B.Ed./M.Ed.

सत्य क्या है? | सत्य का स्वरूप | What is True in Hindi

सत्य क्या है
सत्य क्या है

सत्य क्या है? (What is True?)

हमारी मातृभूमि, भारत में जीवन के सत्य पर डटे रहने की एक गौरवशाली परम्परा रही है। राजा हरिशचन्द्र के काल से लेकर अभी कुछ समय पूर्व महात्मा गाँधी तक, हम अनेक राजाओं, ऋषि-मुनियों व सामान्य जनों द्वारा सभी परिस्थितियों में सत्य के पथ पर डटे रहने के कारणं किए गए त्यागों का पुनर्मरण कर सकते हैं। इसलिए स्वतंत्र भारत ने राष्ट्रीय ध्येय वाक्य के रूप में ‘सत्यमेव जयते‘ को चुना। हम सत्य का मूल्य सर्वोच्च इसलिए मानते हैं कि इसकी अमोघता में हमारी आस्था है। हम सत्य पर डटे रहते हैं क्योंकि हमारा दृढ़ विश्वास है कि यह हमारी अन्तर्चेतना को मुखर करने वाला उद्घोष है।

‘सत्य क्या है?’

इसकी वास्तविकता को समझने के लिए हमें अनेक उदाहरणों की आवश्यकता पड़ती है। आइए अपनी समझ के अनुसार सत्य को अनेक स्तरों को जानने का प्रयास करें।

अनुभवजन्य सत्य (Experienced Truth) – हम जो कुछ देखते हैं व सुनते हैं जैसे को तैसा बता देने को हम ‘सत्य’ समझते हैं, यह पहली सीढ़ी है। सत्य विषयक यह अवधारणा हमारी इन्द्रियों से प्राप्त अनुभव पर आधारित है। ‘आज रविवार है’, ‘मैं उनींदा अनुभव कर रहा हूँ’ या ‘अग्नि जलाती है’ आदि सांसारिक सत्यों को ऐसे उदाहरण हैं जो इन्द्रियगम्य ज्ञान पर आधारित हैं। तथापि, प्रत्येक ‘आज का दिन ‘रविवार’ नहीं होता, न ही सम्पूर्ण विश्व में एक साथ ‘रविवार’ का दिन पड़ता है, ‘मैं उनींदा अनुभव कर रहा हूँ’ यह सर्वकालिक सत्य नहीं है। अग्नि सब पदार्थों को नहीं जलाती; कागज की थैली में पानी भर कर आग पर रखा जाए तो कागज नहीं जलता। इस पकार इन्द्रियगम्य ज्ञान पर आधारित रहता है। यह सापेक्षिक है। इसमें तथ्य और उसकी अभिव्यक्ति में पारस्परिक एकरूपता आवश्यक रूप से सुस्पष्ट नहीं होती। एक मूल्य के रूप में इन्द्रियगम्य ज्ञान पर आधारित सत्य पूर्ण सत्य नहीं है।

हम सोचते हैं कि जैसा देखा गया, कहा गया, सुना गया उसे उसी रूप में पुन: प्रस्तुत कर देना सत्य है। सत्य का यह मूल्य नहीं है। सत्य, समय एवं स्थान के बंधन में नहीं है। सभी देशों, कालों, ऋतुओं के लिए सत्य अपरिवर्तित रहता है। सत्य नित्य है।

निष्कर्षजन्य सत्य (Conclusive Truth)— निष्कर्षजन्य सत्य, उच्चतर स्तर पर है। यह केवल इन्द्रियगम्य ज्ञान पर आधारित नहीं होता घटनाओं का अवलोकन एवं तथ्यों का संग्रहण निःसंदेह आवश्यक है किन्तु सत्य तक पहुँचने के लिए वैज्ञानिक तर्क प्रणाली प्रयुक्त होती हैं। ‘सभी मनुष्य नश्वर हैं’, ‘सभी कौए काले होते हैं’, ‘हर सुबह सूरज पूर्व दिशा में उगता है’ आदि निष्कर्षजन्य सत्य के उदाहरण हैं। इनका सभी परिस्थितियों में सत्यापन तथा निर्देशन नहीं हो सकता अथवा इन्हें हमारी अपनी इन्द्रियों द्वारा अनुभव नहीं किया जा सकता फिर भी हम इन्हें सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

