B.Ed./M.Ed.

शिक्षा के उद्देश्य को प्रभावित करने वाले कारक

शिक्षा के उद्देश्य को प्रभावित करने वाले कारक

मैकमारिन का कथन है— “शिक्षा के प्रयोजनों या उद्देश्यों को ब्रह्माण्डीय सिद्धान्तों से निगमित नहीं किया जा सकता, न ही उन्हें उन निरपेक्ष मूल्यों के एक समवाय के रूप में स्थापित किया जा सकता है जो शाश्वत रूप से किसी अफलातूनी स्वर्ग में परिरक्षित हों। वे उद्देश्य तात्त्विक विचारों से असंगत नहीं हैं और वे निश्चय ही नीति-दर्शन तथा मूल्य सिद्धान्तों के तत्त्वों के साथ घनिष्ठतः अन्तर्ग्रस्त हैं और कुछ मामलों में उनके समरूप हैं किन्तु उन्हें दार्शनिक सिद्धान्त से व्युत्पन्न करने के प्रयास तब तक ऐसी कोई चीज उत्पन्न नहीं कर सकेंगे जो वास्तव में सिद्धान्तों के एक समवाय के रूप में जीवनक्षम तथा संगीत हो जब तक कि उस सिद्धान्त का व्यक्तिगत तथा सामाजिक अनुभव के तथ्यों के साथ, व्यक्तियों की आवश्यकताओं, रुचियों तथा आशा-आकांक्षाओं के साथ, समाज की सफलताओं, असफलताओं तथा उद्देश्यों के साथ स्थापित व्यक्तिगत तथा सामाजिक मूल्यों और उन मूल्यों की आलोचना के साथ सार्थक सम्बन्ध स्थापित किया जाये । “

उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समाज में शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण दार्शनिक सिद्धान्तों के साथ-साथ व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकताओं, आकांक्षाओं, मूल्यों आदि कारकों को आधार बनाकर किया जाता है। इन कारकों को निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है-

शिक्षा के उद्देश्य को प्रभावित करने वाले कारक

शिक्षा के उद्देश्य को प्रभावित करने वाले कारक

शिक्षा का जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होनें के कारण शिक्षा के उद्देश्य वास्तविक जीवन पर आधारित होते हैं। जीवन के विभिन्न पक्षों के फलस्वरूप उपर्युक्त रेखाचित्र में वर्णित कारक शिक्षा के उद्देश्यों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं । इनका संक्षिप्त विवेचन नीचे दिया जा रहा है—

जैविक कारक (Biological Factors) — जैविकीय दृष्टि से व्यक्ति एक बौद्धिक प्राणी है। इस कारण उसे अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ माना जाता है परन्तु मूलत: वह पशु के समान होता है। शिक्षा द्वारा उसे सुसंस्कृत बनाया जाता है । अतः शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करते समय उसके मूल स्वभाव तथा विशेषताओं का ध्यान रखना चाहिए। व्यक्ति का जैविकीय पक्ष वह आधार है जिसको शिक्षा द्वारा सामाजिक, सांस्कृतिक तथा नैतिक अस्तित्व की ओर उन्मुख किया जाता है ।

दार्शनिक कारक (Philsophical Factors)- व्यक्ति जीवन को अपने दृष्टिकोण अनुकूल व्यतीत करता है । जीवन के प्रति व्यक्ति का दृष्टिकोण उसके जीवन दर्शन का के निर्माण करता है। जो दृष्टिकोण सुसंगत होता है वह जीवन दर्शन बन जाता है। जीवन दर्शन शिक्षा के उद्देश्यों का प्रमुख आधार है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार का हमारा जीवन का दृष्टिकोण होगा, उसी प्रकार के शैक्षिक उद्देश्य हमारे द्वारा निर्धारित किये जायेंगे। ड्यूवी ने लिखा है, “दर्शन शिक्षा के साध्यों को निर्धारित करने से सम्बन्धित है।”

समाज के दर्शन की शिक्षा के लक्ष्यों के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के अनुकूल शिक्षा के विभिन्न उद्देश्य रहे हैं, उदाहरणार्थ-

