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शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के प्रमुख प्रावधान | RTE Act 2009 in Hindi

शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के प्रमुख प्रावधान
शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के प्रमुख प्रावधान

शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के प्रमुख प्रावधान (RTE Act 2009 in Hindi)

शिक्षा का अधिकार राइट ऑफ एजुकेशन (RTE) द्वारा 6 से 14 साल की उम्र के हरेक बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्राप्त है। संविधान के 86वें संशोधन द्वारा ‘शिक्षा के अधिकार’ को प्रभावी बनाया गया है।

सरकारी स्कूल सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध कराएँगे और स्कूलों का प्रबन्धन, स्कूल प्रबन्ध समितियों (एसएमसी) द्वारा किया जाएगा। निजी स्कूल न्यूनतम 25 प्रतिशत बच्चों को बिना किसी शुल्क के नामांकित करेंगे।

गुणवत्ता समेत प्रारम्भिक शिक्षा के सभी पहलुओं पर निगरानी रखी जाएगी। भारतीय संविधान में संशोधन के छह साल बाद केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को मंजूरी दे दी । प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाने का अधिकार मिलने से पहले, इसे संसद की स्वीकृति के लिए भेजा गया था।

आजादी के 69 साल बाद 2009 ई. में भारत सरकार ने शिक्षा के अधिकार विधेयक को मंजूरी दी है, जिससे 6 से 14 साल आयु वर्ग के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा पाना मौलिक अधिकार बन गया है।

विधेयक के प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं-प्रवेश के स्तर पर आस-पास के बच्चों को निजी स्कूलों में नामांकन में 25 प्रतिशत आरक्षण स्कूलों द्वारा किए गए खर्च की भरपाई सरकार करेगी। नामांकन के समय कोई डोनेशन या कैपिटेशन शुल्क नहीं लिया जाएगा और छंटनी प्रक्रिया के लिए बच्चे या उसके अभिभावकों का साक्षात्कार नहीं होगा।

विधेयक में शारीरिक दण्ड देने, बच्चों के निष्कासन या रोकने और जनगणना, चुनाव ड्यूटी तथा आपदा प्रबन्धन के अलावा शिक्षकों को गैर-शिक्षण कार्य में तैनात करने पर रोक लगाई गई है। गैर-मान्यता प्राप्त स्कूल चलाने पर दण्ड लगाया जा सकता है।

भारत के तत्कालीन वित्त मन्त्री पी. चिदम्बरम् ने इसे बच्चों के साथ किया गया महत्त्वपूर्ण वादा करार देते हुए कहा कि शिक्षा के मौलिक अधिकार बनने से मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देना केन्द्र और राज्यों का संवैधानिक दायित्व हो गया है।

विधेयक की जाँच-पड़ताल के लिए नियुक्ति मन्त्रियों के समूह ने शुरू में किसी फेरबदल के बिना ही विधेयक को मंजूरी दे दी थी, जिसमें आस-पास के वंचित वर्गों को निजी स्कूलों में प्रवेश के स्तर पर 25 प्रतिशत का आरक्षण देने का प्रावधान है। कुछ लोग इसे सरकार की जिम्मेदारी के निर्वहन के लिए निजी क्षेत्र को मजबूर करने के दृष्टिकोण से भी देखते हैं।

शिक्षा का अधिकार विधेयक 86वें संविधान संशोधन को कानूनी रूप से अधिसूचित करता है, जिसमें 6 से 14 साल के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। 1936 में जब महात्मा गाँधी ने एकसमान शिक्षा की बात उठायी थी, तब उन्हें भी लागत जैसे मुद्दे, जो आज भी जीवित हैं, का सामना करना पड़ा था। संविधान ने इसे एक अस्पष्ट अवधारणा के रूप में छोड़ दिया था, जिसमें 14 साल तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की जवाबदेही राज्यों पर छोड़ दी गई थी।

2002 में 86वें संविधान संशोधन के जरिये शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया गया। 2004 में सत्तारूढ़ राजग विधेयक का प्रारूप तैयार किया, लेकिन इसे पेश करने के पहले ही वह चुनाव हार गई। इसके बाद यूपीए का वर्तमान प्रारूप विधेयक खर्च और जिम्मेदारी को लेकर केन्द्र तथा राज्यों के बीच अधर में झूलता रहा।

