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‘रामचरितमानस’ के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
रामचरितमानस का महत्त्व
रामचरितमानस भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है। यह हिन्दू धर्म का महान प्रतिपाद्य एवं पूज्य ग्रन्थ है। तुलसीदास ने इस ग्रन्थ की रचना इस प्रकार से की है कि इसमें नाजा पुराण, निगमागम के विचारों का समावेश तो हुआ ही है, उसके बाहर के अधीत एवं अनुभूत-लोक-हितकारी विचारों की भी अन्विति हुई है। देखिए
नानापुराणनिगमागम सम्मतं, यद् निगददत्तं क्वचिदन्यतोऽपि ।
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा, भाषा निबन्ध मति मंजुल मातनोति ।।
तुलसी ने रामचरितमानस में जिस कथा का निरूपण किया है, उसका संयोजन अन्य अनेक ग्रन्थों से लेकर किया है। ‘रामचरितमानस’ की सामग्री वेद, शास्त्र, पुराण, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, हनुमन्नाटक आदि कई ग्रन्थों से ली गई है। तुलसी ने इन सारे ग्रन्थों में रामचरितमानस के लिए कथा – सूत्र एवं विषय-वस्तु का संकलन कर एक उदात्त कथा का सृजन किया, किन्तु सबसे बड़ी बात तो यह है कि तुलसी ने शब्दों को एक साथ अनुभूत कर आत्मसात कर लिया कि ‘रामचरितमानस’ की कथा किन्हीं अन्य ग्रन्थों से ली गयी न होकर तुलसी की स्वयं अनुभूत एक व्यापक कथा का अलौकिक संयोजन हो गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि समस्त संस्कृत वाङ्मय, समस्त आर्य संस्कृति एकत्र होकर तुलसी की रचना शैली की यह विशेषता है कि कहीं भी उसकी मौलिकता में व्याघात नहीं पहुँचता है।
प्रबन्धात्मकता
तुलसी ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम का वर्णन सांगोपांग किया है किन्तु जहाँ मार्मिकताओं के प्रदर्शन में तुलसी का कौशल है और यही प्रबन्ध-पटुता है। तुलसी की इस प्रबन्ध-पटुता में महाकाव्यत्व निहित है। कहने का अभिप्राय यह है कि तुलसी के ‘रामचरितमानस’ के महाकाव्य पर प्रकाश डालते हुए डॉ० सक्सेना ने कहा है- “तुलसी का ‘रामचरितमानस’ हिन्दी-साहित्य का सर्वोत्कृष्ट महाकाव्य माना जाता है। सर्वसाधारण में यह महाकाव्य ‘रामायण’ नाम से प्रसिद्ध है।…..यह काव्य अपनी प्रबन्धात्मकता, मार्मिक प्रसंग – विधान, चारित्रिक महानता, सांस्कृतिक गरिमा एवं गुरुता, सरस-संवादों की सुन्दर – योजना, गम्भीर भाव-प्रवाह, सरस घटना-संगठन, अलंकारिता आदि से सम्पन्न होने के कारण गोस्वामीजी की अमर कृति कहलाता है। यह काव्य तुलसीदासजी की साहित्यिक मर्मज्ञता, भावुकता, काव्य कुशलता एवं गम्भीरता का सर्वांगपूर्ण निदर्शन है।”
इसमें गोस्वामी जी की उत्कृष्ट प्रबन्ध पटुता एवं उद्भावना शक्ति के साथ-साथ उन्नत रचना – कौशल, मनोहर वस्तु व्यापार-वर्णन, मार्मिक स्थलों को सरस निरुपण, प्रभावोत्पादक भाव – व्यंजना, मर्मस्पर्शी संवाद, उत्कृष्टशील निरूपण, प्रसंगानुकूल सरस एवं सुबोध भाषा, सुललित अलंकार योजना, काव्यानुकूलता छन्द-विधान आदि के दर्शन होते हैं। इसकी रचना भले ही पौराणिक शैली में हुई है और इसमें भारतीय साहित्य-शास्त्रों में वर्णित महाकाव्य में सभी लक्षण भी नहीं मिलते, फिर भी यह अपनी काव्य व्यापकता, गम्भीरता, सरसता एवं पूर्णता के कारण महाकाव्य जैसा प्रभाव डालता है, और इसमें एक उत्कृष्ट महाकाव्य का स्वरूप इस प्रकार मिलता है।
