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द्वितीय अपील कब होती है? | द्वितीय अपील के प्रावधानों का वर्णन | Second Appeal

द्वितीय अपील कब होती है
द्वितीय अपील कब होती है

द्वितीय अपील second appeal(धारा 100 ) 

द्वितीय अपील कब होती है – (1) उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय द्वारा अपील में पारित प्रत्येक डिक्री की उच्च न्यायालय में अपील हो सकेगी। यदि उच्च न्यायालय का यह समाधान हो जाता हैं। कि उस मामलेमें विधि का कोई सारवान प्रश्न अन्तर्वलित है।

(2) एक पक्षी पारित अपीली डिक्री की अपील इस धारा के अधीन हो सकेगी।

(3) इस धारा के अधीन अपील में अन्तर्वलित विधि के उस सारवान प्रश्न का अपील के ज्ञापन में प्रमिततः कथन किया जाएगा।

(4) उच्च न्यायालय को यह लगे कि मामले में विधि का सारवान प्रश्न अन्तवर्जित है। तो यह विधि का प्रश्न बनायेगा।

(5) इस प्रकार बनाए गए प्रश्न पर सुनी जाएगी और प्रतिवादी को अपील की सुनवाई के दौरान में यह तर्क करने की अनुज्ञा दी जाएगी कि ऐसे मामले में ऐसा प्रश्न निहित नहीं है।

द्वितीय अपील से सम्बन्धित प्रावधानों का वर्णन |The Provisions Related to The Second Appeal

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 100 द्वितीय अपील के सम्बन्ध में उपबन्ध करती है। ध्यान रहे कि द्वितीय अपील हमेशा उच्च न्यायालय में की जाती है। सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 के माध्यम से धारा 100 में आमूल परिवर्तन कर दिया है, और पुरानी धारा 100 के स्थान पर एक नई धारा ने जन्म ले लिया है।

पुरानी धारा 100 के अन्तर्गत वे आधार दिये गये थे जिनके अधीन द्वितीय अपील की जा सकती थी। परन्तु धारा के निर्वाचन (interpretation) के द्वारा अपील का क्षेत्र विस्तार अधिक हो गया था और इस प्रकार द्वितीय अपील सम्बन्धी नियमों में अनिश्चितता आ गयी थी। उदाहरण के अपीलें इस आधार पर भी स्वीकार की जाने लगीं कि मामले में विधि और तथ्य का मिश्रित प्रश्न निहित है, या प्रमाणित तथ्यों से विधिक अनुमान निकाला जाना चाहिये या अधीनस्थ न्यायालय ने मामले को उचित तरीके से नहीं निपटाया या उचित दृष्टिकोण से नहीं देखा।

अतः यह आवश्यक था कि धारा के क्षेत्र में विस्तार को सीमित किया जाये अपील सम्बन्धी नियम में निश्चितता लायी जाये। इसी उद्देश्य से भारतीय संसद के दोनों सदनों की संयुक्त समिति, जिसे कि सिविल प्रक्रिया संहिता तथा परिसीमा अधिनियम, 1963 में निदर्शित किया गया था, ने अनुभव किया कि दूसरी अल का क्षेत्र विस्तार सीमित किया जाना चाहिये जिससे मुकदमेबाजी के खिंचने वाला समय लम्बा न खिंचता चला जाये।

अपील का आधार किसी भी वाद में दो प्रकार के विवाद्यक (issues) होते हैं:

(1) तथ्य सम्बन्धी विवाद्यक, और

(2) विधि सम्बन्धी विवाद्यक। प्रथम अपील जो धारा 96 के अन्तर्गत की जाती है उसमें डिक्री को (जिसके विरुद्ध अपील की गयी है) दोनों आधारों पर चुनौती दी जा सकती है। दूसरे शब्दों में प्रथम अपील में यह आक्षेप उठाया जा सकता है कि डिक्री में तथ्य सम्बन्धी एवं विधि सम्बन्धी त्रुटियाँ या कमियाँ हैं और अपील न्यायालय दोनों प्रश्नों (तथ्य सम्बन्धी और विधि सम्बन्धी) का निर्धारण कर सकता है।

परन्तु द्वितीय अपील में जो इस धारा (धारा 100) के अधीन की जाती है, उच्च न्यायालय तथ्य सम्बन्धी प्रश्नों का निर्धारण नहीं कर सकता। अतः हम यह कह सकते हैं कि प्रथम अपील का क्षेत्र विस्तृत होता है और द्वितीय का सीमित द्वितीय अपील का विस्तार क्षेत्र विधि के प्रश्न तक सीमित है।

