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राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति
राजनीतिक सिद्धांत की प्रकृति- राजनीतिक सिद्धान्त की परंपरा बहुत पुरानी है। राजनीतिक चिंतन को आमतौर पर दो मोटे भागों में रखा जाता है— शास्त्रीय या परंपरावादी चिंतन तथा आधुनिक चिंतन परंपरावादी विचारकों के अंतर्गत जो नाम गिनाये जाते हैं, उनमें प्लेटो, अरस्तू, हॉब्स, लॉक, कांट, हीगल, मांटेक्यू, मिल और कार्ल मार्क्स के नाम उल्लेखनीय हैं। बीसवीं शताब्दी के कई प्रमुख विचारक जैसे लॉर्ड ब्राइस, लास्की और मैकाइवर भी परम्परागत लेखकों की ही श्रेणी में रखे जाते हैं।
परंपरागत राजनीतिक सिद्धान्त की प्रकृति
परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ इस इस प्रकार हैं-
(1) समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास- परंपरागत लेखकों की रचनाओं पर अपने युग की समस्याओं का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। इतना ही नहीं ये लेखक अपने-अपने ढंग से उन समस्याओं का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता है। इतना ही नहीं, ये लेखक अपने-अपने ढंग से उन समस्याओं का एक स्थायी समाधान ढूँढने की कोशिश करती हैं। उदाहरण के लिए, प्लेटो इस समस्या से जूझ रहा था कि यूनान के नगर राज्यों में ‘राजनीतिक स्वार्थ और कलह’ का जो वातावरण मौजूद हैं, उससे छुटकारा कैसे मिले। इसके लिए प्लेटो ने दार्शनकि शासक के सिद्धान्त की संस्थापना की। अभिप्राय यह है कि शासक वर्ग स्वयं को निजी स्वार्थ से ऊपर रखे। दार्शनिक शासक का अपना कोई निजी परिवार नहीं होगा। शासक वर्ग में शामिल अन्य लोगों को भी निजी परिवार बसाने का अधिकार नहीं है। उन्हें तो समूचे समाज को ही अपना परिवार मानना होगा।
इटली की तत्कालीन दशा में दुःखी होकर मैकियावली (1469-1527) इस परिणाम पर उद्देश्य की पूर्ति के लिए छल, कपट और हत्या, सभी कुछ क्षम्य या न्यासंगत है। इंग्लैण्ड में सत्रहवीं सदी का उत्तरार्द्ध बड़ी अशांति और राजनीतिक हलचलों का युग था। तत्कालीन अशांति और गड़बड़ी ने हॉब्स (1888-1679) को निरंकुश राजतंत्र का समर्थक बना दिया। उसके चिंतन का मुख्य ध्येय राज्य के लिए किसी ऐसे मजबूत आधार की खोज करना था, जिससे कि गृह युद्ध और अशांति का सदा-सर्वदा के लिए खात्मा किया जा सके।
(2) परंपरागत चिंतन पर दर्शन, धर्म और नीतिशास्त्र का आधिपत्य था- परंपरागत रचनाओं में दार्शनिक और नैतिक तत्वों की भरमार है। प्लेटो और अरस्तू ने राज्य और कानून को मानवीय स्वभाव की नैसर्गिक स्वभाव की नैसर्गिक उपज माना है। मध्य युग में जब ईसाई मजहब राजधर्म के रूप में प्रतिष्ठित हो गया तो राज्य और धर्मसंघ के आपसी रिश्तों को लेकर एक भीषण विवाद चल पड़ा। यह विवाद मध्ययुगीन यूरोपीय विचारधारा का प्रमुख विषय बन गया। यूरोप के कई विद्वानों ने यह कहा कि राज्य की तुलना में ‘चर्च’ (धर्मसंघ) श्रेष्ठतर है. और धार्मिक अधिकारी लौकिक मामलों में भी हस्तक्षेप कर सकते हैं। सेंट टामस एक्वीनास और रोमेन्स आदि विचारक इसी मत के थे। उन्होंनें अपना लक्ष्य ‘ईश्वरीय राज्य की स्थापना’ बतलाया। दूसरी ओर, विलियम ऑकम ने ‘राजसत्ता’ को ‘धर्मसंघ’ से उच्चतर माना है।
