
शिक्षा का माध्यम मातृभाषा में होनी चाहिए। (Medium of education should be in mother languge )
बालक को मातृभाषा के माध्यम के द्वारा ही शिक्षा दी जानी चाहिए। मातृभाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया जाए, इसके कुछ और कारण भी हो सकते हैं। उनमें से कुछ नीचे दिए जा रहे हैं-
(1) सांस्कृतिक कारण
प्रत्येक बालक एक विशेष सांस्कृतिक वातावरण में उत्पन्न होता है। मातृभाषा उस वातावरण का एक महत्त्वपूर्ण भाग तथा अभिव्यक्ति का साधन है। मातृभाषा के द्वारा ही बालक इस सांस्कृतिक वातावरण को ग्रहण करता है। बालक के प्रारंभिक विचारों को बनाने में मातृभाषा का बड़ा हाथ है। अपने संस्कृतिक वातावरण से भिन्न, किसी भी ऐसे नये विचार को ग्रहण करने में वह असमर्थ होगा, जिसकी अभिव्यक्ति उसकी मातृभाषा में नहीं हो सकती। यदि विदेशी भाषा का सम्बन्ध ऐसी संस्कृति से है, जा उसको संस्कृति से मिलती-जुलती है; जैसे-अंग्रेज बालक के लिए फ्रेंच संस्कृति, तब तो नई भाषा को सीखते समय, बालक को केवल भाषा सम्बन्धी कठिनाई होगी। परन्तु यदि विदेशी भाषा का सम्बन्ध एक ऐसी संस्कृति से हो, जो उसकी संस्कृति से सर्वथा भिन्न हैं: जैसे-भारतीय बालक के लिए अंग्रेजी संस्कृति, तब उस भाषा को सीखने में बालक की कठिनाइयाँ बढ़ जाएँगी बालक का सम्बन्ध न केवल नई भाषा से ही होगा, अपितु नये विचारों से भी। यही बात बड़े लोगों के लिए भी लागू होती है।
किसी भी विदेशी भाषा को सीखते समय, विदेशी शब्दावली पर अधिकार प्राप्त करना तथा उसमें अपने विचारों को अभिव्यक्त करना, बालक के लिए बड़ा कठिन होता है। जब विदेशी भाषा का सम्बन्ध एक भिन्न संस्कृति से होता है, तब बालक की कठिनाइयाँ और भी बढ़ जाती हैं उसे न केवल सर्वथा नवीन विचारों को मातृभाषा में प्रकट करना होता है, अपितु अपने विचारों और भावों को एक विदेशी भाषा में अभिव्यक्त करना होता है। उन विचारों एवं भावों को, जिनका सम्बन्ध एक भाषा के साथ हो गया है, दूसरी भाषा में रूपान्तर करना अत्यन्त कठिन होता है। यदि किसी व्यक्ति को हर समय यही करना पड़ेगा तो वह अपने आपको ठीक प्रकार से अभिव्यक्त नहीं कर सकेगा और यदि यही कार्य एक बालक को उस अवस्था में करना पड़े, जबकि वह मातृभाषा में भी अपने आप को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता, तो वह कभी भी अपने आप को ठीक प्रकार से अभिव्यक्त नहीं कर सकेगा।
(2) शैक्षणिक कारण
शैक्षणिक आधार पर भी यह कहा जाता है कि विद्यालयों में मातृभाषा ही शिक्षा का माध्यम रहनी चाहिए। मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने से आज घर और पाठशाला में जो अन्तर दिखाई देता है, वह नहीं रहेगा।