आलोचक उम्र के प्रावधानों को लेकर सवाल उठाते रहे। उनका कहना था कि 6 साल से कम और 14 साल से अधिक उम्र के बच्चों को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। इसके अलावा सरकार ने शिक्षकों की कमी, शिक्षकों की क्षमता के निम्न स्तर और नए खुलने वाले स्कूलों की बात तो दूर, वर्तमान स्कूलों में शिक्षा के आधारभूत ढाँचे की कमी की समस्या भी दूर नहीं की है।

इस विधेयक को राज्यों के वित्तीय अंशदान के मुद्दे को लेकर पहले कानून और वित्त मन्त्रालयों के विरोध का समाना करना पड़ा था । कानून मन्त्रालय को उम्मीद थी कि 25 प्रतिशत आरक्षण को लेकर समस्या पैदा होगी, जबकि मानव संसाधन विकास मन्त्रालय ने इस पर हर साल 55 हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान लगाया था।

योजना आयोग ने इस राशि की व्यवस्था करने में असमर्थता जतायी थी। राज्य सरकारों ने कहा था कि वे इस पर होने वाले खर्च का हिस्सा देने के लिए तैयार नहीं हैं इसलिए केन्द्र को पूरा खर्च स्वयं वहन करने के बारे में सोचने पर मजबूर होना पड़ा।

विधेयक के प्रारूप में तीन साल के भीतर अर्थात् 2012 ई. तक हर इलाके में प्रारम्भिक स्कूल खोले जाने का लक्ष्य है, हालांकि स्कूल शब्द से सभी आधारभूत संरचनाओं से युक्त स्कूल की छवि ही बनती है।

इसके लिए न्यूनतम आवश्यकताओं का एक सेट तैयार किया गया, क्योंकि सुदूरवर्ती ग्रामीण और गरीब शहरी क्षेत्र में कागजी काम की सामान्य बाधाएँ हैं राज्यों को भी यह जिम्मेदारी दी गई कि यदि कोई बच्चा आर्थिक कारणों से स्कूल नहीं जा रहा हो, तो वह उसकी समस्या को दूर करें।

पब्लिक स्कूलों में पढ़ेंगे गरीब बच्चे (Poor Children Will Study in Public Schools) :

पब्लिक स्कूल बनाम शिक्षा का अधिकार- अप्रैल 2013 से शिक्षा का अधिकार कानून पूरी तरह संवैधानिक हो गया है। सुप्रीम कोई ने इस कानून को पूरी तरह वैध माना है मुख्य न्यायाधीश एस. एच. कपाड़िया, जस्टिस के. एस. राधाकृष्णन और जस्टिस स्वतन्त्र कुमार की बेंच ने एक फैसले में कहा कि यह कानून सरकार से वित्तीय सहायता ले रहे अल्पसंख्यक विद्यालयों पर लागू नहीं होगा। अब शिक्षा के अधिकार के कानून के तहत सभी सरकारी, वित्तीय सहायता प्राप्त व गैर- वित्तीय सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में गरीब विद्यार्थियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रहेगा।

यूँ तो यह कानून 2009 में ही पारित हो गया था, लेकिन तब निजी स्कूलों ने इसके खिलाफ याचिका दायर करके कहा था कि धारा (i) के तहत कानून निजी संस्थानों को बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के अपना प्रबन्धन करने की स्वायत्तता देता है।

जब से देश में शिक्षा का निजीकरण प्रारम्भ हुआ, शिक्षा को एक वर्ग विशेष तक सीमित रखने के षड़यन्त्र भी प्रारम्भ हो गए। दरअसल शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की सोच उस पश्चिमी, विशेषकर अमरीकी मानसिकता से प्रभावित है, जो अपनी जरूरत के मुताबिक आम जनता को शिक्षा उपलब्ध कराती है। इसी सोच का नतीजा है कि आज अमरीका में विद्यालयों के बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। स्नातक या उससे आगे की उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत बहुत कम है।