मानस के रूपक का निर्वाह
तुलसीदास ने रामचरितमानस में एक रूपक बाँध कर कथा का सुन्दर स्वरूप इस प्रकार मिलता है।
रामचरित मानस के सात काण्ड ही सात सोपान हैं जिन्हें ज्ञानरूपी नेत्रों से देखा जा सकता है। राम की महिमामयी कथा अगाध जल के समान है। राम और सीता की कीर्ति की मनोहर बगियाँ हैं। मानस के सुन्दर दोहे-चौपाई आदि छन्द पुरइन (कमल) को समान है, जिससे अनुपम भाव, अर्थ आदि कमल पुष्प की सुरभि मकरन्द आदि के समान है, जिससे ध्वनि, वक्रोति एवं अन्य काव्य गुण विविध प्रकार की मछलियाँ हैं तथा तप, वैराग्य, नव रसों का वर्णन ये नाना भाँति के जलचर हैं।
यहाँ सन्त सभी ही अमराई ( आम का बगीचा) जिसमें श्रद्धारूपी बसन्त ऋतु विहर रही है। क्षमा, दया तथा इन्द्रिय-दमन आदि अनेकों लता वितान हैं। मानस में रामकथा के अनन्तर भी अन्य कथाएँ हैं जो शुक-पिक आदि अनेकों वर्ण के पक्षियों के कलगान के समान हैं।
समयोचित महाकाव्य
यह तो विदित है कि तुलसी का युग विभिन्न प्रकार की विसंगतियों एवं विशृंखलाओं का युग था । उस समय जन-सामान्य के समक्ष उच्च आदर्शों का अभाव था, जिसका अवलम्बन पाकर जनता अपने जीवन को ऊपर उठाने या संगठित करने का प्रयास करती है। यद्यपि इससे पूर्व सूर ने सूरसागर में श्रीकृष्ण से लीला बिहारी रूप का चित्रण किया था परन्तु जनता श्रीकृष्ण के रूप में अपना प्रतिनिधि नहीं पा रही थी और न ही तत्कालीन परिस्थितियों में कृष्ण की कथा का विन्यास सम्पूर्ण भारत की जनता में समन्वय कराने में समर्थ था। अतः उस समय एक ऐसे सशक्त व्यक्ति की आवश्यकता थी जो समन्वय की विराट चेष्टा करके दुबली-घुटती भारतीय-संस्कृति में पुनः संजीवनी शक्ति का संचार में करके पुनर्जीवित कर सके। आर्य जाति की इसी आवश्यकता को दृष्टिगत करके गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस जैसे महान् ग्रन्थ की रचना की। रामचरित मानस भगवान की भक्ति से लबालब भरा तो है ही साथ ही अन्यान्य देवी-देवताओं के प्रति अपनी अगाध श्रद्धा भक्ति का परिचय देता हुआ अतीव समन्वयात्मक रूप में अपनाये हुए हैं।
महाकाव्यत्त्व की दृष्टि से सफल
महाकाव्य के लिए जितने भी अपेक्षित गुण हैं, वे सभी रामचरित मानस में उपलब्ध हैं। तुलसी ने अपने ‘मानस’ में कथा का आरम्भ, विकास और अन्त इतनी कुशलता से किया है जो इस युग में स्पृहा का विषय बन गया है।
कथानक का सफल निर्वाह
