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शिक्षा एवं दर्शन (EDUCATION AND PHILOSOPHY)
शिक्षा का दार्शनिक दृष्टिकोण से अध्ययन करना ही शैक्षिक दर्शन है जो शिक्षानीति निर्धारित करता है और शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं को दार्शनिक दृष्टिकोण से हल करने में सहायता प्रदान करता है।
शिक्षा एवं दर्शन का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Education and Philosophy)
दर्शन एवं शिक्षा ने सामाजिक समस्या का दार्शनिक रूप से चिन्तन करके जो समाधान समाज के समक्ष दिया है उसे ही “शिक्षा दर्शन” या “शैक्षिक दर्शन” की संज्ञा दी गई है। शिक्षा-दर्शन का अध्ययन, दर्शन और शिक्षा दोनों ही क्षेत्रों में करते हैं। वास्तव में शिक्षा दर्शन अन्तर्विषयक आयाम (Interdisciplinary Approach) है, जिसका प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान, शिक्षा-तकनीकी एवं शिक्षा समाजशास्त्र आदि विषयों में किया जाता है। सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, करणी-अकरणीय, ज्ञान-अज्ञान, और कर्मों आदि के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों ने जो अपने-अपने मत या विचार दिए हैं, दर्शनशास्त्र इन सभी मतों का वर्णन करता है जिसके अध्ययन से हम इस ब्रह्माण्ड में मानव-जीवन का क्या महत्व है इसे जानते हैं और मनुष्य जीवन के अन्तिम उद्देश्य को निश्चित करते हैं। उद्देश्य को निश्चित शिक्षा के माध्यम से करते हैं प्रायः सभी दार्शनिकों ने इस पर प्रभाव डाला है कि उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए शिक्षा का इसमें क्या स्वरूप होना चाहिए। यही कारण है कि दर्शन से शैक्षिक दर्शन’ का विकास हुआ। शैक्षिक दर्शन में विभिन्न दार्शनिकों ने अपने मत दिए हैं जो कि निम्न प्रकार हैं-
हेन्डरसन के अनुसार, “शिक्षा दर्शन, शिक्षा की विभिन्न समस्याओं के अध्ययन में जो दर्शन का प्रयोग है वही शिक्षा दर्शन है।”
According to Henderson, “Philosophy of education is the application of philosophy to the study of the different problems of education as well as education philosophy.”
जॉन के अनुसार, शिक्षा दर्शन सामान्य दर्शन का एक साधारण सम्बन्ध ही नहीं है, अपितु दार्शनिकों ने अब तक सही माना है कि वह दर्शन का महत्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि शिक्षा प्रक्रिया द्वारा ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।”
According to John Dewey, “The philosophy of education is not a poor relation of general philosophy though it is so treated even by philosophers. It is ultimately the most significant phase of philosophy for it is through the process of education that knowledge is obtained.”
के. एल. श्रीमाली के अनुसार, शिक्षा शास्त्री का कार्य देश के दर्शन की पुनर्रचना करना और मूल्यों को पुनः परिभाषित करना है, जिससे कि वे मूल्य हमारे परिवर्तनशील जीवन एवं विचार का स्पष्टीकरण कर सकें।”
According to K.L. Shrimali, “The task of the educationists is to re-construct the country’s philosophy and to redefine values so that they may interpret our changing life and thoughts.”