जब बालक घर से पाठशाला जाने लगता है तो उसे एक बिल्कुल नवीन वातावरण मिलता है, जो घर से भिन्न होता है। अब तक तो वह घर में अपने थोड़े से भाई-बहनों के साथ रहना था, जहाँ उसे हर समय अपनी माँ का स्नेह प्राप्त था। परन्तु वह अध्यापक के अधीन एक बड़े समूह में आ जाता है। अब वह अपनी इच्छानुसार भाग नहीं सकता, खेल नहीं सकता, बोल नहीं सकता। उससे यह आशा की जाती है कि वह चुपचाप शान्त होकर बैठा रहे। उसे जैसे कहा जाए, वैसा वह करे। जो प्रश्न उससे पूछे जाएँ, उन्हीं का वह उत्तर दे। उसके सामने नये-नये विचार तथा नई-नई बातें आती हैं और उसे इसका प्रमाण देना होता है कि उसने इन नये विचारों को नई बातों को जल्दी से जल्दी ग्रहण कर लिया है। प्रत्येक बात बालक को घर से भिन्न मिलती है और यदि कभी-कभी हम यह देखते हैं कि बहुत से चालक अपने आप को इस नवीन वातावरण के अनुकूल बनाने में असमर्थ पाते हैं, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं और यदि भाषा भी जिसमें यह सब नई बातें रखी जाती हैं, उसकी मातृभाषा से भिन्न हैं तो बालक की कठिनाइयाँ कितनी बढ़ जाएँगी, इसका अनुमान हम भली-भाँति लगा सकते हैं।
यदि बालक का पाठशाला में आते हुए बहुत समय हो भी जाए, फिर भी उसे भिन्न-भिन्न विषयों में ढेर सारे पाठ पढ़ने होंगे। वह भूगोल अथवा इतिहास का पाठ सरलता से समझ सकेगा, यदि वह उसकी मातृभाषा में पढ़ाया जाता है। दूसरी भाषा के माध्यम से इन विषयों में पढ़ाने में बालक पर भार बढ़ जाएगा और उसकी प्रगति अत्यन्त धीमी होगी।
जिस भाषा का व्यवहार बालक अपने घर में करता है, उसमें शिक्षा देने से घर और पाठशाला का सम्बन्ध निकट का बनाया जा सकता है। जो कुछ बालक पाठशाला में पढ़ेगा, उसका प्रयोग वह घर में कर सकता है। इसके अतिरिक्त माता-पिता भी पाठशाला की समस्याओं को अधिक अच्छी प्रकार से समझ सकेंगे और बालक की शिक्षा में पाठशाला को कुछ योगदान दे सकेंगे।
गाँधीजी–‘“मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है, जितनी कि बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढ़ता है, इसलिए उसके मानसिक विकास के लिए उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त, कोई दूसरी भाषा लादना मैं ‘मातृभाषा’ के विरुद्ध पाप समझता हूँ।”
प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक तथा विचारक ‘ब्रेल्सफोर्ड’– “केवल एक ही भाषा में हमारे भावों की व्यंजना हो सकती है; केवल एक ही भाषा के शब्दों के सूक्ष्म संकेतों को हम सहज और निश्चित रूप में ग्रहण कर सकते हैं। यह भाषा वह होती है जिसे हम अपनी माता के दूध के साथ सीखते हैं, जिसमें हम अपनी प्रारम्भिक प्रार्थनाओं और हर्ष तथा शोक के उद्गारों को व्यक्त करते हैं । दूसरी किसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना – विद्यार्थी के श्रम को अनावश्क रूप से बढ़ाना ही नहीं, अपितु उसके मस्तिष्क की स्वतन्त्र गति को पंगु बना देना है।”
हींग समिति-“हम से बहुत मनुष्यों ने कहा है कि मातृभाषा में शिक्षा पाने वाला विद्यार्थी शुरू-शुरू में अपनी कमजोरी के कारण भले ही पिछड़ जाता हो, लेकिन क्योंकि मातृभाषा के द्वारा सामान्य विषयों में उनकी गति अधिक तीव्र हो जाती है, इसलिए अन्त में वह ऐंग्लो- वर्नाक्यूलर स्कूल के लड़कों से आगे निकल जाता है।”
डॉ. ऐनी बेसेण्ट-“मातृभाषा द्वारा शिक्षण के अभाव ने भारत को निश्चय ही, विश्व के सभ्य देशों में, अत्यन्त अज्ञानी बना दिया है। यहाँ उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की संख्या काई भर है और अशिक्षितों की अपार जल-राशि।”