‘रामचरितमानस’ का कथानक सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित है, कथानक की आधारशिला भारतीय साहित्य में सुप्रसिद्ध, सुप्रचलित ‘रामकथा’ है। यदि मध्य और अन्त की योजना और उसकी सुव्यवस्था पूर्णतः दर्शनीय है। सम्पूर्ण कथानक सात खण्डों में विभक्त है जो प्रासंगिक एवं शृंखलाबद्ध है। तुलसीदास जी ने अपने महाकाव्य की कथा को नाटकीयता प्रदान की है। यही कारण है कि इसमें नाटकों की पाँचों कार्यावस्थाएँ पूर्णतः परिलक्षित होती हैं। रावण के अत्याचार को लेकर राम लक्ष्मण के विश्वामित्र के साथ यज्ञ रक्षा के लिए आश्रम गमन तक का वर्णन प्रयत्न, खरदूषण वध से लेकर सुग्रीव मैत्री तक का वर्णन प्रत्याशा, राम की युद्ध यात्रा तथा सेतुबन्धन पर फलगाम की कार्यावस्थाएँ सम्मुख आती हैं। इस प्रकार कथा सम्पूर्ण कार्यावस्थाओं को धारण करती हुई पंच सन्धि-सौन्दर्य को समाहित किए हुए 1
नायक एवं चरित्र-चित्रण
‘रामचरितमानस’ जैसा कि नाम से ज्ञात है, यह काव्य राम के चरित्र की मार्मिक व्याख्या है। यह एक चरितप्रधान महाकाव्य है। राम इसके नायक हैं, जो नायक की सम्पूर्ण विशेषताओं को अपने में पूर्णतः धारण करते हैं। राम का चरित्र चित्रण तुलसीदास ने अपने पूर्ण मनोयोग से किया है। ‘साहित्य-दर्पण’ में वर्णित नायक के लक्षणों की पूर्णता तुलसी के राम में दर्शनीय है। डॉ० सक्सेना तुलसी के नायक राम पर विचार करते हुए कहते हैं- इसके (रामचरित मानस के) नायक क्षत्रिय कुलभूषण भगवान राम हैं, जो तुलसी की उदारता, अन्तःकरण की विशालता एवं भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की आदर्शमयी ऐसी जीवन्त प्रतिमा प्रतिष्ठित की है जो विश्व भर में अलौकिक, असाधारण, अनुपम एवं अद्भुत है जो धर्म एवं नैतिकता की दृष्टि से सर्वोपरि है तथा जिसमें त्याग, विराग एवं साधु-प्रवृत्ति के साथ-साथ लोकहित एवं मानवता का साकार रूप विद्यमान है। तुलसी के राम एक आदर्श पुरुष ही नहीं हैं अपितु वे एक महान् व्यक्तित्व सम्पन्न नायक हैं, जिनका कवि के कल्पना राज्य पर एकाधिकार है, जिनका महत्त्व कवि के साथ-साथ पाठकों एवं श्रोताओं ने मनश्चक्षुओं के सम्मुख भी आज तक अधिष्ठित हैं और जिसके देवत्व पर मुग्ध होकर एवं जिसकी पुण्य किरणों से अभिभूत होकर दिग्दिगंत से आकर प्राणी जिसे नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं। तुलसी के बुद्धिमान, धर्मज्ञ, यशस्वी, प्रजा हितैषी, धर्मरक्षक….महान् त्यागी, धैर्यवान, प्रियदर्शी, शक्तिशाली-सौन्दर्य के अगाध भण्डार धर्मात्मा एवं उच्चतम आदर्श के प्रतीक हैं। वे विश्व रूप होकर भी मानव और दोनों रूपों में चित्रित करके एक मानव महत्ता एवं गुरुता का अच्छा निरूपण किया है। निःसन्देह राम आदर्श के उत्तुंग शिखर पर प्रतिष्ठित मानव हैं, किन्तु तुलसी ने अपनी उर्वर कल्पना एवं उत्कृष्ट प्रतिभा द्वारा मानव में देवत्व की नर में नारायण की अथवा कार्य करते हुए आज भी अनादि निर्गुण एवं निराकार ब्रह्म हैं। आगे तुलसी के शेष पात्रों की व्यक्ति में ब्रह्म की जो स्थापना की है, वह सर्वथा प्रशंसनीय है। इसी कारण राम ‘मनुज अनुहारी’ चारित्रिकता पर प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं कि राम के अतिरिक्त ‘रामचरितमानस’ का प्रतिपादक रावण असत् प्रवृत्तियों का भण्डार है तथा अत्याचार एवं अनाचार की साकार मूर्ति है। वह महान्-शक्ति अटूट साहस, प्रजा – पीड़क कुप्रवृत्तियों एवं अतिमानवीय वीरता का आगार है। उसके साथ भी अनन्त