द्वितीय अपील में अपीलकर्ता को यह अनुमति नहीं दी जा सकती कि वह दूसरा केस (मामला) खड़ा कर सके या दूसरा विवाद्यक (issue) उठा सके जिससे सम्बन्धित साक्ष्य मुकदमे के अभिलेख पर नहीं है। दूसरे शब्दों में अपीलकर्ता को इस नये विवाद्यक को उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती जिसके समर्थन में अभिलेख पर साक्ष्य मौजूद नहीं है। इसी प्रकार अपीलकर्ता को अपील में प्रथम बार नया तर्क (वह तर्क जो उसमें निचले न्यायालय में नहीं उठाया है, चाहे विचारण स्तर पर या अपील स्तर पर) उठाने की अनुमति सामान्यतया नहीं दी जा सकती। प्राइन्याय के तर्क को प्रथम बार द्वितीय अपील में नहीं उठाया जा सकता।

द्वितीय अपील विधि के प्रश्न पर होती है। प्रतिकूल कब्जे से सम्बन्धित अधीनस्थ न्यायालय का निष्कर्ष, एक तथ्य सम्बन्धी निष्कर्ष है। अतः उच्च न्यायालय को ऐसे निष्कर्ष पर हस्तक्षेप करने की कोई अधिकारिता प्राप्त नहीं है। तथ्य और विधि सम्बनधी मिश्रित प्रश्नों को प्रश्न बार अपील में उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

दुर्गा चौधरानी वनात जवाहर सिंह के बाद में प्रिवी कौन्सिल ने निर्णय दिया कि तथ्य सम्बन्धी निर्णय चाहे वह निर्णय घोर गलत ही क्यों न हो के आधार पर द्वितीय अपील ग्रहण करने की अधिकारिता नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने भी त्रिवी कौन्सिल के निर्णय की पुष्टि की है। वसीयतकर्ता की मानसिक स्थिति, वसीयत करते समय, क्या थी का प्रश्न तथ्य का प्रश्न है और इसे अपील में प्रथम बार नहीं उठाया जा सकता।

इसी प्रकार, सम्पत्ति का स्वामी, वास्तविक स्वामी है या बेनामी, तथ्य का प्रश्न है, द्वितीय अपील में इसे प्रथम बार नहीं उठाया जा सकता। परन्तु इस सर्वमान्य नियम के कुछ अपवाद भी हैं। दूसरे शब्दों में तथ्य सम्बन्धी निर्णय को भी द्वितीय अपील में चुनौती दी जा सकती है। निम्न तथ्य सम्बन्धी निर्णयों को द्वितीय अपील में चुनौती दी जा सकती है।

जहाँ प्रश्न यह है कि क्या

(1) संव्यवहार बेनामी है? या

(2) संव्यवहार बनावटी है? या

(3) संव्यवहार वास्तविक है? या

(4) संव्यवहार अनुचित प्रभाव से दूषित है? या

(5) क्या अभियोजन के लिये युक्तियुक्त और सम्भाव्य

(6) क्या वह उपेक्षा की गयी थी? या

(7) क्या वहाँ विभाजन हुआ था।

कारण है, या जहाँ प्रश्न यह है कि क्या मोचन का वाद बन्धक रखे हुये सभी भूखण्डों के बारे में संस्थित किया गया है या उसके एक अंश के बारे में, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने गुरुचरन कोइरी बनाम बीबी समसुन्निशां AIR 1994 S.C. नमक वाद में अभिनिर्धारित किया कि ऐसा प्रश्न तथ्य एवं विधि का मिश्रित प्रश्न है।

जहाँ तक कि तथ्य सम्बन्धी निष्कर्ष गलत हो, वहाँ वह अपने आप विधि का प्रश्न नहीं हो जायेगा। गलत निष्कर्ष को व्यवस्थित किया जाय या साक्ष्य को गलत तरीके से पढ़ लिया जाय या यह अनुमानों और अटकलों पर आधारित हो|

उच्चतम न्यायालय ने मधुसूदन दास बनाम नारायनी बाई AIR 1983 S.C. नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ विचारण न्यायालयों ने साक्ष्य के आंकने में (appraisal of evidence) तात्विक अनियमितता बरती है, या निष्कर्ष अग्राह्य साक्ष्य पर आधारित है या साक्ष्य की गलत व्याख्या पर (misreading) आधारित है या अनुमानों या अटकलों (conjectures and surmises) पर आधारित है, वहाँ अपीलीय न्यायालय को तथ्य सम्बन्धी निर्णयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार है।

इसी प्रकार जहाँ तथ्यों का निष्कर्ष तर्क विरुद्ध है और साक्ष्य के इकट्ठा करने और मूल्यांकन में अवचार (misconduct) किया गया है, वहाँ दूसरी अपील दाखिल की जा सकती है।

जहां निचले न्यायालय के निष्कर्ष तर्क विरुद्ध हैं, साक्ष्य पर आधारित नहीं है, या साक्ष्य के गलत बोध पर आधारित है। उच्च न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप की शक्ति प्राप्त है। साक्ष्य के आधार पर दूसरा विचार सम्भव है, वहां उच्च न्यायालय को धारा 100 के अन्तर्गत अपनी अधिकारिता के प्रयोग का अधिकार नहीं है।

