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राष्ट्रीय एकता का अर्थ एवं परिभाषाएँ | राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ

राष्ट्रीय एकता का अर्थ एवं परिभाषाएँ
राष्ट्रीय एकता का अर्थ एवं परिभाषाएँ

राष्ट्रीय एकता का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of National Integration)

राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य राष्ट्र के सम्पूर्ण निवासियों में विचारों और भावनाओं की एकता से है। जब कोई राष्ट्र धर्म, राजनीति, जाति, भाषा या संस्कृति से ऊपर उठकर बात करता है तथा व्यक्ति भावात्मक रूप से अपने देश से जुड़ा होता है तो उसे ‘राष्ट्रीयता’ कहते हैं। राष्ट्र के लिए व्यक्ति तथा व्यक्ति के लिए राष्ट्र अधिक महत्पूर्ण होता है। प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह राष्ट्र की सम्प्रभुता एवं एकता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हो। जब इस प्रकार की भावना नागरिकों की नसों से दौड़ती हैं तब उन्हें राष्ट्र के लिए अपने जीवन, धन या स्वयं को बलिदान करने में कोई कठिनाई नहीं होती। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता वह भावना है जो नागरिकों को अपने संकीर्ण मतभेदों से ऊपर उठने की प्रेरणा देती है तथा राष्ट्र के विकास के लिए एकजुट होकर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है।

डॉ. सम्पूर्णानन्द अनुसार, “स्वतन्त्रता के बाद के वर्षों में भारत ने अनेक क्षेत्रों में प्रगति की है, किन्तु इन वर्षों में राष्ट्रीय जीवन में पृथकता की प्रवृत्तियों में उत्तरोत्तर वृद्धि भी अवलोकित हुई है।”

डॉ. जे. एस. बेदी के अनुसार, “राष्ट्रीय एकता का अर्थ है देश के विभिन्न राज्यों के व्यक्तियों की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भाषा-विषयक विभिन्नताओं को वांछनीय सीमा के अन्तर्गत रखना और उनमें भारत की एकता का समावेश करना।”

प्रो. हुमायूँ कबीर (Humayun Kabir) के अनुसार, “राष्ट्रीय एकता एक जाति, भाषा, धर्म अथवा भूगोल पर आधारित नही है और न यह किसी समूह पर आधारित है अपितु यह तो राष्ट्र के प्रति अपनत्व की भावना पर आधारित होती है।”

डोरोथी थॉम्सन के अनुसार, “राष्ट्रीय एकीकरण एक भावना है जो देश के नागरिकों को बाँधती है।”

According to Dorothy Thompson, “National integration is a feeling that binds the citizens of a country.”

राष्ट्रीय एकता सम्मेलन के अनुसार, राष्ट्रीय एकता एक मनौवैज्ञानिक एवं शैक्षिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों के हृदय में एकता, संगठन एवं सन्निकटता की भावना सामान्य नागरिकता की भावना और राष्ट्र के प्रति भक्ति की भावना का विकास किया जाता है।”

राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएँ (Obstacles in the Way of National Integration)

राष्ट्र को सुदृढ़ बनाने एवं उसके सर्वांगीण विकास के लिए राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता हैं किन्तु हमारे देश में राष्ट्रीय एकता के मार्ग में निम्नलिखित प्रमुख बाधाएँ हैं-

(1) जातिवाद (Castism)- राष्ट्रीय एकता उसी समय उत्पन्न हो सकती है जब व्यक्तियाँ में समानता की भावना हो अर्थात उनमें ऊँच-नीच की भावना न हो लेकिन भारत में जातिवाद का बहुत जोर है। जातिवाद से प्रभावित होकर एक जाति के लोग दूसरी जातियों के लोगों से वैमनस्य या पृथकता जैसा व्यवहार करने लगते हैं। जातिवाद के प्रभाव से जब व्यक्ति राष्ट्रीय हितों की तुलना में अपने जातीय हितों को प्रमुखता देने लगते हैं तो इससे राष्ट्रीय एकता को भयंकर खतरा उत्पन्न हो सकता है।

(2) प्रान्तीयता ( Regionality) – यह सत्य है कि व्यक्ति को अपने जन्म-स्थान से प्रीति होती है किन्तु उसका यह अर्थ नही है कि वह समस्त देश की तुलना में केवल अपने प्रान्त के कल्याण के विषय में सोचे। आज देश के अनेक प्रांत ऐसे हैं जहाँ की जनता जल- विवाद पर ही कटने-मरने को तैयार है। कश्मीर, पंजाब व आसाम में संकीर्णवादियों के अनेक समूहों में आतंकवाद का आश्रय ग्रहण कर एक प्रभुसत्ता सम्पन्न स्वतन्त्र राज्य की मांग को लेकर केन्द्र सरकार को ही चुनौती दे रखी है। इन आतंकवादियों की गतिविधियों से हमारी समूची राष्ट्रीय एकता खतरे में पड़ गई है। सत्य तो यह है कि देश में यदि प्रान्तों में अलगाव सम्बन्धी हिंसात्मक आन्दोलन शीघ्र ही समाप्त न हुए तो देश कभी भी पुनः खंडित हो सकता है।

