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सृजनशील बालक कौन हैं? सृजनशील बालकों की विशेषताएँ

सृजनशील बालक कौन हैं
सृजनशील बालक कौन हैं

सृजनशील बालक कौन हैं? (Who is Creative Children?)

सृजनशील बच्चे कौन हैं? इनकी विशेषताएँ क्या है? वर्ग कक्ष में ऐसे बच्चों की पहचान कैसे की जाए? और उनकी शैक्षिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए कौन-कौन से कदम उठाये जायें ? ये सब सवाल शिक्षकों के मन में अक्सर हाँ कौंधते रहते हैं। ये प्रश्न उठना भी लाजिमी है क्योंकि ऐसे बच्चे इतने कम होते हैं कि वर्ग कक्ष में उनकी पहचान काफी मुश्किल होता है। कुछ मनोवैज्ञानिक के मुताबिक सृजनशील बालकों का व्यवहार भी सृजनात्मक होता है । ये वे व्यवहार हैं जो उन उत्पादन अथवा उपलब्धियों में दिखाई पड़ता है जो सम्बद्ध निर्णायकों द्वारा सृजनशील समझे जाते हैं। आमतौर पर प्रतिभाशाली (Gifted) बच्चों को सृजनशील मान लिया जाता है। लेकिन यह सत्यता से परे है। मैक किनॉन (1961) ने भी अपने शोध-अध्ययनों के जरिये माना कि यह सत्य नहीं है कि प्रतिभाशाली व्यक्ति आवश्यक रूप से सृजनशील होंगे ही।

सृजनशील बालकों की विशेषताएँ (Characteristics of a Creative Children) 

टेलर ने एक सृजनशील व्यक्ति की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं:

(i) बुद्धिजीवी (Intellectual)- सृजनशील बच्चे हमेशा बुद्धिजीवी होते हैं। उनमें स्मृति और मूल्यांकन करने की क्षमता काफी अधिक होती है। साथ ही उनमें संवेदनशीलता,. मौखिकता, सुशीलता और मौलिकता आदि विशेषताएँ पाई जाती हैं।

(ii) अभिप्रेरणात्मक रुचि ( Motivational Interest ) – सृजनशील बालकों में अभिप्रेरणात्मक रुचि कूट-कूट कर भरी रहती है। वह अपने विचारों के जरिये कौतूहल पैदा करता है। अपने विचारों को कार्य रूप प्रदान करता है। उनमें उच्च उपलब्धि हासिल करने की ललक होती है। वे जटिलता को महत्व देते हैं और सृजनात्मकता को बढ़ावा देते हैं।

(iii) सृजनात्मक व्यक्तित्व (Creative Personality) – सृजनशील बालक सृजनात्मक व्यक्तित्व के धनी होते हैं। वे स्तवंत्र विचार के होते हैं। उनमें खतरा उठाने की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है। वे बहिर्मुखी, साहसी और उद्यमी होते हैं।

रोजर्स (1959) ने एक सृजनात्मक व्यक्ति की निम्नलिखित तीन आंतरिक दशाओं का वर्णन किया है- (i) अनुभव करने में खुलापन जो अनम्यता को कोई स्थान नहीं देता, (ii) आवश्यकतानुसार मूल्यांकन करने की योग्यता, और, (iii) प्रयोग करने की तथा अस्थायी को स्वीकार करने की योग्यता ।

ब्लूम (Bloom) ने मानसिक प्रक्रिया के छः तत्व बताये हैं। ये तत्व हैं- ज्ञान (Knowledge), अवबोध (Understanding), विनियोग (Application), विश्लेषण (Analysis), संश्लेषण (Synthesis) और मूल्यांकन (Evaluation ) । सृजनशील बच्चों में विश्लेषण, संश्लेषण और मूल्यांकन क्षमता सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक पायी जाती है । सृजनात्मक लेखन, गीत, संगीत, कला, चित्रकारी सरीखे मौलिक प्रक्रियाओं के प्रति ऐसे बालकों का झुकाव सर्वाधिक होता है। इनके अलावा सृजनशील बच्चों में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं–(i) मनोरंजन के प्रति आकृष्ट होना । (ii) अद्भुत तथा मौलिक कार्य करने में रुचि रखना । (iii) नये अनुभव प्राप्त करने की दिशा में रुचि लेना और प्रयासरत रहना । (iv) अपने कार्य का दूसरों द्वारा किये गये मूल्यांकन पर ध्यान न देना। (v) स्व-मूल्यांकन करने में रुचि लेना । (vi) असामान्य व्यवसायों (सृजनात्मक लेखन, नृत्य, संगीत, पटकथा लेखन, पर्वतारोही, कोरियोग्राफी, पेंटिंग आदि) के प्रति समर्पित करना।