1. आदर्शवाद (Idealism) — आदर्शवादी विचारधारा में सामान्य तथा सार्वभौम लक्ष्य देखने को मिलते हैं। इनमें धार्मिक नैतिक तथा आध्यात्मिक आदर्शों को शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें मानव व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास पर बल दिया जाता है ।

2. जड़वाद (Materialism) – यह विचारधारा शिक्षा में मानव के शारीरिक तथा मानसिक विकास पर बल देती है।

3. यथार्थवाद (Realism) – यह शिक्षा प्रौद्योगिक, आर्थिक तथा वैज्ञानिक विकास पर बल देती हैं।

4. प्रयोजनवाद (Pragmatism) — यह विचारधारा बहुतत्वादी है। इनके अनुसार शिक्षा द्वारा प्रत्येक व्यक्ति की सामथ्र्य तथा प्रवृत्तियों के विकास पर बल दिया जाता है।

5. लोकतंत्र (Democracy)- यह विचार इस तथ्य पर आधारित है कि मानव व्यक्तित्व अनन्त मूल्य का है। अतः इसके द्वारा शिक्षा के निम्नांकित उद्देश्यों पर बल दिया जाता है-

(i) मानव व्यक्तित्व के प्रति सम्मान उत्पन्न करना ।

(ii) व्यक्ति की व्यावसायिक कुशलता का विकास ।

(iii) सामाजिक दृष्टिकोण का विकास ।

(iv) चरित्र का विकास

(v) नागरिकता का विकास।

6. फासीवाद (Fascism) — यह विचारधारा व्यक्ति को साधन तथा राज्य को साध्य मानती हैं । अतः यह राज्य को सर्वाधिकार प्रदान करती है। अतः यह शिक्षा द्वारा व्यक्तियों को राज्य के लिए तैयार करने पर बल देती है।

7. समाजवाद (Socialism)— यह विचारधारा समानता पर अधिक बल देती है। अतः यह शिक्षा द्वारा सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए कार्य करती है ।

मनोवैज्ञानिक आधार (Psychological Basis)—शिक्षा के उद्देश्यों द्वारा व्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करना आवश्यक है। ये आवश्यकताएँ एकांगी न होकर विविध प्रकार की होती हैं। इन विविध आवश्यकताओं को निम्नांकित आरेख द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा है-

मनोवैज्ञानिक आधार

मनोवैज्ञानिक आधार

व्यक्ति की आवश्यकताओं के आधार पर निम्नांकित उद्देश्यों का निर्धारण किया जा सकता है—

(i) शारीरिक विकास (Physical Development),

(ii) मानसिक या बौद्धिक विकास (Mental or Intellectual Development),

(iii) संवेगात्मक विकास (Emotional Development),

(iv) चारित्रिक विकास (Character Development),

(v) आध्यात्मिक विकास (Spiritual Development),

(vi) व्यावसायिक उद्देश्य या आर्थिक कुशलता का विकास (Vocational Aim or Development of Economic Efficiency),

(vii) सामाजिक कुशलता या उत्तम नागरिकता का विकास (Development of Social Efficiency or Good Citizenship),

(viii) सांस्कृतिक विकास (Cultural Development),

(ix) राष्ट्रीय विकास (National Development),

(x) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का विकास (Development of Internatioinal Understanding) ।

समाजशास्त्रीय या सामाजिक विकास (Sociological Factors)—– कार्ल मैनहीम (Karl Mannheim) का मत है, “मानव इतिहास की संचालक शक्ति (Moving Force) है, वही समस्त मूल्यों का स्रोत तथा समस्त घटनाओं का प्रारम्भकर्त्ता है। वह ऐसा तभी करता है जब वह समाज में रहता है। इस प्रकार व्यक्ति दो जगतों व्यक्तिगत तथा सामाजिक में निवास करता है ।” इन दोनों प्रकार के जगतों में जीवन-यापन करने के लिए उसमें कुछ गुणों का विकास होना आवश्यक है। इन गुणों के विकास हेतु शिक्षा के सामाजिक उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। दूसरे शब्दों में शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण के लिए समाज को आधार बनाना आवश्यक है।

