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सामाजिक सन्दर्भ में भाषा | Social context in language in Hindi

सामाजिक सन्दर्भ में भाषा
सामाजिक सन्दर्भ में भाषा

सामाजिक सन्दर्भ में भाषा (Social context in language)

भाषा एक सामाजिक प्रक्रिया है। भावनाओं को बोलकर ही स्पष्ट किया जा सकता है तथा भाषा ही मानव के विचारों, भावों आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति समाज में करवाती है। भाषा द्वारा ही मानव समाज में स्वयं को प्रतिष्ठित करता है, स्थापित करता है। भाषा के द्वारा ही व्यक्ति एक-दूसरे के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, भय एवं क्रोध से अवगत होता है। भाषा का जन्म, विकास, अर्जन और प्रयोग सब कुछ समाज सापेक्ष है। यहाँ तक कि हम अकेले जिस भाषा के माध्यम से सोचते हैं वह भी समाज सापेक्ष है। मानव स्वत: एक सामाजिक प्राणी है और भाषा उसकी ही कृति है। भाषा का प्रयोग मानव समाज के साथ समाज के लिए ही करता है। मानव का सम्पूर्ण कार्य-व्यवहार ही भाषा पर आधारित है। जब मानव भाषा के बोलचाल (मौखिक) स्वरूप को अपनाता है तब एक या उससे अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि अकेले (स्वयं से) बात नहीं की जा सकती। बात करने के लिए सामाजिक सदस्यों की आवश्यकता अनुभव होगी। जब व्यक्ति भाषा के लिखित स्वरूप को अपनाता है, साहित्य सृजन करता है तब भी उस स्वरूप का सृजन समाज के लिए होता है और समाज के व्यक्ति उसका लाभ उठाते हैं। भाषा पूर्णतः सामाजिक वस्तु है।

सामाजिक विकास के लिए भाषा का महत्त्व (Important of Language for social development)

 भाषा के द्वारा बालकों में आत्म-विश्वास उत्पन्न किया जाता है, जिससे वे अपने विचारों को आसानी से दूसरों के समक्ष प्रस्तुत कर सकें। प्रारम्भ में बालक मौखिक भाषा को ही प्रयोग में लाता है। लगातार मौखिक अभ्यास करने से बालक की आत्महीनता की भावना दूर होती है और वह अपनी बात दूसरों को सरलता एवं सहजता से समझा सकता है। मौखिक भाषा द्वारा बालकों को अपनी बात को रोचकतापूर्ण एवं प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने का अवसर प्राप्त हो जाता है। समाज के जिन व्यक्तियों से बालक का अधिक लगाव होता है वह उनसे अधिक बात करना पसन्द करता है। इस प्रकार प्रारम्भ से ही बालक भाषा की मौखिक अभिव्यक्ति में निपुण हो जाता है। यदि बालक अधिक समय तक शिक्षित समाज में एवं समाज के परिपक्व लोगों के साथ रहता है तब बालक की भाषा पर उनकी छाप ही दिखाई पड़ती है और उसके शब्द भण्डार में भी वृद्धि होती है।

मौखिक कार्य एवं शब्द भण्डार में वृद्धि के साथ ही बालक लिखना भी सीखने लगता है, क्योंकि लिखना सिखना भी बालक के लिए अति आवश्यक है। जब बालक अपनी मौखिक अभिव्यक्ति ठीक से कर सकता है तब लेखन सीखने के पश्चात् वह धारा-प्रवाह लिख भी सकता है। आत्म-अभिव्यक्ति की प्रारम्भिक प्रक्रिया भविष्य में बालक को अच्छा वक्ता एवं अच्छा लेखक बना सकती है। ऐसे वक्ता एवं लेखक जो अपने विचारों की अभिव्यक्ति से श्रोता एवं बालकों को मन्त्रमुग्ध कर देते हैं उनकी देश एवं समाज दोनों को निरन्तर आवश्यकता रहती है।

यदि बालक के व्यक्तित्व में आत्मविश्वास लाना है तो उसको प्रारम्भिक अवस्था से ही शिक्षित करने की आवश्यकता पड़ती है। उसके उच्चारण, बोलने की भाषा-शैली एवं लेखन कला को ध्यान में रखना होगा, उसकी भाषा कला को निखारना होगा। बालक की मौखिक एवं लिखित अभिव्यक्ति के लिए वाद-विवाद, प्रश्नोत्तर, विचार-विमर्श, व्याख्यान करना, कहानी कहना एवं लिखना, यात्रा वर्णन लिखना, वर्णन करना आदि का प्रयोग किया जा सकता है। इनके द्वारा बालक को भाषण एवं लेखन शैली में उचित योग्यता प्रदान की जा सकती है।