सृजनात्मकता एवं पहचान प्रक्रिया (Creativity and Indetification Process)

सृजनात्मकता’ शब्द आंग्ल भाषा के क्रियेटिविटी (Creativity) का हिन्दी रूपांतर है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न तरह से की है।

मैक किनॉन (1956) के अनुसार यह “एक प्रक्रिया है जो काल में फैली हुई है और मौलिकता, अनुकूलता एवं संपादन द्वारा विशेषित होती है।” (A process extended in time and characterized by originality, adaptiveness and realization.- Donald W. Mc Kinnon)

मेडनिक के अनुसार सृजनात्मक चिन्तन साहचर्य तत्वों के बीच नूतन सम्बन्ध स्थापित ‘करने को कहते हैं, जो किसी रूप में उपयोगी हो। जितनी ही अधिक नवीन सम्बन्धों की दूरी होगी उतनी ही अधिक सृजनात्मकता होगी। (Creative thinking consists of forming new combinatins of ‘associate elements, which either meet specific requirement or are in some way useful. The more mutually remote the element of the new combination the more creative in the process or situation.-Medenick)

स्टेन ने कहा कि जब किसी कार्य का परिणाम नवीन हो जो किसी समूह को लाभदायक तथा उपयोगी प्रतीत हो तो उसे कार्य को किसी एक समय पर सृजनात्मक कार्य कहा जा सकता हैं। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि उत्पादक तत्व को सृजनात्मक तभी कहेंगे जब उसमें दोनों ही गुण-नवीणता तथा उपयोगिता पाये जाते हों। (When it results in a novel work that is accepted as tenable or useful or satisfying by a group at some point in time. The product to be considered as creative must be both novel and useful. – Stein)

जेम्स ड्रेवर ने सृजनात्मकता को इस प्रकार परिभाषित किया है-अनिवार्य रूप से किसी नूतन वस्तु का सृजन करना, रचना करना जिसमें नवीन विचार संग्रहीत हों, जिसमें विचारों का संश्लेषण हो, और जहाँ मानसिक उत्पाद केवल विचारों का योग मात्र न हो । [Producing as essentially new product, constructive ways of imagination where a new combination or ideas or images is constructed also of though synthesis, where the mental product is not a mere summation.- James Draver]

कार्ल रोजर्स ने सृजनात्मकता को उत्पाद के रूप में परिभाषित किया है। उसके अनुसार “सृजनात्मक प्रक्रिया नवीन सम्बन्धित उत्पाद का प्रादुर्भाव है, जो विकसित होता है एक ओर तो व्यक्ति की अद्भुत शक्ति तथा दूसरी ओर वस्तुओं, घटनाओं अथवा उसके जीवन की परिस्थितियों द्वारा” (Creative process is the emergence in action of a novel relational product, growing out of the uniqueness of the individual on the one hand and the materials, events, people of circumstances of his life on the other.-Carl Rogers)

गिलफोर्ड ने निश्चित किया है कि ‘सृजनात्मकता विभिन्न अपसारी चिन्तन (Divergent Thinking) की क्षमताओं का समिश्रण है।’ (Creativity is a composite of a number of divergent thinking assimilation. → Guilford)

उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के आधार पर हम कह सकते हैं कि सृजनात्मकता के निम्नलिखित तत्व हैं-(i) सृजनात्मकता एक नवीन तथा मौलिक विचारधारा है। (ii) सृजनात्मक होता है जो उपयोगी हो तथा जिसे सामाजिक मान्यता मिली हो। (iii) सृजनात्मकता में नूतन साहचर्य का अनोखा प्रतिबोध होता है। (iv) सृजनात्मक विचारों का प्रादुर्भाव अकस्मात् रूप में प्रकट होता है।