शक्ति एवं अपरिमित साहस से परिपूर्ण है। इसके साथ ही तुलसी के अन्य पात्रों में से भरत भक्ति की प्रतिमा है, उनमें अद्भुत त्याग, अनुपम, विनम्रता एवं अतुलित बन्धुत्व-भाव के दर्शन होते हैं। लक्ष्मण, सुग्रीव, दशरथ, हनुमान, अंगद, विभीषण आदि भी सेवा परोपकार, भक्ति, स्नेह, कर्त्तव्यपरायणता आदि से परिपूर्ण होने के कारण उन्नत चरित्र-सम्पन्न व्यक्ति हैं। नारी पात्रों में सीता इस काव्य की नायिका हैं। वे उदारता, निरीहता, वत्सलता, गृहिणीत्व, पतिपरायणता, मधुरता, तेजस्विता, विनम्रता, सरलता आदि भारतीय कुल-वधू के सम्पूर्ण श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हैं मानवी होकर भी ब्रह्म की शक्तिस्वरूपा हैं। शेष स्त्री पात्रों में से कौशल्या, कैकेयी, मन्दोदरी, मंथरा आदि नारियाँ नारी-गत विभिन्न विशेषताओं एवं गुणों तथा दुर्गुणों से युक्त होने के कारण नारी समाज की विविधता एवं विशिष्टता की द्योतक हैं। इस तरह तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ में सत् और असत्, उच्च एवं नीच, साधु एवं असाधु सभी प्रकार के पात्रों का चित्रण करके अन्त में असत्पात्रों पर सत्पात्रों की विजय दिखायी है और अपने काव्यगत चरित्र चित्रण द्वारा एक महान् नैतिक आदर्श की स्थापना की है।
प्रकृति-चित्रण
महाकाव्य के लक्षणों में प्रकृति चित्रण का भी अपना विशेष महत्त्व होता है। प्रकृति-चित्रण में वन, पर्वत, षटऋतु, प्रदोष, उषा काल, संध्या आदि का वर्णन अनिवार्य माना गया है। इस दृष्टि से मानस में इन सबका सांगोपांग चित्रण किया गया है। तुलसी ने प्रकृति के सभी रूपों को अपने काव्य में आश्रय दिया है जिनमें आलम्बन, उद्दीपन आदि रूपों का वर्णन बहुत ही हृदयहारी है-
चितवत चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किशोर मन चिंता ।।
लता ओर तब सखिन्ह लखाये। श्यामल गोर किशोर सुहाये ।।
‘मानस में युग चित्रण’
महाकाव्यकार का युग-चित्रण अपना एक विशिष्ट अभिप्रेत हुआ करता है। भक्त शिरोमणि तुलसी ने अपने इस अभिप्रेत की मार्मिक व्यजंना की है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, रीतिरिवाज, लौकिक आदि वर्णन करके तात्कालिक जीवन का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। वर्ग आश्रम, जातिवर्ग का चित्रण करके तात्कालिक -बोध को हमारे सम्मुख रखा है। डॉ० रामकुमार वर्मा ने ठीक ही कहा है- “तुलसीदास ने मानस के उत्तरकाण्ड में कलियुग का जो वर्णन किया है, वह उन्हीं के समय की तत्कालीन परिस्थितियाँ थीं। उस अंश को पढ़कर ज्ञात होता है कि कवि के मन में समाज की उच्छृंखलता के लिए कितना क्षोभ था।
अतः निर्विवाद सत्य है कि तुलसी ने तात्कालिक युग के जीवन की ‘मानस’ की समग्र झाँकी प्रस्तुत की है।
रसात्मकता एवं भाव-प्रवणता
तुलसी मानस में मानव प्रकृति (स्वभाव) का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है तथा उसकी कमजोरियों एवं अच्छाइयों को स्पष्ट दर्शाया है। इस सम्बन्ध में आचार्य शुक्ल ने ठीक ही कहा है- “मानव-प्रकृति के जितने अधिक रूपों के साथ गोस्वामीजी के हृदय का रागात्मक सामंजस्य हम देखते हैं, उतना अधिक हिन्दी-भाषा के और किसी के हृदय नहीं।”