कुछ दशकों पूर्व तक अश्वेत बच्चों को शिक्षा आसानी से उपलब्ध नहीं थी। यही स्थिति आज भारत की दिख रही है। संविधान में घोषित प्रावधानों के बावजूद दलितों, पिछड़ों, अति गरीबों के लिए शिक्षित होना आकाश कुसुम तोड़ने की तरह है। एक वर्ग को शिक्षा से वंचित रखने का मुख्य कारण यही है कि वह चुपचाप दमित होता रहे, शोषण सहता रहे और शारीरिक श्रम के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प न रह जाए । जब अमरीका में कार्यालयों में कार्य करने योग्य प्रशिक्षित लोगों की कमी होने लगी और श्रमिकों की संख्या बढ़ गई, तब वहाँ स्कूली शिक्षा से आगे की शिक्षा को प्रोत्साहित करने की योजना सरकार की प्राथमिकता में आयी।

दुर्भाग्य यह है कि भारत में शिक्षा का व्यापार करने वाले अमरीकी सोच से ही प्रभावित दिखते हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में ऐसे स्कूल बहुतायत में खुले हैं जिनमें तथाकथित भारतीय संस्कृति में विद्यार्थियों को दक्ष करने की बात कही गई है। लेकिन यह व्यपारिक चतुराई से ज्यादा कुछ नहीं है। इन निजी स्कूलों में लॉर्ड मैकाले की सोच के अनुरूप ही छात्रों को तैयार किया जा रहा है। आर्थिक सम्पन्नता को आधार बनाकर सांस्कृतिक विषमता बढ़ाने की यह सोच दरअसल पूरे समाज को ही बाँटकर रख रही है। निश्चित रूप से निजी स्कूलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निराशा हुई होगी, क्योंकि अब उनके आलीशान भवनों मैं गरीब का बच्चा भी पढ़ने जा सकेगा।

केन्द्र सरकार की दलील यही है कि यह कानून सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की उन्नति में सहायक है। इसके तहत देश के हर 6 से 14 साल की उम्र के बच्चे को मुफ्त शिक्षा हासिल होगी, यानी हर बच्चा पहली से आठवीं कक्षा तक मुफ्त और अनिवार्य रूप से पढ़ेगा। सभी बच्चों को घर के आस-पास स्कूल में दाखिला हासिल करने का हक होगा। सभी तरह के स्कूल चाहे वे सरकारी हों, अर्द्धसरकारी हों, सरकारी सहायता प्राप्त हों, गैर-सरकारी हों, केन्द्रीय विद्यालय हों, नवोदय विद्यालय हों, सैनिक स्कूल हों, इस कानून के दायरे में आएँगे गैर-सरकारी स्कूलों को भी 25 फीसदी सीटें गरीब वर्ग के बच्चों को मुफ्त मुहैया करानी होंगी। जो ऐसा नहीं करेगा, उसकी मान्यता रद्द कर दी जाएगी।

सभी स्कूल शिक्षित-प्रशिक्षित अध्यापकों को ही भर्ती करेंगे और अध्यापक – छात्र अनुपात 1 : 40 रहेगा। सभी स्कूलों में मूलभूत सुविधाएँ होना अनिवार्य है। इसमें क्लास रूप, टॉयलेट, खेल का मैदान, पीने का पानी, लंच, लाइब्रेरी, आदि शामिल हैं। स्कूल न तो प्रवेश के लिए कैपिटेशन फीस ले सकते हैं और न ही किसी तरह का डोनेशन अगर इस तरह का कोई मामला प्रकाश में आया तो स्कूल से 25 हजार रु. से 50 हजार तक जुर्माना वसूला जाएगा।

