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शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य (Social Aims of Education)
समाज या राज्य का स्थान व्यक्ति से बहुत ऊँचा है। समाज के हित में ही व्यक्ति का हित निहित है। समाज से अलग उसका कोई अस्तित्त्व नहीं है। समाज में रहकर ही वह अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है, अपना विकास कर सकता है और उन्नति के पथ पर आगे बढ़ सकता है। जो बात व्यक्ति के बारे में सत्य है, वही समाज के बारे में भी सत्य है, समाज का निर्माण व्यक्ति करते हैं। अतः व्यक्तियों के अभाव में समाज अर्थहीन है। समाज अपनी एकता और उन्नति के लिए व्यक्तियों पर ही निर्भर है। उनके सहयोग के बिना उसकी प्रगति असम्भव है ।
इस प्रकार, व्यक्ति और समाज का अटूट सम्बन्ध है। लेकिन शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य के अनुसार इस सम्बन्ध में समाज का स्थान व्यक्ति के स्थान से ऊँचा है। व्यक्ति को अपने हित का ध्यान न रखकर समाज के हित का ध्यान रखना चाहिए। उसे आवश्यकता पड़ने पर समाज के लिए हर प्रकार का बलिदान देने के लिए तैयार रहना चाहिए।
सामाजिक उद्देश्य के रूप- शिक्षा में सामाजिक उद्देश्य के तीन रूप मिलते हैं— (i) सामान्य रूप, (ii) उग्र रूप, और (iii) उदार रूप ।
(i) सामाजिक उद्देश्य का सामान्य रूप (Simple Form of Social Aim)— जब तक मानव सामाजिक प्राणी है और समाज में सामाजिक सम्बन्धों के द्वारा जीवित रहता और विकसित होता है, तब तक उसे अपनी वैयक्तिकता को कुछ सीमा तक सामाजिक या सार्वजनिक आवश्यकताओं के अधीन रखना पड़ेगा। इसके अलावा, वह समाज की आवश्यकताओं के अनुसार अपने में परिवर्तन करेगा । फलस्वरूप, चेतन और अचेतन रूप में उसकी वैयक्तिकता का दमन होता रहेगा। यह शिक्षा में सामाजिक उद्देय का साधारण रूप है।
(ii) सामाजिक उद्देश्य का उग्र रूप (Extreme Form of Social Aim) – इसके समर्थकों का कथन है कि राज्य, व्यक्ति और उसकी आकांक्षाओं से बहुत श्रेष्ठ है। अतः राज्य को व्यक्ति से सम्बन्धित सभी बातों पर अधिकार होना चाहिए। यह निश्चित करना केवल राज्य का ही कार्य होना चाहिए कि व्यक्ति के लिए शिक्षा के विषय और विधियाँ क्या हों। ऐसा करते समय व्यक्ति के हित का ध्यान न रखकर केवल राज्य की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाना चाहिए।
(iii) सामाजिक उद्देश्य का उदार रूप (Liberal Form of Social Aim)- उदार रूप से शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य इंग्लैण्ड और अमेरिका जैसे प्रजातन्त्रीय देशों में दिखाई देता है। वहाँ ‘शिक्षा, समाज-सेवा के लिए’ और ‘शिक्षा, नागरिकता के लिए’ मानी जाती है। शिक्षा का उदार रूप हर दृष्टि से प्रशंसनीय है। अतः प्रत्येक राष्ट्र का यह कर्त्तव्य होना चाहिये कि वह अपनी शिक्षा प्रणाली को समाज के हितार्थ उदार स्वरूप प्रदान करे।
सामाजिक लक्ष्य के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Social Aim)
शिक्षा के सामाजिक लक्ष्य के पक्ष में जो तर्क दिए जाते हैं, वे इस प्रकार हैं-
(i) व्यक्ति समाज का एक अभिन्न अंग (An Individual part of Society)- व्यक्ति समाज में पैदा होता है और समाज में ही वह पलता तथा बड़ा होता है। इसलिए, व्यक्ति की तुलना में समाज को ही अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए। व्यक्ति का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं माना जाता। उसे समाज के साथ मिल-जुलकर रहना ही पड़ता है अन्यथा उसमें और पशु में अन्तर ही क्या रहेगा ।
(ii) व्यक्ति अनेक अपरिष्कृत प्रवृत्तियाँ लेकर जन्म लेता है (The Individual is born with a number of Raw Instincts)- शुरू में व्यक्ति अनेक अपरिष्कृत प्रवृत्तियाँ लेकिन पैदा होता है। समाज उसे धीरे-धीरे प्रशिक्षित करता है और वह अच्छा सामाजिक परिवेश ही होता है जो उसे ‘मनुष्य’ बनाता है। इसलिए किसी व्यक्ति पर ध्यान देने की बजाय उसके सामाजिक परिवेश पर ध्यान देने की जरूरत है ।