मानस में तुलसी ने मनुष्य की अन्तः प्रवृत्तियों और बाह्य-प्रवृत्तियों का मार्मिक चित्रण करके भावात्मक धरातल का विस्तृत्व प्रदान किया है। पारस्परिक व्यवहारों के प्रतिपादन में तुलसी ने कमाल कर दिखाया है। कतिपय मनोदशाओं की सजीव चित्रात्मकता दर्शनीय है-
पिता-पुत्र का सम्बन्ध-
अनुचित- उचित विचार तजि, जे पालहिं पितु बैन ।
ते भाजन सुख सुजस के, बसहिं अमरपति ऐन ।
माता-पुत्र का सम्बन्ध-
बरस चारिदस विपिन बसि, करि पितु वचन प्रमान ।
आइ पाइ पुनि देखि हौं। मन जसि करसि मलान।।
पति-पत्नी का सम्बन्ध-
जिय बिनु देह नदी बिनु बारी, तैसेहि नाथ पुरुष बिनु नारी ।
तनु धनु धरनि धाम पुर राजू, पति विहीन सब शोक समाजू ।।
मैत्रीभाव-
निज गिरि-सम रज करि जाना।
‘दुःख’ मित्रक दुख रज, मेरु समाना ।।
शब्द-साधना
मानस में तुलसी की शब्द-साधना पर प्रकाश डालते हुए डॉ० मनहरगोपाल भार्गव लिखते हैं-
“यदि ‘और सब गढ़िया, नन्ददास जड़िया’ थे तो तुलसीदास गढ़िया एवं जड़िया दोनों थे। वह शब्दों के महान् शिल्पी थे, अतः उन्होंने अपनी वर्चस्वनी प्रतिभा सम्पन्न मति के सहयोग से शब्दों को गढ़ा, तराशा एवं अलंकृत करके उन्हें सुस्थान पर मानस में जड़ा है। वह शब्दों के कुशल पारखी थे अतः मानसरूपी रत्नराशि के लिए बहुमूल्य रत्नों को परख कर संचयित किया, जिससे उनकी आभा और कान्ति में कोई कमी न आने पाए।”
मानस-महाकाव्य की विशाल काव्यात्मक काया शब्द-शोध की गरिमा से मण्डित है। निर्जीव एवं मृतप्राय शब्द सजीव एवं प्राणवान् होकर इसमें उपस्थित हुए हैं। इस प्राणवत्ता का मूल श्रेय रसवती, व्यापारवती एवं वैपश्चिती काव्यदृष्टियों के सम्मिलित प्रयत्न को हैं, जिसके कि तुलसी धनी थे। ये काव्य-दृष्टियाँ उनकी अनुवर्तिनी थी, सध्वर्तिनी नहीं।
यद्यपि आलोचकों ने उन पर शब्द कोष, शब्द-ग्रहण आदि अवगुणों का आरोप लगाया है, किन्तु मानस जैसी गुण-राशि सम्पन्न कृति के समक्ष ये अवगुण ‘दिठौना’ है। इन अवगुणों से तुलसी की भास्वरता में कोई कमी नहीं आती। उनकी गहर गण-गण गरिमा से गुम्फित प्रतिभा ने शब्दों को एक विशेष गति एवं स्वर दिया है, जिनके कारण मानस में शब्द नर्त्तन करते एवं कुहुकते दिखायी देते हैं।”
समन्वय की अपूर्व भेंट
जीवन के सभी क्षेत्रों में अपूर्व समन्वय करके तुलसी ने लोकनायक के पद को प्राप्त किया। रामचरितमानस में आदि से अन्त तक समन्वय की विराट् चेष्टा तुलसी का निजी जीवन दर्शन है।
निष्कर्ष – अन्त में इस सम्बन्ध में डॉ० ग्रियर्सन के शब्दों में हम कह सकते हैं कि “भारतवर्ष के इतिहास में तुलसीदास के महत्त्व के विषय में अधिक क्या कहा जा सकता है। रामायण के गुणों को साहित्यिक दृष्टि से एक ओर रखते हुए यह बात उल्लेखनीय है कि इस ग्रन्थ को यहाँ की सभी जातियों ने अपनाया है।”
निःसन्देह रामचरितमानस एक ऐसा रत्नाकर है, जिसमें चाहे जिधर से डुबकी लगाई जाए, रत्न-ही-रत्न उपलब्ध होते हैं ।
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