निजी ट्यूशन पर पूरी तरह से रोक होगी और किसी बच्चे को शारीरिक सजा नहीं दी जा सकेगी । कुल मिलाकर इस कानून के प्रावधानों को पढ़ने से यही लगता है कि देश में शीघ्र ही इससे आमूल-चूल सामाजिक बदलाव होगा । वर्तमान सरकार चाहे तो इसका शब्दश: पालन करवाकर इतिहास की धारा मोड़ कर रख दे। लेकिन पूर्व के अनुभव यही कहते हैं कि लक्ष्य अभी दूर है, कमजोर लोगों की उन्नति की सरकार की दलील सही है, लेकिन दवा का इन्तजाम करने की अपेक्षा वह रोग को पनपने लायक माहौल ही खत्म कर दे, तो क्या बेहतर नहीं होगा? निजी स्कूल सरकार के निर्देशों के मुताबिक संचालित होंगे, इसकी सम्भावनाएँ कम हैं वे कोई-न-कोई पिछला दरवाजा ढूँढ़ ही लेंगे। चिन्ता इस बात की भी होनी चाहिए कि 75 प्रतिशत धनाढ्य बच्चों के बीच 25 प्रतिशत गरीब बच्चे किस प्रकार की मानसिक स्थिति से गुजरेंगे। अच्छा होता अगर सरकार निजी स्कूलों के समान सरकारी स्कूलों का स्तर ही इतना ऊंचा कर लेती कि शिक्षा का व्यापार चलाने वालों को मुँह की खानी पड़ती तब बच्चों के बीच न आर्थिक विषमता की खाई होती, न सामाजिक स्थिति का भेद, केवल शिक्षा के जरिए बेहतर भविष्य बनाने के सपने होते।

शिक्षा का अधिकार अब मौलिक अधिकार- भारत माता के महान सपूतों में से एक, गोपाल कृष्ण गोखले यदि आज जिन्दा होते तो देश के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार के अपने सपने को साकार होते देखकर सबसे अधिक प्रसन्न होते । गोखले वही व्यक्ति थे, जिन्होंने आज से एक सौ वर्ष पहले ही इम्पीरियल लेजिस्लेटिव एसेम्बली से यह माँग की थी कि भारतीय बच्चों को ऐसा अधिकार प्रदान किया जाए। इस लक्ष्य तक पहुँचने में हमें एक सदी का समय लगा है।

लागू सरकार ने अन्ततः सभी विसंगतियों को दूर करते हुए शिक्षा का अधिकार किया है। शिक्षा का अधिकार अब 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए मौलिक अधिकार है सरल शब्दों में, इसका अर्थ यह है कि सरकार प्रत्येक बच्चे को आठवीं कक्षा तक की निःशुल्क पढ़ाई के लिए उत्तरदायी होगी, चाहे वह बालक हो अथवा बालिका अथवा किसी भी वर्ग का हो इस प्रकार इस कानून ने देश के बच्चों को मजबूत, साक्षर और अधिकार सम्पन्न बनाने का मार्ग तैयार कर दिया है।

इस अधिनियम में सभी बच्चों को गुणवतापूर्ण और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान है, जिससे ज्ञान, कौशल और मूल्यों से लैस करके उन्हें भारत का प्रबुद्ध नागरिक बनाया जा सके यदि विचार किया जाए तो आज देश भर में स्कूलों से वंचित लगभग एक करोड़ बच्चों को शिक्षा प्रदान करना सचमुच हमारे लिए एक दुष्कर कार्य है इसलिए इस लक्ष्य को साकार करने के लिए सभी हितधारकों – माता-पिता, शिक्षक, स्कूलों, गैर-सरकारी संगठनों और कुल मिलाकर समाज, राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार की ओर से एकजुट प्रयास का आह्वान किया गया है। जैसा कि राष्ट्र को अपने सम्बोधन में भूतपूर्व प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि सबको साथ मिलाकर काम करना होगा और राष्ट्रीय अभियान के रूप में चुनौती को पूरा करना होगा।

डॉ. सिंह ने देशवासियों के सामने अपने अन्दाज में अपनी बात रखी कि वह आज जो कुछ भी हैं, वह केवल शिक्षा के कारण ही है। उन्होंने बताया कि वह किस प्रकार लालटेन की मद्विम रोशनी में पढ़ाई करते थे और वह अपने स्कूल तक पहुँचने के लिए लम्बी दूरी पैदल चलकर तय करते थे, जो अब पाकिस्तान में है । उन्होंने बताया कि उस दौर में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने में भी काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। वंचित वर्गों के लिए शिक्षा पाने की माँग के बेहतर रूप में पेश नहीं किए जा सके।