इसी प्रकार जहां अधीनस्थ न्यायालय ने –

(i) तात्विक साक्ष्य की अवज्ञा की है या बिना साक्ष्य के निर्णय दिया है,

(ii) न्यायालय ने गलत तरीके से विधि का प्रयोग करते हुये प्रमाणित तथ्यों से गलत अनुमान लगाया है,

(iii) न्यायालय ने साक्ष्य का भार गलत तरीके से एक पक्ष पर डाल दिया है वहां उच्च न्यायालय को निचले न्यायालयों के एक ही निष्कर्ष (concurrent findings) की स्थिति में भी हस्तक्षेप का अधिकार है। धारा 100 के अन्तर्गत द्वितीय अपील में उच्च न्यायालय को यह अधिकारिता नहीं प्राप्त है कि वह ऐसे विवाद्यक पर विनिश्चय दे जिस पर विचारण न्यायालय में जोर नहीं दिया गया है।

संशोधित धारा 100 के अधीन अपीलें धारा 100 में उपबन्धित प्रावधानों के अनुसार उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी न्यायालय द्वारा अपील में पारित प्रत्येक डिक्री की उच्च न्यायालय में अपील हो सकेगी, यदि उच्च न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि उस मामले में विधि का कोई सारवान प्रश्न अन्तर्वलित (निहित) है।

साधारण भाषा में अब उच्च न्यायालय में वहीं द्वितीय अपील होगी जहाँ उच्च न्यायालय की राय में उस मामले में विधि का सारवान् प्रश्न (substantial question of law) निहित है। विधि का सारवान प्रश्न द्वितीय अपील की एक अनिवार्य शर्त है। जहाँ द्वितीय अपील के विरुद्ध प्रत्याक्षेप (cross objection) किया जाना है, वहाँ ऐसे प्रत्याक्षेप की अनुमति तभी दी जायेगी जब उसमें विधि का सारवान् प्रश्न अन्तर्वलित हो ।

धारा 100 के अर्थों में उच्च न्यायालय की अधिकारिता सीमित है। वह न्यायालयों में समवर्ती निष्कर्ष में तभी हस्तक्षेप कर सकती है जब अपील में विधि का सारवान् प्रश्न अन्तर्वलित हो। यह प्रश्न कि क्या प्रत्यर्थी इस बात के होते हुये भी कि वह अपीलार्थी का भाई है, प्रभुत्वकारी स्थित (dominating situation) में था? यह तथ्य का प्रश्न है। स्यमेव इससे कोई विधि का सारवान् प्रश्न नहीं उठता।

इस धारा के अधीन एकपक्षीय (ex-parte) पारित डिक्री की भी अपील उच्च न्यायालय को हो सकेगी।

अतः धारा 100 की विवेचना से यह स्पष्ट है कि द्वितीय अपील केवल वही हो सकेगी जहाँ इस मामले में विधि का सारवान् प्रश्न अन्तर्वलित हो। इस तरह अब धारा 100 के अन्तर्गत केवल एक आधार दिया गया है। अब प्रक्रिया के आधार पर घटित त्रुटि के लिये दूसरी अपील का किया जाना प्रतिबन्धित कर दिया गया है।

इस तरह अब द्वितीय अपील में उच्च न्यायालय की अधिकारिता केवल उन्हीं अपीलों तक सीमित है जिसमें विधि का सारवान प्रश्न अन्तर्वलित है। जहाँ बहुत ही महत्वपूर्ण विवाद्यक (core issue) का प्रथम अपीलीय न्यायालय ने न्याय निर्णयन नहीं किया है, वहाँ धारा 100 के अन्तर्गत विधि का सारवान प्रश्न उठता है। ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालय द्वारा संहिता की धारा 103 का अवलम्ब लेना उचित है।

उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय उमेर खान बनाम बिसमिल्ला बाई AIR 2012 SC में कहा कि उच्च न्यायालय को धारा 100 के अधीन अपील की सुनवाई की अधिकारिता का आधार ही है कि वह विधि के सारवान् प्रश्नों का सूत्रीकरण करे। उच्च न्यायालय का निर्णय स्पष्टतः अवैध है यदि एक द्वितीय अपील की सुनवाई में डिक्री और निर्णय जिसके विरुद्ध अपील की गयी है, उसे उलट दिया गया, बिना सारवान प्रश्नों का सूत्रीकरण किये।

उच्च न्यायालय को धारा 100 के अन्तर्गत अधिकारिता धारा 96 के अन्तर्गत अपील की भांति नहीं है, अपितु विधि के सारवान् प्रश्नों या विधि के उन प्रश्नों तक सीमित है जो उस डिक्री या निर्णय से जिसके विरुद्ध अपील की गयी है उत्पन्न होंगे।

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shubham yadav

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