बेरोन (1969) ने विचारों के निर्माण प्रक्रिया को मानसिक सृजन का सबसे बड़ा उदाहरण माना है। उनके अनुसार ऐसे विचार जो अनुपम होते हैं, संभवत: सृजन के भावार्थ से अधिक ही होते हैं, वह न केवल सृजनात्मक कार्य के परिणाम होते हैं, वरन् वह अपनी मानव जीवन के लिए नई दशाएँ सृजन कर देते हैं।

सृजनात्मकता का स्वरूप (Nature of Creativity)

सभी व्यक्तियों में विभिन्न श्रेणी की सृजनशीलता पाई जाती है। यह केवल कुछ चुने हुए व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं रहती है । निर्विवाद रूप से सृजनशीलता सभी व्यक्तियों का सामान्य गुण होता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जिसे समय, स्थान तथा व्यक्ति से बाँधा नहीं जा सकता। इसका प्रादुर्भाव कहीं भी किसी भी समय पर हो सकता है। बच्चों, बड़ों, पुरुषों तथा स्त्रियों में सृजनात्मकता चिन्तन पाया जा सकता है। उसमें निरंतरता, नमनीयता, विस्तारता, मौलिकता, समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता, परिहासप्रियता तथा नवीन अनुभवों के प्रति स्वतंत्रपूर्वक सोचने तथा निर्णय लेने की शैली आदि सरीखे कई प्रकार के शील-गुण पाये जाते हैं।

सृजनशीलता अपसारी चिन्तन पर आधारित है जबकि बुद्धि में अभिसारी चिन्तन का अधिक प्रयोग होता है। यह आवश्यक नहीं है कि सभी बुद्धिमान व्यक्ति सृजनशील भी हों। जीवन के आरंभ से ही सृजनशीलता का प्रादुर्भाव होता है लेकिन इसका विकास निरंतर नहीं होता है (टॉरेन्स, 1962 )। बच्चों को इसके गति में निरंतरता बरकरार रखने में कठिनाई होती है क्योंकि इसका विकास सामाजिक पर्यावरण पर बहुत कुछ निर्भर करता है। टॉरेन्स (1964) ने सृजनशीलता विकास की गति में 5, 9 और 12 वर्ष कि आयु में आने वाले अवरोहों के कई अन्य कारण बताये हैं। उन्होंने बच्चों के समक्ष आने वाले सांस्कृतिक एवं शैक्षिक उपेक्षाओं को इसका मुख्य कारण माना है। शोध परिणामों के आधार पर पता चला है कि इसका विकास प्राय: 5, 9, 13 तथा 17 वर्ष की अवस्था अवरुद्ध हो जाता है। कुछ लोगों के मत से सृजनात्मक चिन्तन की गति 30 वर्ष पर रुक जाती है। इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। यह भी पता लगाना कठिन प्रतीत होता है कि किस विशेष आयु पर व्यक्ति में सृजनात्मक चिन्तन सर्वोत्कृष्ट होता है।

सृजनशीलता पर वंशानुक्रम का प्रभाव कितना पड़ता है यह एक विवादग्रस्त विषय है। सामान्यतः शोधपरिणामों के आधार पर यह कहा जाता है कि सृजनशीलता का विकास किया जा सकता है। सृजनशीलता पर्यावरण की दशाओं के कारण परिवर्तित भी हो जाती है। पेजलो (Pazzulo), थार्सन (Thorsen ), मदाज (Maudas) आदि ने भी अपने अनुसंधान में पाया कि सृजनात्मक चिंतन की परीक्षाओं पर आनुवंशिकता के अंतर का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

सृजनशीलता का विकास जीवन के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्धित है। इसके लिये किसी विशेष व्यक्ति या विषय का होना आवश्यक नहीं है। संगीत प्रेमी, बढ़ई, अध्यापक अथवा किसान कोई भी सृजनशील व्यक्ति हो सकता है। मानवता के विभिन्न क्रियाकलापों में सृजनशीलता चिन्तन प्रतिबिम्बित होता है।

सृजनात्मक बालक की पहचान की आवयश्कता (Need for the Identification of Creative Children) 