इस अधिनियम में इस बात का प्रावधान किया गया है कि पहुँच के भीतर कोई निकटवर्ती स्कूल किसी भी बच्चे को प्रवेश देने से इन्कार नहीं करेगा। इसमें यह भी प्रावधान शामिल है कि प्रत्येक 30 छात्र के लिए एक शिक्षक के अनुपात को कायम रखते हुए पर्याप्त संख्या में सुयोग्य शिक्षक स्कूलों में मौजूद होने चाहिए। स्कूलों को पाँच वर्षों के भीतर अपने सभी शिक्षकों को करना होगा। उन्हें तीन वर्षों के भीतर समुचित सुविधाएँ भी सुनिश्चित करनी होंगी, जिनमें खेल का मैदान, पुस्तकालय, पर्याप्त संख्या में अध्ययन कक्ष, शौचालय, शारीरिक विकलांग बच्चों के लिए निर्बाध पहुँच तथा पेय जल सुविधाएँ शामिल हैं। स्कूल प्रबन्ध समितियों के 75 प्रतिशत सदस्य छात्रों की कार्यप्रणाली और अनुदानों के इस्तेमाल की देखरेख करेंगे स्कूल प्रबन्धन समितियाँ अथवा स्थानीय अधिकारी स्कूल से वचित बच्चों की पहचान करेंगे और उन्हें समुचित प्रशिक्षण के बाद उनकी उम्र के अनुसार समुचित कक्षाओं में प्रवेश दिलाएँगे। सम्मिलित विकास को बढ़ावा देने के उद्देश्य से अगले वर्ष से निजी स्कूल भी सबसे निचली कक्षा में समाज के गरीब और हाशिए पर रहने वाले वर्गों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करेंगे।

शिक्षा का अधिकार : समीक्षा-

  • 2009 के कानून के लागू होने पर 6 वर्ष की आयु से नीचे बच्चे, जिनकी संख्या 17 करोड़ है, वे पोषक आहार, स्वास्थ्य संरक्षण और शिशु शिक्षा के मौलिक अधि कार से वंचित ही रहेंगे।
  • 19 करोड़ बच्चे जो 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु के अन्दर आते हैं, उनको शिक्षा उस ढंग से प्रदान की जाएगी जैसे राज्य सरकारें उचित समझेंगी। इस

कानून में प्रमुख न्यूनताएँ हैं-

  • संविधान की धाराओं के आधार पर सभी छात्रों को समान रूप में गुणवत्ता तथा अच्छी शिक्षा प्रदान करने की स्थिति कानून में निश्चित नहीं है।
  • क्या सरकारी विद्यालय समाप्त होंगे? 2009 के शिक्षा का अधिकार को विशेष श्रेणी के विद्यालयों, जैसे केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय और निजी तथा सरकार की साझेदारी से 6000 नए आदर्श विद्यालयों की स्थापना- क्या यह सब कानून की सीमा से बाहर रहेंगे। अतः बालक अच्छी शिक्षा से वंचित ही किया गया है।
  • शिक्षा में निजी तथा व्यापारीकरण को बढ़ावा मिलेगा। इन तीन प्रमुख आपत्तियों के अतिरिक्त 2009 के बिल में अनेक आपत्तिजनक प्रावधानों की आलोचना की जा रही है-

(i) राज्य और केन्द्र के बीच फण्ड का बँटवारा नहीं हुआ है। राज्य सरकारें चाह रही हैं कि केन्द्र ज्यादा-से-ज्यादा जिम्मेदारी उठाए। वित्तीय स्पष्टता न होने से समग्रता से इस कानून के क्रियान्वयन में सन्देह उपस्थित हो रहा है।

(ii) 6 वर्ष के नीचे के बालक की जो प्राथमिक शिक्षा की नींव है, उसे सुदृढ़ करने का विचार नहीं किया गया। करोड़ों बच्चे इस कानून के दायरे में नहीं रहेंगे।

(iii) केपिटेशन फीस तथा दान की व्याख्या तो की गई है, पर शुल्क के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा गया । प्राइवेट संस्थाओं के व्यापारीकरण में वृद्धि होगी।

(iv) राजकीय तथा प्राइवेट संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्रों की गुणवत्ता शिक्षा में असमानता तथा असन्तुलन बना रहेगा।