विज्ञान सम्मत सत्य उक्त श्रेणी के अंतर्गत आते हैं। एक त्रिभुज के तीनों कोणों का योग 180° होता है, एक परमाणु की सामान्य संरचना, ऊर्जा की अविनाशिता के नियम, ये सब निष्कर्षजन्य सत्य के उदाहरण हैं। विज्ञानसम्मत सत्य में नए प्रमाणों के प्रकाश में परिवर्तन या परिवर्द्धन होता रहता है। अतः इन्हें भी सापेक्षित सत्य कहते हैं। वास्तव में तो कुछ लोग विज्ञान को घटते हुए छल की प्रक्रिया मानते हैं।

सत्य, समय, स्थान एवं गुणों से अप्रभावित रहना चाहिए। तब ही सत्य होगा। बाद की घटना अथवा ज्ञान से यह गलत साबित नहीं होना चाहिए।

परम् (निरपेक्ष) सत्य-पूर्ण सत्य (Truth as a Whole)- विज्ञान का संबंध सापेक्षिक सत्यों से है। आध्यात्मिकता का चरम लक्ष्य, परम सत्य है। इन्द्रियगम्य अनुभवों व निष्कर्षजन्य तर्कों के आधार पर विज्ञान जगत का ज्ञान है। ‘अनंत’ को जानने की अपनी प्रविधि तथा तर्क पद्धति है। जहाँ विज्ञान तर्कों के कार्य-करण संबंध से संख्यात्मक तथ्यों के आधार पर ज्ञान प्राप्त करता है, वहीं दूसरी ओर आध्यात्मिकता, अंतर्बोध और सहानुभूति का शास्त्र है।

विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र बाह्य (वस्तुनिष्ठ) विश्व है, इसके उपकरण हैं इन्द्रियां और बुद्धि और ये व्यक्तिनिष्ठ हैं आध्यात्मिकता का अध्ययन क्षेत्र मनुष्यों का आंतरिक जीवन यानि व्यक्तिनिष्ठ जगत है और उपकरण है वस्तुनिष्ठ आत्मन से प्राप्त प्रेरणाएँ फ्रेंच दार्शनिक देकार्ते ने कहा था, “मैं हूँ, इसलिए मैं हूँ” जबकि उपनिषद के ऋषि की घोषणा है कि “मैं हूँ, इसलिए मैं सोचता हूँ।” उपनिषद के ऋषि के लिए मनुष्य की सारगर्भिता- उसके ‘अस्तित्व’ में है।

अन्तर्निहित दिव्यत्व- हमें जो दिखता है, उसका आधार अदृश्य में है। जो कुछ सुनाई देता है उसका स्त्रोत सुनाई न देने वाला है। उदाहरण के लिए हमें दीवारें दिखती हैं किंतु नींव नहीं दिखती। फूलों का हार दिखता है किंतु फूलों को गूंथने वाला धागा नहीं दिखता। बिजली के पंखे की घूमती हुई पत्तियाँ दिखती हैं किंतु विद्युतधारा नहीं दिखती। तब इस मानव देह का क्या आधार है?

जब मैं कहता हूँ ‘मेरा स्कूटर’ तब निश्चय ही ‘मैं स्कूटर नहीं हूँ।’ जब मैं कहता हूँ कि ‘मेरा हाथ’ ‘मेरा शरीर’ तब इस हाथ और शरीर का मालिक कौन है? इस शरीर बुद्धि और मन का स्वामी यह “मैं” कौन है ? जीवन से मृत्युपर्यंत कौन उच्छवासोच्छ्वास के लिए उत्तरदायी हैं मृत्यु उपरांत वह क्या है जो शरीर से निकल जाता है जिसके कारण हम मृत शरीर को आग के हवाले कर देते हैं। उपनिषदों का उद्घोष है कि शरीर का स्वामी परम सत्य है इसे विविध नाम दिए गए हैं जैसे कि आत्मा, शुद्ध चैतन्य या अंतर्निहित दिव्यत्व।

प्रत्येक में सत्य की चिंगारी है। यह चिंगारी, यह ज्योति ही ईश्वर है। वही सारे सत्य एवं सारे प्रेम का स्रोत है। मनुष्य सत्य की खोज में है। वह सच्चाई जानना चाहता है क्योंकि उसकी वह प्रकृति स्वयं ईश्वर से उद्भूत है, जो सत्य है।