प्रतिभाशाली बच्चों की तरह सृजनशील बच्चों का पहचान किया जाना जरूरी होता है। सृजनशीलता मापन तकनीक ने इस प्रक्रिया को आसान बना दी है। सृजनशील बालकों की पहचान व्यक्तिगत शिक्षण में सहायक होता है। साथ ही यह मानसिक वृत्ति के निर्देशन में सहायक होती है एवं सुधारात्मक शिक्षण (Remedial Teaching) कार्यक्रम के आयोजन करने के सम्बन्ध में सूत्र प्रदान करती है । यह बच्चों के मूल्यांकन में सहायक होती है।

प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री ब्लूम (Bloom) के अनुसार किसी भी मानसिक प्रक्रिया के छ: तत्व होते हैं-ज्ञान (Knowledge), अवबोध (Understanding), विनियोग (Application), विश्लेषण (Analysis), संश्लेषण (Synthesis) और मूल्यांकन (Evaluation) । इनमें से प्रथम तीन तत्व निम्न मानसिक प्रक्रिया तथा अंतिम तीन उच्च मानसिक प्रक्रिया के द्योतक हैं। सर्जनात्मक प्रतिभा का सम्बन्ध इन उच्च मानसिक क्रियाओं से अधिक है। देश में विडम्बना यह रही है कि प्रतिभा की खोज (Talent Search) का प्रयास तो हुआ है, किन्तु प्रतिभा के नाम पर सर्जनात्मकता की खोज जो उच्च मानसिक क्रियाओं से अधिक सम्बन्धित है न करके हम शैक्षिक उपलब्धियों (विद्यालयी प्राप्तांकों) जो निम्न मानसिक क्रियाओं से सम्बन्धित हैं, करते रहे हैं। दूसरे शब्दों में वह बच्चे जो शिक्षा संस्थाओं में रटने की शक्ति का सहारा लेकर बहुत अच्छे अंक प्राप्त कर लेते हैं, प्रतिभाशाली कहे जाते हैं तथा वह जो सर्जनात्मक चिन्तन तथा मौलिक अभिव्यक्ति की क्षमता रखते हैं प्रतिभाशाली नहीं माने जाते हैं।

यह एक सामान्य निरीक्षण की बात है कि प्रायः अध्यापक प्रतिभा के नाम पर बालकों की विद्यालयी उपलब्धि तथा बौद्धिक विकास पर ही ध्यान देते हैं। टॉरेन्स ने ठीक ही कहा है कि यदि शिक्षक बुद्धि की परीक्षाओं को आधार बनाकर प्रतिभा की खोज करते रहेंगे तो वह लगभग 70 प्रतिशत सर्जनात्मक बच्चों की अवहेलना करते रहेंगे जिनमें विभिन्न प्रकार की प्रतिभाएँ पाई जाती हैं। अतः अपेक्षित है कि प्रतिभा की पहचान करते समय केवल बुद्धिलब्धि पर ही ध्यान न रक्खा जाय वरन् अन्य तत्वों की परख भी की जाय, जैसे सर्जनात्मकता परीक्षण, विशिष्ट अभिरुचि परीक्षण, व्यक्तिगत निरीक्षण जो अध्यापक छात्रों के पठन-पाठन के समय करता है यह जानकारी कि खाली समय का कैसे उपयोग छात्र करते हैं, उनके सर्जनात्मक लेख, गीत, संगीत, कला, चित्रकारी आदि, उनकी मौलिक क्रियाएँ, प्रयोग आदि सभी प्रतिभा के द्योतक हैं। इन सभी का उपयोग करते हुये प्रतिभा की खोज (Talent Search) करना श्रेयस्कर भी होगा और न्यायसंगत भी।

अतः छात्रों में प्रतिभा की खोज करना कुछ कठिन अवश्य है, यद्यपि यह कार्य असम्भव नहीं है। इस कार्य में सभी का सहयोग चाहिये यथा अध्यापक, प्रशासक शैक्षिक नीति निर्धारक, मनोवैज्ञानिक आदि।

समय आ गया है कि हम अपना दृष्टिकोण बदलें तथा सर्जनशील व्यक्तियों की खोज करते हुये उन्हें पूर्ण विकास का भरपूर अवसर दें। शैक्षिक वातावरण इस प्रकार का बनाया जाना चाहिये कि विभिन्न प्रतिभाओं के विकास हेतु आवश्यक सुविधाएँ व्यक्ति को उपलब्ध कराई जा सकें।

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shubham yadav

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