शिक्षा-दर्शन के क्षेत्र (Scope of Philosophy of Education)
शिक्षा दर्शन में शिक्षा और दर्शन आपस में अन्तःसम्बन्धित होते हैं। शिक्षा दर्शन के अन्तर्गत् शिक्षा की प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाली समस्याओं को दार्शनिक विधियों एवं दृष्टिकोणों से समाप्त करने का प्रयास किया जाता है। इन समस्याओं को दूर करके विशेष दार्शनिक परिणामों एवं निष्कर्षो को प्राप्त किया जाता है। शिक्षा में उत्पन्न होने वाली समस्याएँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं जैसे- शिक्षा का उद्देश्य क्या हो, उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु क्या पाठ्यक्रम बनाया जाए, शिक्षा का लक्ष्य क्या है, शिक्षा एवं समाज का क्या सम्बन्ध है, शिक्षा की प्रक्रिया में विद्यालय का क्या स्थान है एवं लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कौन सी शिक्षण विधियाँ हो इत्यादि । शिक्षा शास्त्र में इन समस्याओं हेतु वैज्ञानिक विधि का प्रयोग होता है जबकि शिक्षा दर्शन में दार्शनिक विधियाँ अपनायी जाती हैं। इस प्रकार शिक्षा दर्शन के क्षेत्र को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-
(1) मानव प्रकृति (Human Nature) – प्राचीन काल से मानव के विषय में अनुसंधान होते रहे है। बालक के सर्वागीण विकास के रूप में मानव क्या है ये बात शिक्षा के लक्ष्य की व्याख्या पर आधारित है। सर्वांगीण विकास के क्रम में शिक्षा का लक्ष्य मात्र बाह्य आकार प्रदान करना है। मानव प्रकृति में यह जानना आवश्यक है कि उसमें कौन-कौन तत्व हैं एवं उसमें किस सीमा तक संशोधन या परिवर्तन किए जा सकते हैं। शिक्षा में अधिगम के विषय, अधिगम की सीमाएँ, अधिगम की उपयुक्त आयु आदि प्रमुख प्रश्नों के उत्तर निहित होते हैं। मानव विकास की अवस्थाओं को ध्यान में रखकर शिक्षा के उद्देश्य पाठ्य वस्तु एवं शिक्षण विधियाँ निर्धारित होनी चाहिए।
(2) शिक्षा के आदर्श (Ideals of Education)- बालक का सामाजिक विकास इस प्रकार होना चाहिए कि वह जनतन्त्रीय समाज में रहकर जनतन्त्रीय आदर्शो का अनुसरण कर सके। शिक्षा का आदर्श उद्देश्य बालक में नकारात्मक प्रवृत्तियों के स्थान पर वांछित प्रवृत्तियों का विकास करना है। शिक्षा के माध्यम से बालक अपनी कल्पना के आदर्श को समाज में रहकर समायोजित करते है। प्राचीन काल से आज तक पूर्वी शिक्षा दार्शनिकों एवं पाश्चात्य शिक्षा दार्शनिकों ने शिक्षा के लक्ष्य को मानव की विभिन्न अवस्थाओं का पूर्ण विकास माना है। सामाजिक दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति पर सामाजिक नियन्त्रण स्थापित करना है। जिसके माध्यम से समाज की संस्कृति, मूल्य, सभ्यता, आदर्श एवं परम्पराएँ सुरक्षित रहती हैं।
(3) शैक्षिक मूल्य (Educational Values) – शिक्षा दर्शन में शैक्षिक मूल्यों पर विशेष रूप से जोर दिया जाता है। दर्शन में विशेषतः मूल्यों को प्राथमिकता दी जाती है जबकि विज्ञान तथ्यों की विवेचना पर बल देता है। शिक्षा के अन्तर्गत् पाठ्यक्रम शिक्षा प्रणाली एवं अन्य महत्वपूर्ण विषयों के चुनाव में शैक्षिक मूल्यों का ध्यान रखना आवश्यक होता है। शैक्षिक मूल्यों से ही शिक्षा के अहम् लक्ष्य निर्धारित किए जाते है।