व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है । मनोवैज्ञानिक इस तत्त्व को सामूहिकता की मूल प्रवृत्ति (Instinct of Gregariousness) के रूप में देखते हैं। समाज में व्यक्ति का जन्म होता है, समाज में उसका पालन-पोषण होता है, समाज में उसकी शिक्षा-दीक्षा होती है, समाज में रहकर उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, समाज में उसकी उन्नति होती है । अत: समाज की आवश्यकता, माँग, आदर्श आदि को आधार बनाकर शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करना आवश्यक है, तभी हम व्यक्ति को एक सामाजिक रूप से कुशल व्यक्ति बनाने में समर्थ हो सकते हैं । समाज को आधार बनाकर शिक्षा के निम्नांकित उद्देश्य बनाये जा सकते

(i) सामाजिक कुशलता का विकास (Development of Social Efficiency)

(ii) कुशल नागरिकता का विकास (Development of Efficient Citizenship)

(iii) सामाजिक गुणों का विकास (Development of Social Qualities)

(iv) संस्कृति का संरक्षण एवं हस्तान्तरण (Preservation and Transmission of Culture)

(v) अन्तर-सांस्कृतिक भावना का विकास (Development of Inter-Cultural Understanding)

(vi) सामाजिक प्रगति (Social Progress) आदि ।

आर्थिक कारक (Economic Factors) – समाज की आर्थिक दशाएँ उसकी शिक्षा के स्वरूप तथा उसके उद्देश्यों के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। प्रत्येक देश की उत्पादन की मात्रा, वितरण की पद्धति तथा आर्थिक व्यवस्था वहाँ की शिक्षा पर गहन प्रभाव डालती है। उत्पादन की मात्रा यह निश्चित करती है कि शिक्षा पर कितनी धनराशि व्यय की जानी सम्भव है वितरण की पद्धति आर्थिक व्यवस्था का सुसंगठन ही नहीं करती वरन् सामाजिक एकता की स्थापना भी करती है। आर्थिक व्यवस्था के लिए समय एवं सुविधाएँ प्रदान करती । साथ ही विभिन्न प्रकार की शिक्षा के लिए अवसर प्रदान करती है । शिक्षा के स्वरूप तथा उसके द्वारा समाज की माँगों की पूर्ति हेतु शिक्षा के उद्देश्यों के निर्माण में आर्थिक दशाएँ आधार के रूप में कार्य करती हैं। आर्थिक आधार के फलस्वरूप आज विशेषीकरण पर अधिक बल दिया गया है। विशेषीकरण के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए उपर्युक्त कार्यकर्त्ताओं के प्रशिक्षण के लिए शिक्षा के उद्देश्यों को बनाया गया।

वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिक कारक (Scientific and Technological Fac tors)— विज्ञान की प्रगति ने वैज्ञानिक आधार पर अधिक बल दिया है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास ने सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके फलस्वरूप समाज में औद्योगीकरण (Industralization) तथा नगरीकरण (Urbanization) को जन्म मिला। औद्योगीकरण ने शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। साथ ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आधार ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को तीव्र गति प्रदान की है, जिसने समाज को प्रगतिशील बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण में प्रौद्योगिकी प्रगति का स्थान महत्त्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ प्रौद्योगिकी रूप से पिछड़े हुए देश में शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य-विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा देने से हो सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जो देश प्रौद्योगिक प्रगति कर चुके हैं, वे ऐसा न करें। वस्तुतः वे ऐसा अधिक प्रौद्योगिक प्रगति के लिये करते हैं। आज अमेरिका, इंग्लैण्ड, रूस, जापान सभी ऐसा कर रहे हैं।

हमारा देश प्रौद्योगिकी और प्राविधिक प्रगति में पीछे होने के कारण पश्चिमी देशों के पद-चिह्नों पर चल रहा है और ऐसी प्रगति करने का पूरा-पूरा प्रयत्न कर रहा है। इसको ध्यान में रखकर ही ‘माध्यमिक शिक्षा आयोग’ ने सिफारिश की है- “शिक्षा का उद्देश्य-तकनीकी प्रशिक्षण के लिये विस्तृत सुविधाएँ प्रदान करना होना चाहिये ।” “The aim of education should be to spread widely the facilities for tech nical training.”