डॉसन (Dason) के अनुसार- “मौखिक अभिव्यक्ति भाषा की नींव तैयार कर देती है, क्योंकि मौखिक भाषा तथा लिखित भाषा के तुलनात्मक अंग समान ही होते है।”

आज के बच्चे कल के समाज के प्रतिनिधि बनेंगे। बालकों के भाषा विकास को किसी भी दृष्टि से उपेक्षित नहीं किया जा सकता। उन्हें प्रत्येक दृष्टिकोण से भाषा शिक्षण द्वारा निखारना होगा। यदि बालकों में अच्छी भाषा- योग्यता है तब वे किसी भी समुदाय या समाज में स्वयं को स्थापित कर सकते हैं। मनुष्य के साथ-साथ समाज के उत्तम विकास के लिए भाषा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली साधन है।

सामाजिक विकास के संदर्भ में भाषा की भूमिका (Role of Language in context of Social development)

सामाजिक विकास के संदर्भ में भाषा की भूमिका निम्नलिखित हैं-

1. भाषा द्वारा मानव समूह को संगठित करने की भूमिका- सम्पूर्ण मानव को सामूहिक रूप से समाज में संगठित करने का श्रेय भाषा को ही जाता है। यदि व्यक्ति के पास भाषा नामक पूँजी न होती तो वह अपने विचारों, भावनाओं एवं अकांक्षाओं की अभिव्यक्ति किस प्रकार करता। विचार-विनिमय के किस माध्यम का सहारा लेता? सामाजिक सम्बन्धों से कैसे जुड़ता? इस सामाजिकता की प्रक्रिया में भाषा का ही सबसे बड़ा सहयोग है। प्राय: देखा जाता है कि एक भाषा-भाषी मानवों में परस्पर भावनात्मक सम्बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप उनका सामजिक विकास होता है। व्यक्ति का अपनी भाषा से ही सम्बन्ध होता है, जो अपनी माँ से होता है। उसकी अपनी भाषा का सीधा सम्बन्ध हृदय से होता है। मानव का प्रारम्भिक विकास उसकी अपनी भाषा द्वारा होता है और इन प्रारम्भिक बातों को जीवन में भुलाना आसान कार्य नहीं है। जब भी कहीं किसी विशेष भाषा के कार्यक्रमों का आयोजन होता है तब वहाँ उसके हजारों लोग एकत्रित हो जाते हैं, जिससे उनमें भाषायिक सामाजिक एकीकरण की अनुभूति होती है। भोजपुरी और अवधी या उर्दू मुशायरा इसके उदाहरण हैं।

एलिस के अनुसार- “भाषा वह प्राथमिक माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने समाज को प्रभावित करता है तथा समाज से प्रभावित होता है।”

2. सामाजिक समायोजन में भाषा की भूमिका- भाषा द्वारा प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपना एक निश्चित स्थान बनाता है और सामाजिक समाज का निमार्ण करता है। भाषा द्वारा ही व्यक्ति का सामाजिक समायोजन सरल हो जाता है। दूसरा व्यक्ति जो किसी अन्य भाषा का जानकार है वह अपने विचारों का आदान-प्रदान सरलता से नहीं कर पाता, उसको दूसरे दक्षिण भारत में आसानी से समायोजन नहीं कर सकता, क्योंकि समायोजन करने में उसकी भाषा व्यवधान उत्पन्न करती है। भाषा द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति में सरलता आ है और समायोजन में कठिनाई नहीं आती हैं इसी प्रकार वह समायोजन सरलतापूर्वक कर लेते हैं जो बहिर्मुखी हैं। किन्तु अन्तर्मुखी व्यक्तियों को समाज में समायोजन में कठिनाई होती है। व्यक्ति के सामाजिक सामयोजन में भाषा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका पूर्ण करती है।