(v) संविधान की धारा 350-ए, जिसमें बालक को मातृभाषा में पढ़ने का अधिकार दिया गया है, उसे कानून में यह अधिकार प्राप्त नहीं होगा।

(vi) विकलांग बच्चों को कानून के प्रावधानों से बाहर रखकर उनके साथ घोर अन्याय किया गया है। 75 प्रतिशत इस श्रेणी के बालक विद्यालयों में हैं नहीं।

(vii) माता-पिता को दायित्व दिया गया है कि वे बालकों को विद्यालय में प्रवेश दिलाएँ; सरकारों को इस दायित्व से मुक्त किया गया है।

(viii) कानून की अवहेलना पर एक लाख रु. का दण्ड निश्चित किया गया है। ऐसा. होने पर यह राशि स्कूल फण्ड से अथवा विद्यार्थियों पर अतिरिक्त शुल्क लगाकर दे दी जाएगी। इसके ऊपर कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा। उल्लंघनकर्त्ता को कोई दण्ड नहीं मिल पाएगा ।

(ix) पड़ोसी स्कूलों को परिभाषित नहीं किया गया। 1966 में कोठारी आयोग पड़ोसी स्कूलों की सिफारिश की थी 1986 में शिक्षा की राष्ट्रीय नीति, जिसे संसद ने स्वीकृति प्रदान की थी, उसमें भी नजदीक के विद्यालयों को पारिभाषित किया गया था 1992 में इस सम्बन्ध में संशोधन हुआ था इस सब कार्यवाही के पश्चात् भी राज्य सरकारों पर छोड़ दिया गया है कि वह कैसे, कहाँ पड़ोसी विद्यालय स्थापित करें स्पष्ट अवधारणा के कारण क्रियान्वयन भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है।

(x) यह कानून गरीब बच्चों को घटिया पढ़ाई के स्तर के विद्यालयों में पढ़ने को बाधित करेगा । ऊँच-नीच की खाई बढ़ जाएगी।

(xi) बिल में आर्थिक व्यय की सम्भावनाओं को नहीं दर्शाया गया, अतः बिल के क्रियान्वयन का दायित्व कौन सम्भालेगा? इस महत्त्वपूर्ण बिन्दु को छोड़ दिया गया है।

(xii) विद्यालयों में 10 प्रतिशत पद रिक्त रखने की अनुमति है। छोटे विद्यालय तो अधिकतर खाली ही खाली दिखाई देंगे। एकल विद्यालय तो बन्द ही हो जाएँगे।

श्री कपिल सिब्बल जी ने संसद में कहा है कि यह बिल ऐतिहासिक है। शिक्षा में गुणवत्ता, सामाजिक समरसता तथा समानता लायेगा। पर इसकी आलोचना की जा रही है और यह किसी सीमा तक ठीक भी है कि वर्तमान विद्यालयों की स्थिति उनके संसाधनों की ओर ध्यान दिए बिना, लक्ष्य नहीं मिल पाएगा।

(i) पहली कक्षा में 80 प्रतिशत प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी 9 वर्ष की आयु तक पहुँचने पर केवल 56 प्रतिशत रह हैं।

(ii) इनमें से आधे बच्चे 8वीं कक्षा तक पहुँच पढ़ाई पूर्ण कर लेते हैं।

(iii) 10 प्रतिशत विद्यार्थी आगे चलकर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं।

(iv) अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों की लड़कियाँ प्रवेश के समय 80 प्रतिशत होती हैं और वे दसवीं की परीक्षा पूर्ण करने से पहले ही विद्यालय त्याग देती हैं।

(v) नेशनल सैम्पल सर्वेक्षण के आधार पर-

  • 30 प्रतिशत विद्यालयों के ठीक से भवन नहीं हैं।
  • स्वच्छ पानी पीने की व्यवस्था नहीं, लड़कियों के लिए पृथक् से शौचालय नहीं है।
  • 20 प्रतिशत विद्यालयों में केवल एक ही कमरा है अर्थात् उनमें एक ही अध्यापक है।
  • 10 प्रतिशत विद्यालयों में श्यामपट्ट भी नहीं हैं।

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shubham yadav

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