(4) शिक्षा और राज्य (Education and State)- शिक्षा दर्शन में शिक्षा एवं राज्य या राजनीति से सम्बन्धित विषयों की विवेचना की जाती है। विभिन्न समाजों के भिन्न-भिन्न राजतन्त्र है जैसे- अधिनायकवाद, सामंतवाद आदि। इनमें से जनतन्त्र अत्यधिक प्रचलित है क्योंकि इसमें व्यक्ति के महत्व एवं मानवीय मूल्यों पर अधिक बल दिया जाता है। कल्याणकारी राज्य का कर्तव्य जनता को शिक्षा प्रदान करना है। इसी तथ्य पर शिक्षा एवं राज्य का घनिष्ठ सम्बन्ध आधारित है राज्य एवं शिक्षा के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न शिक्षा दर्शन प्रस्तुत किए हैं।
(5) शिक्षा एवं ज्ञान का सिद्धान्त (Theory of Knowledge and Education) – शिक्षा के द्वारा ज्ञान देने का कार्य किया जाता है। शिक्षा-दर्शन में विभिन्न दार्शनिकों ने ज्ञान के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किए हैं जैसे- ज्ञान क्या है, इसकी कसौटी क्या है? इसकी सीमाएँ क्या हैं, असत्य क्या है, सत्य क्या है, ज्ञान प्राप्ति के साधन कौन से है एवं क्रिया अथवा बुद्धि का ज्ञान में क्या महत्व या स्थान है आदि। इन सभी का शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान है। इसीलिए इन सबका अध्ययन हम शिक्षा दर्शन के अन्तर्गत करते है।
(6) शिक्षा एवं आर्थिक व्यवस्था (Education and Economics System) – आर्थिक दृष्टि से वही शिक्षा व्यवस्था उपयुक्त होती है जिससे व्यक्ति के सामर्थ्य में इस प्रकार विकास हो कि प्रत्येक व्यक्ति की सामर्थ्य सामाजिक विकास के लिए उपयोगी सिद्ध हो सके क्योंकि समाज की शिक्षा व्यवस्था का उसकी आर्थिक व्यवस्था से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। शिक्षा व्यवस्था से ही समाज में आर्थिक वर्गों के स्वरूप निर्धारित किए जाते हैं। वर्तमान समय में साम्यवादी एवं पूँजीवादी समाजों में विभिन्न आर्थिक दर्शनों के कारण भिन्न-भिन्न शिक्षा दर्शन प्रस्तुत किए गए है।
(7) शिक्षा एवं सामाजिक प्रगति (Education and Social Progress) – शिक्षा दर्शन पर सामाजिक प्रगति की धारणा से भी विस्तृत प्रभाव पड़ता है। सामाजिक प्रगति को लेकर विभिन्न दार्शनिकों में मतभेद दिखाई पड़ता है जैसे- सामाजिक प्रगति क्या है, क्या वह निरन्तर होती है, उसकी कसौटी क्या है एवं सामाजिक प्रगति में शिक्षा का क्या स्थान है ? इत्यादि ।
(8) विद्यालय में शिक्षा का स्थान (Place of Education in School) – विद्यालय का शिक्षा व्यवस्था में क्या स्थान है शिक्षा दर्शन की यह समस्या है। कुछ दार्शनिक शिक्षा को विद्यालय तक ही सीमित मानते हैं जबकि शिक्षा को व्यापक अर्थों में लेने वाले शिक्षा दार्शनिकों ने विद्यालय से इतर समाज एवं परिवार में शिक्षा को अधिक महत्वपूर्ण माना है। शिक्षा दार्शनिकों में विद्यालय की व्यवस्था, आय-व्यय के स्रोत, पाठ्यक्रम एवं प्रबन्ध इत्यादि अनेक बातों को लेकर विवाद होता रहा है।
इस प्रकार हम देखते है कि उपर्युक्त सभी बातों का अध्ययन हम शिक्षा दर्शन के अन्तर्गत करते है। अतः यही शिक्षा दर्शन का क्षेत्र है।
भारतीय शिक्षा एवं दर्शन की विशेषताएँ (Characteristics of Philosophy and Education)
मानव जीवन के कल्याण के लिए शिक्षा-दर्शन की आवश्यकता एवं महत्व का ज्ञान एक शिक्षक के लिए अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा-दर्शन के ज्ञान के बिना एक शिक्षक बिना बैसाखी के पंगु के समान होता है। शिक्षा दर्शन से ही एक शिक्षक को ब्रह्माण्ड और समस्त मानव स्वरूप का बोध होता है। शिक्षा दर्शन से शिक्षक को शैक्षिक चरणों को समझने तथा उनमें आने वाली समस्याओं को दूर करने का ज्ञान प्राप्त होता है। शिक्षा के विकास में शिक्षा दर्शन की विशेषता को हम निम्न बिन्दुओं से प्रदर्शित कर सकते हैं-