वर्षाकाल में हम बारिश की बूंदों को देखकर उन्हें यों ही गुजर जाने देते हैं किंतु इन्हीं बूंदों को देखकर कोई चित्रकार, चित्रांकन करता है, गीतकार गीत लिखता है, गायक गाते हैं, मयूर नाच उठता है, और दार्शनिक स्वप्न संसार रचता । इन सब प्रेरणाओं के मूल में ‘आत्मन’ है। आत्मन, स्वयंसिद्धि । किसी प्रमाण के जरिए ‘आत्मन’ पुष्ट नहीं होता, किसी इंकार से यह निर्बल नहीं होता। यह किसी तर्क अथवा प्रमाण पर आश्रित नहीं है। तर्क और प्रमाण को यह जन्म देता है, उनका स्रोत है। अन्य वस्तुओं को प्रमाणित या अप्रमाणित किया जा सकता है, किन्तु ‘आत्मन’ को नहीं । आत्मन् की अनुभूति की यह आध्यात्मिक प्रविधि है।

लैटिन भाषा का शब्द है ‘एडूकेअर’, जिससे अंग्रेजी शब्द ‘एड्यूकेशन’ की व्युत्पत्ति हुई है। उसका अर्थ है, ‘बाहर लाना’ या सुप्त को उद्घाटित करना। शिक्षा को सदा ही ऐसी प्रक्रिया माना गया है, जिससे खाली बर्तनों को भरा नहीं जाता अपितु दीप प्रज्वलित किया जाता है।

विवेकानंद ने शिक्षा की शास्त्रीय परिभाषा दी है, “शिक्षा, व्यक्ति में अन्तर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण है।”

ज्यों-ज्यों हमारी अन्तर्निहित पूर्णता के प्रकटीकरण की मात्रा बढ़ती है त्यों-त्यों हमें सच्चे स्वभाव की अनुभूति भी हो जाती है। अगर रामकृष्ण और रमन को ‘दृष्टि’ मिली तो क्या हम भी उस स्तर पर पहुँचने की आकांक्षा नहीं कर सकते? ध्रुव द्वारा स्थायी आवास को पाने विषयक तुरंत संकल्प, सत्यान्वेषण के लिए नचिकेता का अटल संकल्प, हमारी परम्परा के भंडार के कुछ ऐसे चमकदार रत्न हैं जिनसे ज्ञात होता है कि इस मार्ग में भी सभी विजेता हैं। ‘तत्वमसि’ तुम वह हो। ऋषि का यह उद्घोष भ्रम नहीं है अपितु सहजानुभूति का प्रत्यक्ष अनुभव है।

सर्वोच्च स्थिति में सत्य शाश्वत है- समय एवं स्थान के बंधनों से परे है। सभी प्राणियों पर सामान्य रूप से लागू होने वाली स्वतः प्रमाणित सच्चाई है। इस परिवर्तनशील जगत में अंतरम में स्थित स्रोत ही एक एकमात्र स्थाई वास्तविकता है। यह समझ और अनुभव कि संसार केवल सापेक्षिक सत्य है, हमें परम निरपेक्ष सत्य की ओर ले जाता है।

ईश्वर किसी ऊँचे स्वर्ग में विराजित नहीं है। वह हममें हैं, हमारे साथ आगे, पीछे, सामने है, वह प्रत्येक कोशिका में जीवन रूप है। वह प्रत्येक परमाणु में स्पन्दित है। वह यह सब कुछ है और इससे अधिक भी बहुत कुछ है।

सारभूत सत्य को जानने के लिए, उसकी खोज, जांच पड़ताल और अनुभव के लिए प्रत्येक मनुष्य को बुद्धि दी गई है। ईश्वर स्वयंभू सत्य है।

बुद्धि की खोज से शुरू हुई प्रक्रिया में ही सत्योद्घाटन प्रारंभ होता है और प्रक्रिया तब फलीभूत हो जाती है जब बुद्धि का परिवर्तन सहजानुभूति में हो जाता है। यह एक बेजोड़ प्रक्रिया है, डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में, “बुद्धि, सहजानुभूति की, हठधर्मिता की, अनुभव की तथा बाह्य अभिव्यक्ति, आंतरिक अनुभूतियों की अनुवर्ती है।”

अब हम जानेंगे कि शिक्षा की इस क्रमिक प्रक्रिया का मानवीय उत्कृष्टता के पाठ्यक्रम में किस प्रकार समावेश किया गया है।