नैतिक कारक (Ethical Factors ) — “शिक्षा एक सोद्देश्य तथा नैतिक क्रिया है।” अतः उद्देश्यों के अभाव में उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। वस्तुतः शिक्षा एक प्रक्रिया है जो आजीवन चलती रहती है, कभी ज्ञात रूप से तो कभी अज्ञात रूप से। शिक्षा की यह प्रक्रिया उद्देश्य सहित चलती है। प्रत्येक छोटी-से-छोटी बात का कुछ उद्देश्य होता है । शिक्षा के क्षेत्र में इस उद्देश्य का सद् और हितकर होना आवश्यक है। सद् तथा हितकर का निर्धारण नैतिक कारक द्वारा किया जाता है ।

सांस्कृतिक कारक (Cultural Factors)- प्रत्येक समाज की अपनी विशेष संस्कृति होती है । उनके विशेष आदर्श, मूल्य, प्रतिमान, मान्यताएँ, रीति-रिवाज, पीढ़ियों तथा जीवनशैली होती है। नई सन्तति को उसमें ढालना शिक्षा का एक उद्देश्य माना जाता है । अतः शिक्षा समाजीकरण का अभिकरण या साधन होता है। सोरोकिन (Sorokin) नामक समाजशास्त्री के अनुसार संस्कृति के तीन भेद होते हैं-

(अ) विचार प्रधान संस्कृति ( Ideational culture)

(ब) आदर्श प्रधान संस्कृति ( Idealistic culture)

(स) इन्द्रिय प्रधान या कामुक संस्कृति (Sensate culture)

उपर्युक्त तीनों प्रकार की संस्कृति की शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आज की शताब्दी (21वीं शताब्दी) की संस्कृति इन्द्रिय प्रधान संस्कृति (Sensate culture) है जिसमें भोगवाद, इन्द्रिय सुख, यौन सन्तुष्टि, फैशनपरस्ती, धन समस्त वस्तुओं का मापदण्ड आदि इस संस्कृति की विशेषता है। इनका शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है।

पर्यावरणीय कारक (Ecological Factors)- भोगवादी प्रकृति ने पर्यावरण को दूषित बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। लोगों की संतुष्टि के लिये जंगलों को बेतहाशा रूप से काटा जा रहा है, खनिजों को निकाला जा रहा है। नदियों में कल-कारखानों की गन्दगी को डाला जा रहा है। इन समस्त कारकों ने ओजोन परत में छेद कर दिया है जिसके कैंसर जैसी भयंकर बीमारी बढ़ी है। पर्यावरण कारक शिक्षा के उद्देश्यों को प्रभावित कर रहा है।

ऐतिहासिक तथा राजनैतिक कारक (Historical and Political Factors)— शिक्षा के उद्देश्यों के निर्धारण में देश की ऐतिहासिक परम्पराएँ तथा उसका दर्शन महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है जे० एफ० ब्राउन का कथन है- “किसी भी देश की और सभी युगों की शिक्षा, शासक वर्ग की विशेषताओं को व्यक्त करती है। “

“Education in any country and at all periods reflects values of the ruling class.”

संसार का इतिहास ब्राउन के कथन का साक्षी है। स्वेच्छाचार, लोकतांत्रिक, फासिस्टवादी और कम्युनिस्ट- सभी प्रकार की सरकार अपने ध्येय को प्राप्त करने के लिये शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण करती है ।

स्वेच्छाचारी राज्य में चाहे वह राजतंत्र हो या तानाशाही, शिक्षा के वैयक्तिक पक्षों (Indiviualistic Phases) की अपेक्षा राजनीतिक पक्ष को प्रधानता दी जाती है। बालक को राज्य के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाता है। आज रूस में ऐसा ही है।

इसके विपरीत, प्रजातंत्र में शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्यों (Individual Aims) पर बल दिया जाता है। राजनीतिक और सामाजिक उद्देश्यों पर केवल उतना ही बल दिया जाता है, जितना सामाजिक एकता के लिये आवश्यक समझा जाता है। अमेरिका की शिक्षा-प्रणाली इसका प्रमाण है।

इस प्रकार, हम देखते हैं कि स्वेच्छाचारी और प्रजातंत्र राज्यों ने शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण भिन्न प्रकार से किया जाता है।

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shubham yadav

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