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समावेशी शिक्षा संबंधी पाठ्यक्रम एवं अनुकूलन के विभिन्न प्रकार

समावेशी शिक्षा संबंधी पाठ्यक्रम एवं अनुकूलन के विभिन्न प्रकार (Curriculum in Inclusive Education and Types of Adoptation)

प्राय: हर तरह का शिक्षण-अधिगम पाठ्यक्रम पर आधारित होता है तथा दूसरे उद्देश्य की सफलता अथवा असफलता भी इसी से सुनिश्चित होती है। यह बालकों की शिक्षण-अधिगम से सम्बन्धित मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला होना चाहिए। यह उस ज्ञान एवं कौशल का वर्णन करता है जिन्हें बालक प्राप्त कर सके। पाठ्यक्रम बालक के इन्हीं कौशलों को निखार कर सामने लाने में मददगार होता है। ऐसे में यह भी जरूरी हो जाता है कि पाठ्यक्रम सभी प्रकार के बालकों की आवश्यकताओं का पूर्ण करने वाला हो।

समावेशी शिक्षा सम्बन्धी पाठ्यक्रम भी यह सुनिश्चित करता है कि जिन मानकों के तहत पाठ्यक्रम तैयार किया गया है, वे मानक इतने विस्तृत तथा व्यापक कि बालकों की अधिगम शिक्षण से सम्बन्धित समस्त जरूरतें पूर्ण हों सकें। यह सभी मानकों पर आधारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के ढाँचे को प्रोत्साहित करें। इसमें समावेशीय अनुदेशनात्मक उपागम एवं सामग्री सम्मिलित होनी चाहिए। जो विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं वाले बालकों हेतु उपलब्ध हो, यह मूल रूप से शारीरिक तौर पर अशक्त बच्चों के स्तर को ऊँचा उठाने में उपयोगी होता है। इससे उनके विभिन्न प्रकार के कौशलों का विकास होता है।

पाठ्यक्रम की विशेषताएँ

पाठ्यक्रम के अन्तर्गत सैद्धान्तिक रूप व व्यावहारिक रूप एवं अन्य पाठ्य सहगामी क्रियाओं के क्रियान्वयन को जोड़ा जाना चाहिए। पाठ्क्रम की रचना का आधार समावेशन (Inclusion) होना चाहिए। पाठ्यक्रम केवल सामान्य बालकों को ध्यान में रखकर ही नहीं विशिष्ट बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाला होना चाहिए।

लाभ कोष से दी जा रही है या जहाँ व्यक्ति विशेष की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए तकनीक का प्रयोग किया जा रहा हो।

क्षमताओं के विकास हेतु क्षेत्रीय, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शोधकार्य किये जाने चाहिए, जिससे विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों के लिए उचित तकनीक को विकसित किया जा सके।

अनुकूलन के विभिन्न प्रकार (Types of Adaptation)

अनुकूलन शिक्षा हेतु उपयोगी होता है। इससे तात्पर्य एक परिवर्तन तालमेल से है, जिससे शारीरिक तौर से सशक्त बालक भी प्राप्त अवसरों को आसानी से भुना सके। तर्कपूर्ण समायोजन करना, कक्षा-कक्ष की व्यवस्था, क्रियाकलापों के प्रकार एवं समान अवसरवादियों में सुधार की सुविधा के माध्यम से किया जा सकता है। अनुकूलन के लिये उपयोगी शर्तों में कक्षा-कक्ष की उचित स्थिति, प्रदत्त कार्य की पूर्व सूचना देना, उक्त कार्य को पूरा करने में विभिन्न वैकल्पिक उपाय, दृश्य-श्रव्य सामग्री का उपयुक्त ढंग से प्रयोग, विशिष्ट सहायक सामग्री का आदि शामिल है। पाठ्यक्रम से सम्बन्धित एवं अनुदेशनात्मक परिवर्तन क्रियात्मक आयु वर्ग के अनुकूल प्रतिबिम्ब प्रदान करने वाले होने चाहिए। शिक्षक का यह दायित्व बनता है कि उसका शिक्षण कार्य पाठ्यक्रम एवं बच्चों की आवश्यकताओं के अनुकूल हो। समावेशन के दौरान एक शिक्षक निम्नलिखित बातों का ध्यान रख सकता है-

1. दत्त कार्य की पूर्व सूचना- शिक्षक द्वारा दिये जाने वाले कार्य की पूर्व सूचना बालक को होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में बालक का पाठ्यक्रम से अवगत होना अनिवार्य है क्योंकि बिना पूर्ण जानकारी के बालक दत्त कार्य में परेशानी का सामना करेगा या फिर दत्त कार्य कर ही नहीं पायेगा।

2. निर्धारित पाठ्य सामग्री- एक निर्धारित एवं संक्षिप्त पाठ्यसामग्री बालक के समावेशन में उपयोगी होती है। इससे बच्चे में अधिगम के प्रति अभिरुचि का विकास होता है, किन्तु साथ ही यह ध्यान भी रखा जाना अनिवार्य है कि उक्त पाठ्य सामग्री में आवश्यकतानुसार तथा उपयोगी सामग्री होनी चाहिए।

3. सम्पूर्ण सामग्री की रूप-रेखा तैयार करना- शिक्षक को चाहिए कि वह सम्पूर्ण विषय सामग्री का खाका तैयार कर उसकी शिक्षण हेतु एक रूपरेखा तैयार कर ले। ऐसा करने से बच्चे के लिये अधिगम आसान होगा वरन् उसकी क्षमताओं के साथ सम्पूर्ण आय की अवधारणा भी प्रबल होगी।

4. निश्चित मापदण्डों का पालन- इस प्रकार तैयार की गई रूपरेखा के लिये आवश्यक है कि यह कुछ निश्चित मापदण्डों का पालन करते हुये तैयार की गई हो, ताकि विभिन्न अवधारणाओं को पहचानने में आसानी हो सके। ये मापदण्ड सुनियोजित एवं संगठित होने चाहिए जिसमें उद्देश्य, समयावधि, रिपोर्ट एवं गतिविधियाँ इत्यादि तत्व शामिल हों।

5. प्रभावशाली क्रियान्यन- इस तरीके से तैयार की गई रूपरेखा का सफल परिणाम तभी सम्भव है, जब इसे प्रभावशाली ढंग से क्रियान्वित किया जाये। इसके क्रियान्वयन में कदम स्तर का अहम किरदार होता है। जैसे जो बच्चे प्राथमिक स्तर पर हैं, उसके लिये कोई अलग शैली तथा जो बच्चा चौथी अथवा पाँचवीं से ऊपर का है तो उसके लिये किसी अन्य शिक्षण विधि उपयोग में लाई जाती है। प्राथमिक स्तर पर शिक्षण सामग्री अधिक फलदायी होती है। जबकि ऊपर के स्तर पर शिक्षण सामग्री के साथ उसकी व्याख्या एवं अन्य विधियाँ सहायक होती हैं।

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shubham yadav

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