(3) परंपरागत रचनाएँ निगमनात्मक निष्कर्ष और माननीय उपागम पर आधारित थीं-परंपरागत लेखकों का चिंतन चूंकि उनके व्यक्तिक्रम विश्वसों, दर्शनशास्त्र और मजहबी दृष्टिकोण से प्रभावित है, इसलिए वह निगमनात्मक हैं। दूसरे शब्दों में, अधिकांश परंपरावादी लेखकों ने वैज्ञानिक विधियों का उपयोग नहीं किया। उन्होंनें निगमनात्मक है। दूसरे शब्दों में, अधिकांश परंपरावादी लेखकों ने वैज्ञानिक विधियों का उपयोग नहीं किया। उन्होंने निगमनात्मक विवेचना या मानकीय उपागम का सहारा लिया। मानकीय उपागम का अर्थ यह है कि मस्तिष्क में किन्हीं खास आदर्शों की कल्पना कर ली जाती है और उस कल्पना को व्यावहारिक रूप देने के लिए सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है। इस अध्ययन पद्धति को अपनाने वाले लेखकों में प्लेटो, रूसो, कांट, हीगल और वर्क के नाम उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने मनगढ़न्त आदर्श के आधार पर आदर्श राज्य की रचना का प्रयास किया। प्लेटो ने दार्शनिक शासक’ के आदर्श को हमारे समक्षर रखा, जबकि रूसो ने सामान्य इच्छा के सिद्धान्तों को प्रतिपादन किया। रूसो लिखता है कि वही शासन सर्वश्रेष्ठ माना जाएगा जिसमें सामान्य इच्छा के अनुसार कार्य होता है। सामान्य इच्छा कभी असत्य या भ्रांत नहीं होती। हीगल ने कहा है कि, “पूर्ण विकसित राज्य ‘राज्यतंत्र’ ही होता है। सम्राट राज्य की एकता का मूर्तिमान स्वरूप है।”
पर कोई परंपरावादी लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंनें मानकीकरण उपागम के साथ-साथ आनुभाविक उपागम को भी अपनाया। उन्होंनें ठोस तथ्यों और आँकड़ों का संकलन करके उनका विधिवत विश्लेषण किया। अरस्तू ने अपने युग के 158 संविधानों (158 नगर राज्यों की शासन व्यवस्था) का अध्ययन किया था। 17वीं शताब्दी के सिद्धान्तशास्त्री हॉब्स की रचनाएँ भी वैज्ञानिक चिंतन से प्रभावित थीं। इसी प्रकार मार्क्स की रचनाओं में हम मानकीय और आनुभाविक दोनों पद्धतियों का मिला-जुला रूप पाते हैं।
मूल्यांकन— परंपरागत रचनाओं के विवरण का उद्देश्य उनकी आलोचना करना नहीं है। इन कृतियों के महत्व को इस प्रकार दर्शाया जा सकता है-
प्रथम, परंपरागत विद्वानों द्वारा जो तथ्य और आँकड़े किये गए, वे बाद के विश्लेषणों में काफी उपयोगी साबित हुए।
दूसरे, राजनीतिक सिद्धान्तों के निर्माण में इन विद्वानों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही। राजनीति के हर पाठक को आज भी प्लेटो, अरस्तू, हॉब्स, लॉक और हीगल जैसे महान् विचारकों की कृतियाँ पढ़नी पड़ती हैं। हॉब्स के ‘लेवियाथन’ और हीगल के वाद प्रतिवाद और संवाद के सिद्धान्त ने राजनीतिक विचारों के विकास में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वतंत्रता, न्याय आज्ञाकारिता और प्राकृतिक अधिकारों को समझने के लिए इन विचारकों द्वारा दी गई व्याख्याओं की आवश्यकता होती है।
तीसरे राजनीतिक सिद्धान्तों और समाज के स्वरूप का परस्पर गहरा संबंध है। परंपरागत कृतियों द्वारा हमें तत्कालीन समाज के स्वरूप की अच्छी जानकारी मिलती है। हॉब्स और लॉक की रचनाओं को पढ़कर हम ब्रिटेन में ‘सम्राट’ और ‘संसद’ के बीच चल रहे तत्कालीन संघर्ष के विषय में बहुत कुछ जान सकते हैं। 1917 की रूसी क्रांति और रूस के लोगों के मनोभावों को समझने के लिए कोई भी पाठक मार्क्सवादी सिद्धान्त की लेनिन द्वारा दी गई व्याख्या को अनदेखा नहीं कर सकता।
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