(1) शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education) – इस संसार में प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई उद्देश्य जरूर निहित होता है। इसी क्रम में शिक्षा के भी अपने उद्देश्य होते हैं जो विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होते हैं। शिक्षा दर्शन के बिना शिक्षा के उददेश्यों की कल्पना करना कठिन प्रतीत होता है। शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षक को शिक्षा दर्शन का ज्ञान होना आवश्यक है। विभिन्न दार्शनिकों के भिन्न-भिन्न विचारों को ध्यान में रखकर ही शिक्षक शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त कर सकता है। अतः शिक्षा के उददेश्यों की प्राप्ति में शिक्षा दर्शन आवश्यक एवं महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
(2) पाठ्यचर्या (Curriculum)- शिक्षा के उदद्देश्यों की प्राप्ति के लिए रुचिपूर्ण, व्यवस्थित और प्रभावशाली पाठ्यचर्या की आवश्यकता होती है। शैक्षिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये पाठ्यक्रम का अपना विशेष स्थान होता है। उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्धारण करना चाहिए। एक अच्छे एवं प्रभावशाली पाठ्यक्रम के निर्धारण में दर्शन की महती भूमिका है। शिक्षक को विभिन्न दर्शनों को ध्यान में रखकर ही पाठ्यचर्या का चुनाव चाहिए। क्योंकि प्रत्येक दर्शन किसी एक खास पहलू पर बल देता है। अतः शिक्षा दर्शन की आवश्यकता एवं महत्व को ध्यान में रखते हुए ही पाठ्यक्रम का निर्धारण होना चाहिए।
(3) शिक्षण विधियाँ (Methods of Teaching) – बिना शैक्षिक लक्ष्यों को जाने शिक्षण विधियों का चुनाव सम्भव नहीं है। शिक्षक को शिक्षण विधि निर्धारण से पूर्व शिक्षा दर्शन का ज्ञान होना आवश्यक है। विभिन्न दार्शनिकों के द्वारा निर्मित शिक्षण विधियों के ज्ञान से शिक्षक तय कर पाता है कि विद्यार्थी को कब और किस प्रकार पढ़ाना चाहिए। शिक्षा दर्शन के ज्ञान से ही शिक्षक उचित शिक्षण विधियों का चुनाव कर पाता है। शिक्षक के द्वारा अपनायी जाने वाली शिक्षण विधियाँ विद्यार्थियों के अनुरूप होने से शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव हो पाती है।
(4) अनुशासन (Discipline)- शिक्षा प्राप्ति में विद्यार्थियों का अनुशासित होना उनके लक्ष्यों की प्राप्ति को सुगम बनाता है। शिक्षा दर्शन में शिक्षक विभिन्न दार्शनिकों के द्वारा अनुशासन और उससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं को दूर करने हेतु उनके विचारों को आत्मसात् करता है। शिक्षा में अनुशासन की महत्ता को समझते हुए शिक्षक उसके सही रूप को ध्यान में रखकर उसके प्रयोग की विधियों को शिक्षा दर्शन के अनुसार निर्धारित करता है। सामाजिक अनुशासन, प्रभावात्मक अनुशासन, मुक्त्यात्मक अनुशासन एवं दमनात्मक अनुशासन, ये सभी शिक्षा दर्शन के ही अंग हैं। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षा दर्शन की अनुशासन में भी महत्वपूर्ण उपयोगिता है।
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