आनुषंगिक मूल्यों (उपमूल्यों) का अनुक्रम सत्य का अनुक्रम
एकल धारणा

1. सत्यवादिता

2. जिज्ञासा

3. ज्ञान पिपासा

4. खोज वृत्ति

5. विवेचन (विवेक)

6. आत्मावलोकन

7. धर्मनिरपेक्षता

बहुल धारणा

8. सभी धर्मों का आदर

9. सार्वभौमिक स्वयंभू सत्य

प्रत्येक लक्ष्य का अपना मार्ग और गंतव्य तक पहुँचने की मार्गदर्शक पट्टिकाएँ होती हैं। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा जिन 83 आनुषंगिक मूल्यों को सूचीबद्ध किया गया है उनमें से 9 मूल्यों को सत्य के आधारभूत मूल्य के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इन आनुषंगिक मूल्यों को शालेय शिक्षा पाठ्यक्रम में क्रमानुसार मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर सजाया जा सकता है यथा सरल से जटिल मूल्य, एकल से बहुल अवधारणा जटिलता के क्रमानुसार जो आनुषंगिक मूल्य नीचे दिये हैं, उन्हें शाला के आरंभिक वर्षों में परिचित कराया जा सकता है। प्रत्येक आनुषंगिक मूल्य के साथ, व्यवहारपरक विशिष्टता को भी जोड़ा जा सकता है। मानवीय उत्कृष्टता की दिशा में प्रत्येक व्यवहारपरक उद्देश्य, एक ऐसा मील का पत्थर है जिसे प्राप्त किया जा सकता है।

1. सत्यवादिता प्रथम आनुषंगिक मूल्य है। इसका सन्दर्भ इन्द्रियानुभूति पर आधारित सत्य है। वस्तुनिष्ठ की दिशा में यह प्रारंभिक कदम हैं। हम जो देखें व सुनें उसे बिना घटाए, बिना बदले उसी रूप में बता दें। नैतिक दृष्टि से इसका अर्थ है कि हम सत्य बोलें, विचार और वाचन में ऐक्य हो इसमें हमारी अपनी भावनाओं का रंग न मिले। असत्यवादिता या झूठ एक विरोधाभास हैं सत्यवादिता की इन्द्रियानुभूति के साथ पूर्ण संगति रहती है।

सत्यवादिता में तथ्य व उसकी अभिव्यक्ति में सटीक सामंजस्य रहता है। यहाँ दार्शनिक भाव यह है कि असत्य मस्तिष्क को भ्रष्ट करता है और उसके समत्व को नष्ट करता है, परिवेश को दूषित कर समाज को हानि पहुँचाता है।

2. जिज्ञासा, ज्ञानपिपासा व खोजवृत्ति ये तीनों इसी अनुक्रम में अगले आनुषंगिक मूल्य है आत्मविश्वास की आंतरिक ललक से प्रेरित होकर व्यक्ति प्रश्न पूछता है, जानकारी लेता है, एवं प्रयोग करता है । सभी वैज्ञानिक प्रविधियों में पद्धतिपरक मूल्यों की आधारभूत भूमिका है। इनसे छात्र को बाह्य जगत की विश्वसनीय जानकारी प्राप्त करने का प्रशिक्षण मिलता है इन्द्रियों के अलावा, इन पद्धतियों में सोचने की प्रक्रिया, स्मरण शक्ति जानकारियों के विश्लेषण उपरांत निष्कर्ष निकालने की बौद्धिक क्षमता का उपयोग होता है।

3. विवेचन (विवेक) अगली पायदान है। सत्य की मंजिल तक पहुँचने के पूर्व सत्य और झूठ, उपयोगी और निरूपयोगी के बीच अंतर कर पाने की क्षमता आवश्यक है। बाह्य जगत के अध्ययन में वस्तुनिष्ठ इस प्रकार आवश्यक हो जाती है। पूर्वाग्रहों, वैयक्तिक पसंद व नापसंद तथा संबंधों को एक तरफ रखना पड़ता है। भावनाओं के ऊपर बुद्धि के नियंत्रण को वैज्ञानिक अध्ययन पद्धतियों में आवश्यक माना गया है।

मनुष्य के अंतर में स्थित आसुरी प्रवृत्तियों पर काबू पाने व दैविक तत्वों को स्वप्रयत्नों से उजागर करने के लिए उसे दी गई विवेक शक्ति उसकी अंतरात्मा की आवाज सुनने से आती है।

