिया गया।

बिना सूचना के बाद पर टिप्पणी लिखिये। Write a comment on suit without notice

बिना सूचना के बाद – सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 के माध्यम से धारा 80 की उपधारा (2) में यह उपबन्ध किया गया है कि जहाँ सरकार या लोक अधिकारी के विरुद्ध शीघ्र या अविलम्ब अनुतोष प्राप्त करना है (वहाँ अगर नोटिस देने की आवश्यकता का पालन किया जाये तो न्याय के असफल होने की सम्भावना रहती है) वहाँ न्यायालय की अनुमति से, बिना सूचना के भी वाद संस्थित किया जा सकता है।

लेकिन न्यायालय की ऐसी अनुमति के लिये किसी औपचारिक आदेश की आवश्यकता नहीं है। दूसरे शब्दों में इसके लिये अलग से आवेदन और उस पर अभिव्यक्त आदेश जरूरी नहीं। धारा 80(2) के अन्तर्गत अनुमति विवक्षित मानी जा सकती है, और इसका पता न्यायालय क्या करता है या आदेश देता है से पता लगाया जाना चाहिये।

अनुमति के लिये प्रार्थना किसी रूप में हो सकती है। परन्तु जहाँ ऐसा वाद संस्थित किया गया है वहाँ न्यायालय, किसी भी प्रकार का अनुतोष, अन्तरिम या अन्यथा, तब तक नहीं प्रदान करेगा जब तक कि सरकार को या लोक अधिकारी को, जैसी भी स्थिति हो, आवेदित अनुतोष के बारे में अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर न प्रदान कर दें।

पक्षकारों के सुनने के पश्चात् अगर न्यायालय इस निर्णय पर पहुँचता है कि बाद में कोई अत्यावश्यक या तुरन्त अनुतोष प्रदान करने की आवश्यकता नहीं हो तो वह वाद-पत्र का वापस कर देगा और यह आदेश देगा कि नोटिस की अपेक्षाओं को पूरा करने के पश्चात् प्रस्तुत किया जाये।

जहाँ धारा 80(2) के अन्तर्गत एक आवेदन न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने के लिये कि उसे धारा 80 (1) की सूचना दिये बिना वाद संस्थित करने दिया जाये, न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया जिस पर न्यायालय ने कोई विचार नहीं किया और ठीक इसके विपरीत प्रत्यर्थी द्वार अपने लिखित कथन में आक्षेप किये जाने पर एक प्रारम्भिक मुद्दा बनाकर न्यायालय ने यह अवधारित कर दिया कि वाद सूचना के अभाव में खारिज किया जाता है |

वहाँ दिल्ली उच्च न्यायालय ने याशोद कुमारी बनाम म्युनिसिपल कारपोरेशन ऑफ देलही में अभिनिर्धारित किया कि अधीनस्थ न्यायालय द्वारा ऐसा किया जाना उचित नहीं है।

उच्च न्यायालय की राय में अधीनस्थ न्यायालय को पहले धारा 80 (2) के अन्तर्गत दिये गये आवेदन पर विचार कर उसका निस्तारण या तो अनुमति देकर या अस्वीकार करके किया जाना चाहिये। उसे ऐसा किये बिना वाद खारिज नहीं करना चाहिये था।

जहाँ धारा 80 (2) के अन्तर्गत विचारण न्यायालय ने वाद संस्थित करने के लिये अनुमति देने से अस्वीकार कर दिया है, वहीं श्रेष्ठ न्यायालय अनुमति दे सकते हैं अन्यथा अत्यावश्यक परिस्थितियों में वादकारी बिना किसी उपाय के रह जायेगा।

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