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भारत में राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन | शिक्षा में स्वदेशी आन्दोलन

भारत में राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन | शिक्षा में स्वदेशी आन्दोलन
भारत में राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन

भारत में राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन का वर्णन कीजिए।

भारत में राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन- भारत के गर्वनर जनरल और वायसराय लार्ड कर्जन ने 1905 में बंगाल का विभाजन किया। भारतीयों ने इसका खुलकर विरोध किया। उसी वर्ष कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में बंग-भंग का कसकर विरोध किया गया और तत्कालीन ब्रिटिश शासन के विरूद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन शुरू करने का निर्णय लिया गया। इस आन्दोलन को स्वदेशी आन्दोलन के नाम से शुरू किया गया। इस आन्दोलन के चार मुख्य मुद्रदे थे-

1. स्वराज की प्राप्ति

2. स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग

3. विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार

4. राष्ट्रीय शिक्षा की माँग

कलकत्ता के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रीय शिक्षा के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किया गया “अब वह समय आ गया है जब सम्पूर्ण भारत के व्यक्ति समस्त बालक-बालिकाओं की राष्ट्रीय शिक्षा के बारे में ईमानदारी से सोचें और उसका देश की आवश्यकतानुकूल संगठन करें।

राष्ट्रीय शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्त- राष्ट्रीय नेताओं में राष्ट्रीय शिक्षा को निम्नलिखित – आधारों पर विकसित करने पर बल दिया। इन्हें ही राष्ट्रीय शिक्षा के सिद्धान्त कहा जाता है।

1. शिक्षा भारतीय नियंत्रण में- सभी नेता इस बात पर एकमत थे कि शिक्षा भारतीयों के नियंत्रण में होनी चाहिए। उसकी संरचना, संगठन और संचालन का अधिकार भारतीयों को होना चाहिए, वह पूर्णरूप से भारतीयों के हाथ में होनी चाहिए। में

2. शिक्षा के उद्देश्य एवं आदर्श भारतीय- इस सम्बन्ध में भी सब नेता एक मत थे कि भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा के उद्देश्य और आदर्श भारत की अपनी संस्कृति पर आधारित होनी चाहिए। उसमें भारतीय आदर्शों का समावेश होना चाहिए न कि इंग्लैण्ड के आदर्शों का। इस सम्बन्ध में श्रीमती एनीबेसेंट ने बड़े विनम्र भाव से कहा था कि ब्रिटेन के आदर्श ब्रिटेन के लिए  अच्छे हैं परन्तु भारत के लिए भारत के आदर्श ही अच्छे हैं।

3. मातृभूमि के प्रति प्रेम और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण- राष्ट्रीय शिक्षा का अर्थ है कि वह बच्चों में मातृभूमि के प्रति प्रेम और समर्पण की भावना जागृत करे, उनमें राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करें और यह तभी सम्भव है जब उन्हें प्रारम्भ से ही स्वदेशी भाषा, साहित्य और इतिहास का ज्ञान कराया जाय।

4. अंग्रेजी के वर्चस्व की समाप्ति- अधिकतर नेता इस पक्ष में थे किन अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया जाय और न ही किसी शिक्षा को अनिवार्य किया जाय। गाँधी जी ने एक बार तात्कालीन समाचार पत्र “यंग इण्डिया” में लिखा था कि “हमारे बालक यह सोचते हैं कि बिना अंग्रेजी के अध्ययन के सरकारी नौकरी प्राप्त नहीं की जा सकती। बालिकाओं को अंग्रेजी का अध्ययन विवाह करने के लिए प्रमाणपत्र के रूप में कराया जाता है। समाज में अंग्रेजों का घुन लग गया है। मेरे विचार से यह सब हमारी दासता और पतन का प्रतीक है।” बहरहाल उसके वर्चस्व को समाप्त करने के पक्ष में तो सभी थे।

5. व्यावसायिक विषयों का समावेश- उस समय हमारी शिक्षा ज्ञान प्रधान थी। राष्ट्रीय नेताओं ने उसे जीविकोपार्जन उन्मुख बनाने पर बल दिया। इस सन्दर्भ में लाला लाजपत राय के शब्द उल्लेखनीय हैं- “भारतीय निर्धनता जीवन का बहुत ही दुःखद तथ्य है। इसका मुख्य कारण शिक्षा के साधनों का अभाव है। ऐसी स्थिति में लोक शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य भारत के नागरिकों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करना होना चाहिए।”

6. मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा- सभी राष्ट्रीय नेता इस बात से सहमत थे कि जब तक शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा अंग्रेजी रहेगी तब तक देश में शिक्षा का प्रसार नहीं किया जा सकता, उसे जन-जन तक नहीं पहुँचाया जा सकता। इस दृष्टि से उन्होंने मातृभाषाओं (क्षेत्रीय भाषाओं) को शिक्षा का माध्यम बनाने पर बल दिया।

7. पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान की शिक्षा- राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप निश्चित करने वालों में, नेताओं का मत था कि अन्य देशों से सम्पर्क स्थापित करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय भाषा कुछ अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है और भारत का भौतिक विकास करने के लिए यूरोपीय ज्ञान विज्ञान का ज्ञान आवश्यक है। अतः राष्ट्रीय शिक्षा योजना में इन्हें उपयुक्त स्थान मिलना चाहिए। लाला लाजपत राय ने तो यहां तक कहा कि “मेरे विचार से भारत में यूरोपीय भाषाओं, साहित्यों और विज्ञानों के अध्ययन को प्रोत्साहित न करने का प्रयास मूर्खता और पागलपन होगा।”

राष्ट्रीय शिक्षा की स्थापना- बंग-भंग के विरोध में राष्ट्रीय आन्दोलन जोरों पर था। अध्ययनरत छात्र भी इस आन्दोलन में कूद पड़े थे। आन्दोलन को दबाने की दृष्टि से गर्वनर जनरल एवं वायसराय लार्ड कर्जन ने एक आदेश निकाला कि जो विद्यार्थी आन्दोलन में भाग लें, उन्हें शिक्षा संस्थाओं से निकाल दिया जाए परिणामतः हजारों छात्र शिक्षण संस्थाओं से निकाल दिये गये। कुछ छात्रों ने स्वेच्छा से विद्यालयों में पढ़ना छोड़ दिया और इस आन्दोलन में कूद पड़े।

राष्ट्रीय विद्यालयों में मातृभाषाओं के माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था की गई और जीवनोपयोगी विषयों एवं कौशलों को पाठ्यक्रम में मुख्य स्थान दिया गया। देश के प्रति प्रेम और समर्पण इनका मुख्य उद्देश्य था।

1950 में शुरू होने वाला राष्ट्रीय आन्दोलन देश भर में फैल गया। इसके साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन भी फैलता गया, स्थान-स्थान पर राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना इस आन्दोलन की सफलता के प्रतीक थे।

अतः 1910 ई0 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने इलाहाबाद अधिवेशन में और मुस्लिम लीग ने अपने नागपुर अधिवेशन में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क बनाने के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किये।

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shubham yadav

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