(iii) शिक्षा पर राजकीय नियंत्रण होता है (Education is under the control of the State)- अधिकतर राज्य ही शिक्षा के प्रकार, रूप, लक्ष्यादि का निर्धारण करता है। बालक को ‘क्या’ और ‘कैसे’ पढ़ाया जाए, इस बात का निर्णय समाज करता है, इसलिए शिक्षा का सामाजिक लक्ष्य ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा पर राजकीय नियंत्रण होने से समाज के हित में अनेक योजनाओं के कार्य रूप प्रदान किया जा सकता है जो व्यक्तिगत नियंत्रण में सम्भव प्रतीत नहीं होता ।
(iv) समाज व्यक्ति को ‘सभ्य’ बनाता है (Society makes the individual Civilised)- समाज ही व्यक्ति को नागरिकता का पाठ पढ़ाता है। इसलिए भी सामाजिक लक्ष्य का अधिक महत्त्व होना चाहिए। व्यक्ति को समाज ही बाध्य करता है कि वह सामाजिक मानकों के अनुरूप तर्क संगत व्यवहार अपनाये। कहा भी गया है कि “Man is free but always in chains.” इसीलिये कहा भी गया है कि व्यक्ति पर किसी न किसी प्रकार का आंशिक नियंत्रण अवश्य रहना चाहिये।
(v) समाज में सुरक्षा, शान्ति तथा न्याय निहित है (Security, Peace and Justice exist in Society) समाज में ही व्यक्ति को सुरक्षा, शान्ति तथा न्याय की प्राप्ति हो सकती है। इसलिए हर व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वयं से अधिक समाज को महत्त्व दे। इस प्रकार, शिक्षा का सामाजिक लक्ष्य वैयक्तिक लक्ष्य के ऊपर भारी पड़ता है। यदि समाज में सुरक्षा, शान्ति तथा न्याय निहित रहता है तभी व्यक्ति का कल्याण व राष्ट्र हित सुरक्षित रह पाते हैं।
सामाजिक उद्देश्य के विपक्ष में तर्क (Arguments against the Social Aim)
सामान्य और उदार रूप में शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य महत्त्वपूर्ण और लाभप्रद दोनों है; पर उग्र रूप से इसमें निम्नलिखित दोष मिलते हैं-
(i) अमनोवैज्ञानिक आधार (Unpsychological Basis) — शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य का आधार अमनोवैज्ञानिक है। कारण यह है कि इस उद्देश्य में बालकों की व्यक्तिगत रुचियों, प्रवृत्तियों और योग्यताओं के लिए कोई स्थान नहीं है। यह उद्देश्य सब बालकों को एक ही साँचे में ढालना चाहता है। इसका परिणाम यह होता है कि उसका स्वाभाविक विकास रुक जाता है और वे जीवन में किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर पाते हैं।
(ii) कला व साहित्य के विकास में बाधा (Hindrance in the Development of Art and Literature)- कला और साहित्य का विकास तभी सम्भव है, जब व्यक्ति को हर प्रकार की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। ऐसी परिस्थिति में ही वह विभिन्न कलाओं और साहित्य की उन्नति की बात सोच सकता है और इस दिशा में कुछ कर सकता है। सृजनात्मकता जैसे गुण का विकास व्यक्तिगत अधिक है सामाजिक कम जो व्यक्तिगत स्तर पर अधिक देखने को मिलता है
(iii) शिक्षा के साधनों का अनुचित प्रयोग (Wrong Use of the Agencies of Education)- जिस देश में राज्य या समाज के हित को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है वहाँ शिक्षा के साधनों का अनुचित प्रयोग किया जाता है और जहाँ शिक्षा के साधनों का अनुचित प्रयोग किया जाता है वहाँ शिक्षा को सही दिशा प्रदान करना असम्भव होता है। इस तथ्य का मूल्यांकन व्यक्तिगत व सामाजिक महत्व के प्रतिष्ठानों की कार्य प्रणाली में आसानी से किया जा सकता है।
(iv) समाज, मनुष्य से श्रेष्ठ नहीं (Society not above Man)- सामाजिक उद्देश्य के अनुसार, समाज को मनुष्य से श्रेष्ठ समझा जाता है, पर यह धारणा गलत है। समाज का निर्माण मनुष्यों ने अपने हित के लिए किया था, न कि अपना बलिदान करके समाज के कल्याण के लिए । समाज का अस्तित्व व्यक्तियों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए और उनको सब प्रकार की सुख-सुविधायें देने के लिए है, जिससे कि वे इस संसार में आनन्द का जीवन व्यतीत कर सकें।