(3) साम्प्रदायिकता (Communalism) – हमारे देश में राष्ट्रीय एकता को साम्प्रदायिकता से भी बड़ा खतरा है। भारत में अनेक सम्प्रदाय है जैसे हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, पारसी, बौद्ध इत्यादि। उनमें से भी हिन्दू अनेक सम्प्रदायों व उप-सम्प्रदायों में बँटे हुए हैं। ये सभी सम्प्रदाय विशेष रूप से हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदाय और हिन्दुओं में भी सवर्ण और हरिजन सम्प्रदाय अनेक स्थानों पर एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं। हमारे यहाँ आए दिन साम्प्रदायिक दंगे होते रहते है और इन दंगों की विभीषिका में हजारों निर्दोष लोगों को अपने प्राणों की बलि देनी पड़ती है। राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है कि ये साम्प्रदायिक दंगें समाप्त हों तथा विभिन्न सम्प्रदायों के बीच समय-समय पर खेली जाने वाली खून की होली बंद की जाए।

(4) राजनीतिक दल (Political Parties) – लोकतन्त्र में विभिन्न विचार धाराओं और आदर्शों वाले राजनीतिक दलों का होना अनिवार्य है क्योंकि जनता में इनसे ही राजनीतिक चेतना का विकास एवं जनमत का निर्माण होता है लेकिन हमारे देश में ऐसे दलों की संख्या कम है जो राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर कार्य करते हों। अधिकांश दल तो जाति, भाषा, धर्म एवं सम्प्रदाय के आधार पर राष्ट्र को विकसित करने का कार्य कर रहे हैं। अतः जब तक राजनीतिक दलों का निर्माण राष्ट्र के सर्वागीण विकास को ध्यान में रखकर नहीं होगा, राष्ट्रीय एकता के अस्तित्व को खतरा बना रहेगा।

(5) विभिन्न भाषाएँ (Diversity of Languages) – हमारे देश में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। प्रायः ये विभिन्न भाषा-भाषी केवल अपनी भाषा को महत्व देते हैं तथा अन्य भाषाओं के प्रति उपेक्षा तथा घृणा का दृष्टिकोण रखते हैं। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि जब तक हम एक राष्ट्र भाषा को अंगीकार नहीं करेंगें, हम एक दूसरे से परस्पर विचार-विनिमय नहीं कर सकेगें। आश्चर्य यह है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के 68 वर्ष के बाद भी हम राष्ट्र-भाषा के विषय में पूर्ण रूप से एकमत नही हो पाए हैं। दक्षिण भारत के कुछ प्रदेशों का हिन्दी के प्रति विरोध हमारे भाषा-सम्बन्धी वैमनस्य का एक ज्वलंत उदाहरण है।

(6) आर्थिक विभिन्नता (Economic Differences) – हमारे देश में मुठठी भर लोग तो धनवान हैं और अधिकांश जनता निर्धन है। लगभग पचास प्रतिशत विशाल पैमाने पर बढ़ती गरीबी तथा चन्द मुट्ठी भर लोगों की अमीरी का परिणाम यह हुआ है कि यहाँ गरीब अमीर से तथा अमीर गरीब से घृणा करने लगे हैं। वस्तुतः जब तक देश में यह गरीबी और अमीरी के बीच चौड़ी खाई रहेगी, पूर्ण राष्ट्रीय एकता का सपना सच नही हो सकता।

(7) नेतृत्व का अभाव (Lack of Leadership) – लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि देश के विभिन्न क्षेत्रों एवं कार्यों का नेतृत्व कुशल एवं योग्य हाथों में हो। भाई-भतीजावाद, धन और राजनीति के अपराधीकरण के कारण अच्छे लोग नेतृत्व संभालने के लिए आगे नहीं आते। आज तो हम प्रायः यह भी देखते हैं कि नेतागण अपने प्रभावक्षेत्र को बढ़ाने की दृष्टि से जनता में साम्प्रदायिकता, प्रान्तीयता, जातीयता आदि वांछनीय भावनाओं को भड़काते रहते हैं। इससे लोगों में निराशा पनपती है तथा उनके बीच वैमनस्य और बढ़ जाते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि कुशल और योग्य नेतृत्व का अभाव राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है।

(8) अनुचित शिक्षा (Unsuitable Education) – हमारे देश में शिक्षा को राज्य का विषय माना जाता है। इसलिए यहाँ प्रत्येक राज्य अपनी आवश्यकताओं तथा सामर्थ्य के अनुसार ही शिक्षा व्यवस्था करता है। इससे अनेक दोष उत्पन्न हो गए हैं, जैसे बालकों की भावनाओं का अपने प्रदेश तक ही सीमित हो जाना तथा शिक्षकों के वेतनमानों में भारी असमानता सच्ची राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के लिए शिक्षा-व्यवस्था में परिवर्तन अनिवार्य हैं।

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shubham yadav

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