श्री सत्य साईं बाबा ( मार्च 1968)

4. आत्मानुशीलन यह छठवाँ आनुषंगिक मूल्य है। यह स्पष्ट है कि हम अब व्यक्तिनिष्ठता के क्षेत्र प्रवेश कर रहे हैं। हमारे अपने आंतरिक जीवन की निष्पक्ष जाँच पड़ताल में शुरू में बताए गए सभी (पाँच) कदम महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक हैं। सत्यवादिता, बौद्धिक प्रशिक्षण एवं विवेक। इतिहास साक्षी है कि विज्ञान में हमें अंधविश्वासों की बेड़ियों से मुक्त होने में मदद की है। तर्क की उसी प्रक्रिया एवं वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता ‘आत्मन’ के अध्ययन के लिए आवश्यक है। चूँकि हमारे विचार और कार्य हमारी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं अतएव एक जैसा वैज्ञानिक जो सांसारिक लाभ-हानि से उद्वेलित है एवं ईर्ष्या या जलन से प्रभावित होता है। वह अपने कार्य में वस्तुनिष्ठता एवं तर्कसंगतता नहीं ला सकता।

5. धर्मनिरपेक्षता एवं सभी धर्मों का आदर सत्य की अनुक्रमणिका में ये उपमूल्य सातवीं एवं आठवीं पायदान पर हैं। इनसे मनुष्यों में भ्रातृभाव व ईश्वर के पितृत्व विषयक हमारी आस्था को बल मिलता है। सत्य केवल एक ही है। आपमें और मुझमें एक ही सत्य है । जब सभी धर्मों का उद्देश्य उसी सत्य का दिग्दर्शन कराना है, और हम सभी लोगों में उन्हीं मानवीय गुणों का अनुभव करते हैं तब हम दूसरों के साथ अपने व्यवहार में पूर्वाग्रह अथवा घमंड को प्रदर्शित नहीं करेंगे। हम यह समझ जाते हैं जैसा कि श्री सत्य साईं बाबा कहते हैं-

केवल एक जाति, मानवता की जाति

केवल एक भाषा है, हृदय की भाषा

केवल एक धर्म है, प्रेम धर्म।

6. सार्वभौमिक स्वयंभू सत्य यह नौवां उपमूल्य है। इसके साथ हो यह वृत्त पूरा हो जाता है। डॉ. राधाकृष्णन् ने कहा है कि-

प्रायोगिक स्तर से शुरू हुई हमारी खोज पुनः उसी में लय हो जाती है। यहाँ प्रक्रिया और उत्पाद मिल जाते हैं।

इस खोज का प्रारम्भ हमारे एक सायास बौद्धिक प्रयास से होता है कि बाह्य विश्व में सत्य की खोज करें। इस खोज का प्रतिफलन, बुद्धि के उदात्तीकरण व उसके सहजानुभूति में लय के अलावा अंतर में व्याप्त प्रेम के प्रकटीकरण में होता है। सत्य साईं बाबा का कथन है कि ‘विचार के रूप में प्रेम सत्य है।’ उन्होंने आगे कहा है-

यह ब्रह्माण्ड ईश्वर का शरीर है; इसके जर्रे जर्रे में ईश्वर, उसकी महिमा, उसकी शक्ति, उसकी रहस्यमयता व्याप्त है। विश्वास रखो कि ईश्वर प्रत्येक वस्तु एवं प्रत्येक प्राणी का आंतरिक सत्य है। वह ही सत्य है; वह ही विवेक है। वह ही शाश्वत है।

पद्धति – हाथ हृदय एवं मस्तिष्क से संबंधित छात्र की सम्पूर्ण क्षमता के उपयोग को दृष्टिगत रखते हुए ऐसा पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए कि सत्य की समझ हो जाए। खोज, अवलोकन, परीक्षण, व्याख्या, अवधारणा के द्वारा हमारी बुद्धि हमारी समझ को विकसित कर पाती है।

स्मरण शक्ति की भी महती भूमिका है। इसकी सहायता से घटनाओं व अनुभवों की तुलना अंतरज्ञान से करके उनके बीच समानताएँ अथवा असमानताएँ समझी जा सकती हैं। प्रार्थना गायन से, सुभाषित कंठस्थ करने से, कहानियों व रूपकों के अलावा संतों एवं गुणी लोगों के जीवन के प्रेरक उदाहरणों से तथा संगीत से इस कार्य में बहुत सहायता मिलती है।