(v) व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का दमन (Suppression of Individual Freedom)- शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत, इस स्वतन्त्रता का दमन करने के लिए हर प्रकार के उचित और अनुचित साधनों का प्रयोग किया जाता है जो किसी भी प्रकार से सही नहीं ठहराये जा सकते। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का हनन करना अथवा उस पर प्रतिबन्ध लगाना मनोवैज्ञानिक दृष्टि में भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। स्वतन्त्रता का हनन दासता का प्रतीक माना जाता है।
(vi) व्यावसायिकों का निर्माण (Production of Vocationists) — शिक्षा का सामाजिक उद्देश्य सामाजिक हितों का ध्यान रखकर व्यक्तियों को विभिन्न व्यवसायों की शिक्षा देना है। इससे समाज की आवश्यकताएँ तो पूरी हो जाती हैं, पर मनुष्य के व्यक्तित्व का धार्मिक, आध्यात्मिक, कलात्मक और सौन्दर्यात्मक विकास नहीं हो पाता है। इस प्रकार की मानसिकता पूँजीवाद का पोषक समझी जाती है जिसे वर्ग संघर्ष के रूप में जाना जाता है।
व्यक्तिगत एवं सामाजिक उद्देश्य एक-दूसरे के पूरक (Complimentary to Each Other)
सारांश रूप में शिक्षा के वैयक्तिक एवं सामाजिक उद्देश्यों पर प्रकाश डालने से पता चलता है कि अपने-अपने चरम रूपों में ये दोनों उद्देश्य वांछनीय नहीं हैं। कारण यह है कि जहाँ एक ओर वैयक्तिक उद्देश्य के समर्थक व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व के विकास हेतु अनियन्त्रित स्वतन्त्रता प्रदान करने का विचार प्रस्तुत करते हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक उद्देश्य के दावेदार इस विचार के पक्ष में हैं कि समाज की भलाई के लिए व्यक्ति को अपने प्राणों की बाजी लगाने में भी नहीं हिचकिचाना चाहिए। व्यक्ति को इतना उच्छृंखल बना दे कि वह अपनी मनमानी करके समाज को ठुकरा दें अथवा समाज को इतना शक्तिशाली बना देना कि वह व्यक्ति का शोषण करने लगे तथा उसे अपना दास बना ले, अच्छा आदर्श नहीं । व्यक्ति को समाज की तुलना में बड़ा समझना अथवा समाज को व्यक्ति की तुलना में अधिक महत्त्व देना उचित नहीं है। यदि इन दोनों उद्देश्यों के संकुचित रूपों को छोड़कर इनके व्यापक रूपों को स्वीकार कर लिया जाये तो इन दोनों उद्देश्यों में समन्वय बहुत ही आसानी से स्थापित किया जा सकता है ।
इसलिए किसी ने ठीक ही कहा है, ” अपने संकुचित रूप में दोनों एक दूसरे के विरुद्ध हो सकते हैं, परन्तु यदि इनके किनारों को थोड़ा मोड़ दिया जाए तो प्रकृति में वे एक-दूसरे के पूरक सिद्ध हो सकते हैं। “
उदाहरणार्थ — व्यक्ति एक पौधे की तरह होता है तथा समाज उसके लिए भूमि या मिट्टी का काम करता है। बिना अच्छी मिट्टी या भूमि के जैसे कोई पौधा नहीं बढ़ सकता वैसे ही व्यक्ति की समुचित उन्नति के लिए समाज का विकसित होना बहुत जरूरी है। जॉन एडम्स के शब्दों में “व्यक्तित्व के विकास के लिए सामाजिक आधार जरूरी है। बिना सामाजिक सम्पर्क के हम मनुष्य नहीं हो सकते।”
रॉस के अनुसार, “वैयक्तिकता का कोई मूल्य नहीं है और व्यक्तित्व का कोई अर्थ नहीं है यदि उनको उस सामाजिक परिवेश से निकाल दिया जाए जिसमें वे पलकर बड़े हुए या व्यक्त हुए। आत्म-ज्ञान भी समाज सेवा से ही प्राप्त हो सकता है और महत्त्वपूर्ण सामाजिक दर्शन भी केवल कुछ थोड़े से जागृत, स्फूर्तिवान, स्वतंत्र चेतना, स्वस्थ-समर्थ व्यक्तियों के माध्यम से पैदा होते हैं। इस प्रकार यह एक चक्र है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता।”
इस सन्दर्भ में कुछ अन्य विशेषज्ञों के मत यहाँ उद्धृत किए जा रहे हैं :
एडम्स – ” समाज के साथ सामाजिक अन्तःक्रिया से ही आत्म-ज्ञान संभव है।”
मेकाइवर- “वैयक्तिकता और सामाजिकता दोनों एक ही प्रक्रिया के दो पक्ष हैं।”
हुमायूँ कबीर — ” यदि किसी को समाज का सृजनशील सदस्य बनना है तो उसे एक ओर अपनी प्रगति को बनाए रखना होगा, साथ ही, समाज की उन्नति के लिए भी कुछ न कुछ करना पड़ेगा । “
इस प्रकार, मानव-जीवन को पूर्णतः सुवासित और जीने योग्य बनाने के लिए हमें व्यक्ति एवं समाज दोनों की जरूरत है । कुछ लोगों का मौलिक चिंतन एवं पहल महत्त्वपूर्ण होते हैं किन्तु, उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है समाज द्वारा ऐसे लोगों की स्वीकृति एवं उनका अनुकरण। इस प्रकार ये दोनों विचार एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं हैं।