3. सामाजिक सम्बन्धों में भाषा की भूमिका- किसी भी सामाजिक समूह का अंग बनने में भाषा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका को निभाती है। भाषा के माध्यम से व्यक्ति समाज के. अन्य व्यक्तियों से विचार-विनिमय करता है, जिसके कारण मानव-मानव से प्रभावित होता है, और उसकी अनेक बातों, आदतों एवं विचारों को अपनाता है, जिसके द्वारा वह समाज के रीति-रिवाजों, आदर्शों एवं परम्पराओं तथा नियमों को अपनाता है, सीखता है। भाषा द्वारा ही व्यक्ति समाज के अन्य सदस्यों के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित करता है। जो व्यक्ति बहिर्मुखी होते हैं, वे समाज एवं समूह में लोकप्रियता को प्राप्त करते हैं, किन्तु वहीं पर जो व्यक्ति अन्तर्मुखी होते हैं, जिनके अन्दर अनेक प्रतिभाएँ होती हैं, वे समाज एवं समूह में तत्काल लोकप्रियता नहीं प्राप्त कर पाते हैं। भाषा द्वारा वाक् चातुर्य में दूसरों को शीघ्रता से आकर्षित किया जा सकता हैं अतः भाषा सामाजिक सम्बन्धों को स्थापित करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि समाज में भाषा का उदय न होता तो सामाजिक सम्बन्धों की कल्पना करना भी संभव नहीं था।

4. सामाजिक नेतृत्व विकास में भाषा की भूमिका- भाषा नेतृत्व विकास करने में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भाषा के माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपने समूह एवं समाज का नेता बन सकता हैं। जो व्यक्ति विचारों को कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त कर लेता है, वाणी द्वारा दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है, दूसरों को अपनी वाणी द्वारा प्रभावित कर लेता है, वही आगे चलकर अपने समूह का प्रतिनिधि या नेता बन जाता है। आजकल की नेतागिरी में शब्दों का दाँव-पेंच लगाकर लोग सफल हो जाते हैं और नेता बन जाते हैं। अतः नेतृत्व के विकास में भाषा अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करती है।

5. मानसिक विकास में भाषा की भूमिका- भाषा मानव के बहुमुखी विकास की आधारशिला है। अन्तर्मुखी व्यक्ति जो समाज के मंच पर अपने विचारों को नहीं रख सकते, वे लिखित भाषा द्वारा अपने विचारों को सीमित, सन्तुलित तथा प्रभावी तरीकों से व्यक्त करते हैं, जिनको पढ़कर बालकों का मानसिक विकास होता है। अनेक दार्शनिकों एवं विद्वानों के विचार लिखित रूप से पढ़ सकते हैं और जीवन में अपनाते हैं। आवश्यक नहीं है कि सबसे मिलकर ही उनको सुना जाये। इसी प्रकार मानसिक विकास में भी सहायक है।

6. शैक्षिक उपलब्धियों में भाषा की भूमिका- शैक्षिक उपलब्धियों के लिए भाषा का ज्ञान अत्यन्त आवयश्क है। व्यक्ति कैसे बोलता है, क्या बोलता है, उसका शब्द-भण्डार कितना शक्तिशाली है, उसकी वाक्य-रचना कैसी है? ये सभी गुण उसकी शैक्षिक उपलब्धि से प्रभावित होते हैं। जिस व्यक्ति का शब्द भण्डार जितना विशाल होगा, उसकी वाक्य-रचना उतनी ही प्रभाशाली होगी। उसकी भाषा अभिव्यक्ति सरस, सौन्दर्यपूर्ण एवं मृदुल होगी, उस व्यक्ति की शैक्षणिक उपलब्धियाँ सामान्य व्यक्तियों से अधिक होगी। अतः शैक्षिक उपलब्धियों के लिए व्यक्ति के शब्द भण्डार का विशाल होना आवश्यक है। जिस व्यक्ति का शब्द भण्डार जितना शक्तिशाली होगा, वह वातावरण पर विजय पाने में उतना ही अधिक सफल होगा।

7. व्यावसायिक उपलब्धियों में भाषा की भूमिका- समाज में एक अच्छी आर्थिक स्थिति पाने के लिए व्यक्ति जीवन में विभिन्न व्यवसायों को अपनाता है। भिन्न-भिन्न व्यवसायों के लिए अच्छी साहित्यिक भाषा को सीखना और अभ्यास करना होगा। वहीं पर यदि वह व्यापार या उससे सम्बन्धित कोई कार्य करना चाहता है तब उसे सभ्य, मृदुल और लचीली भाषा को सीखना होगा। अच्छी मृदुल भाषा व्यवहार की सफलता की आधारशिला है।

इस प्रकार यह देखा गया कि सामाजिक विकास में भाषा अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। अतः भाषा के अभाव में व्यक्ति का समाजिक विकास नहीं हो सकता और यदि किसी प्रकार वह समाज का सदस्य बनता भी है तब उसकी स्थिति अत्यन्त दयनीय प्रतीत होगी। इसलिए सामाजिक विकास के लिए भाषा एक शक्तिशाली साधन है।

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shubham yadav

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