हृदय के विस्तार एवं शुद्धिकरण के माध्यम से सहजानुभूति को जागृत करना एक अन्य शक्तिशाली उपाय है। आंतरिक सच्चाई से सुर मिलाने में मौन बैठक का छात्रों को अभ्यास करना चाहिए। कुछ अन्य प्रविधियों जैसे कि अभिवृत्त निर्माण, रोल प्ले, सामुदायिक सेवा का प्रयोग विवेक शक्ति, वस्तुनिष्ठता व सभी धर्मों के प्रति आदर भाव की वृद्धि के लिए किया जा सकता है।

सत्य का स्वरूप

दैनिक जीवन में हमारे सामने बहुधा यह समस्या उपस्थित होती हैं कि अमुक बात सत्य है अथवा नहीं। हम कोई बात सुनते हैं या पढ़ते हैं तो उसे ज्यों का त्यों न मानकर उसके सत्य अथवा असत्य का पता लगाते हैं। कभी-कभी हमें जो दिखाई पड़ता है उसमें संदेह उत्पन्न हो जाता है और यह समस्या उपस्थित हो जाती है कि हमारा देखना सत्य था अथवा असत्य। सत्यात निर्णय का गुण है। निर्णय सत्य या असत्य होते हैं। कोई निर्णय सत्य अथवा असत्य इसकी परीक्षा उसे सत्य की कसौटी पर कसने से होती है। सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति इस प्रकार की कोई न कोई कसौटी रखता है। उदाहरण के लिए अधिकतर लोग यह समझते हैं कि यदि हमारे निर्णय वस्तु जगत् में यथार्थ वस्तु-स्थिति के अनुरूप ‘हैं तो वे सत्य हैं और यदि ऐसा नहीं है तो वे असत्य हैं। यह सामान्य बुद्धि का मत दार्शनिक विवेचन के सम्मुख थोड़ी देर भी नहीं ठहर सकता। प्रश्न यह है कि आप यह कैसे जान सकते हैं कि आपके निर्णय वस्तु स्थिति के अनुरूप हैं या नहीं क्योंकि वस्तु-स्थिति को आप ज्यों का त्यों नहीं जानते, बल्कि जो कुछ आपने इन्द्रियों के द्वारा अनुभव किया है और अपने पिछले अनुभव के आधार पर वर्तमान प्रत्यक्षों का जो कुछ अर्थ लगाया है, उसी के आधार पर आप वस्तु जगत को जानते हैं और इन्द्रियाँ तथा मनुष्य का अनुभव वस्तु को ज्यों का त्यों नहीं, बल्कि विशेष रूप से उपस्थित करते हैं। अस्तु, वस्तु-स्थिति यह है कि हम केवल अपने अनुभव को जानते हैं, वस्तुओं को नहीं और इसलिए हमारे पास यह निश्चित करने का कोई साधन नहीं है कि हमारे अनुभव और उन पर आधारित निर्णय वस्तुस्थिति के अनुरूप है या नहीं। इसलिए कुछ दार्शनिक यह सोचते हैं कि सत्य की कसौटी अनुभव ही है और जो निर्णय हमारे अनुभव से समीचीन है, वह सत्य है और जो नहीं है, वह असत्य है। परन्तु फिर क्या किसी व्यक्ति के अनुभव पूर्णतया वस्तुगत कहे जा सकते हैं? यदि नहीं तो फिर अनुभव को सत्य की कसौटी मानना कहाँ तक उपयुक्त अस्तु, कुछ दार्शनिक यह सोचते हैं कि हमें वस्तुगत होने की चिन्ता न करते हुए उपयोगिता को देखना चाहिए। जो निर्णय जीवन में उपयोगी हैं, या हमारी आवश्यकताओं को संतुष्ट करते हैं वे निर्णय सत्य हैं और दूसरी ओर जो निर्णय हमारे प्रयोजनों की सिद्धि के मार्ग में बाधा अटकाते हैं, वे असत्य हैं । इस सिद्धान्त में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उपयोगिता क्या है अथवा क्या उपयोगी है, क्या नहीं, इस सम्बन्ध में व्यक्ति, देश और काल में भारी अन्तर पड़ जाता है। तब फिर उपयोगिता को सत्य की कसौटी किस प्रकार बनाया जा सकता है।

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shubham yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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