अनुक्रम (Contents)
प्रश्न -राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त क्या है?
उत्तर-राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त क्या है-दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त यह मान्यता लेकर चलता है कि राज्य की उत्पत्ति प्रत्यक्ष रूप से ईश्वर द्वारा हुई है तथा राज्य एक दैवी कृति है, ईश्वर की रचना है। गिलक्राइस्ट के शब्दों में, “दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त की प्रमुख मान्यता है कि राज्य की स्थापना ईश्वर द्वारा हुई है।” कालक्रम की दृष्टि से राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति संबंधी सिद्धान्तों में सबसे प्राचीन है। प्राचीन और मध्ययुग के साहित्य और समाज तथा धर्म एवं दर्शन में ऐसी मान्यताएँ मिलती हैं जिन्हें दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त का पक्षपोषक कहा जा सकता है । वस्तुत: राज्य की उत्पत्ति का दैवी सिद्धान्त वास्तव में उतना ही प्राचीन है, जितना स्वयं राज्य, क्योंकि प्रारम्भ में राजा न केवल शासक होता था बल्कि पुरोहित भी। इसीलिए आस्ट्रियाई विद्वान जेलिनेक राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत को प्राचीनतम बतलाते हैं । इस सिद्धांत की मूल धारणा है कि राज्य की सृष्टि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ईश्वर ने की है। अर्थात् राज्य एक मानवीय संस्था नहीं है, बल्कि दैवी संस्था है। प्रो० गूच ने इसकी व्याख्या में चार मुख्य बातों का प्रतिपादन किया है-
1. राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा हुई है।
2. राजा को वंशानुक्रम के अनुसार राजगद्दी प्राप्त होती है;
3. राजा अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं है बल्कि केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है; और
4. राजा की आज्ञा का उल्लंघन पाप है।
प्राचीन मिश्र, फारस, चीन और जापान में राज्य की दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त में विश्वास था। मिश्र में राजा को सूर्य पुत्र समझा जाता था और जापान में आज भी राजा मिलार्ड़ो का (सूर्यदेव का पुत्र) माना जाता है। प्राचीन यूनानी साहित्य में इसके प्रसंग मिलते हैं। प्राचीन यूनानी महाकवि होमर अपने महाकाव्य ‘इलियड में राजसत्ता की दैवी स्थिति को मानता है।
विश्व के समस्त धर्मग्रन्थ मानते हैं कि राज्य और इसकी सत्ता के पीछे ईश्वर की स्वीकृति है। हिन्दू धर्मग्रन्थ ‘महाभारत’ के शान्ति पर्व में युधिष्ठिर के एक प्रश्न के उत्तर में भीष्म पितामह ने कहा कि सतयुग के प्रारम्भ में सभी अपने धर्म का पालन करते थे और एक दूसरे की रक्षा करते थे। लेकिन कुछ समय बाद जब पाप के उदय के फलस्वरूप अनाचार और अराजकता व्याप्त हो गई तो लोगों ने ब्रह्मा से अनुनय किया कि “हे प्रभु हम प्रधान के बिना नष्ट हो रहे हैं। हम को आप एक प्रधान दें, जिसकी हम पूजा करेंगे और जो हमारी रक्षा करेगा।” फलस्वरूप ब्रह्मा ने मनु को राजा नियुक्त किया।
इस्लाम का धर्म-ग्रन्थ कुरान भी राज्य के दैवी स्वरूप की ही विवेचना करता है। मध्ययुग में जितने भी मुस्लिम राज्य थे, वे राजा और राज्य को दैवी ही मानते थे यहाँ तक कि आधुनिक युग में भी पाकिस्तान धर्म और राजनीति में भेद नहीं करता।
ओल्ड टेस्टयमेन्ट में कई स्थान पर इस बात का जिक्र आया है कि यहूदियों का यह विश्वास था कि वर राजा को नियुक्त करता है, उनको दण्ड देता है और अत्याचारी होने पर उनकी हत्या भी कर देता है। ईसाई धर्म के उद्भव और प्रचार ने दैवी सिद्धान्त को बल प्रदान किया। बाइबिल में एक घटना का वर्णन आया है जिसके अनुसार स्वर्ग में आदम और ईव को समस्त स्वर्गीय सुख वैभव उपलब्ध थे| परंतु ईश्वर ने उन्हें एक विशेष वृक्ष के फल को रखने से मना कर रखा था शैतान के बहकावे में उन्होंने इस पर द्वारा वर्जित उस फल को खाकर आदिम पाप का संपादन किया, जिससे कुपित ईश्वर ने उन्हें धरती पर फेंक दिया पृथ्वी पर दोनों अपने पाप का प्रायश्चित करने लगे, धरती पर उन्हें संतान पैदा हुई जिन्हें दंड देने के उद्देश्य से ईश्वर ने राज्य की स्थापना की इस तरह राज्यपाल मूलक संस्था है
यूरोप दैवी सिद्धान्त का दो स्वरूप देखने को मिलता है-धार्मिक तथा राजनैतिक।
धार्मिक स्वरूप के प्रतिपादकों में प्रमुख हैं-संत ऑगस्टाइन, सन्त टॉमस एकोनास, जॉन ऑफ सेलिसबरी, आदि। इन विचारकों के समय में सम्पूर्ण यूरोप छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित होने के कारण राजा निर्बल था और समाज में अराजकता व्याप्त थी। उस समय ईसाई गिरजाघर की शक्ति बढ़ रही थी और चूंकि गिरजाघर का प्रमुख पोप था, इसलिए वह यूरोप के सबसे अधिक शक्तिशाली अधिकारी के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका था। प्रतिपादकों ने कहा कि ईश्वर ने सम्पूर्ण शक्ति संत पीटर को प्रदान की है, जो ईसा का सर्वाधिक महानशिष्य था। ऐसा विश्वास है कि रोम के गिरजाघर की स्थापना संत पीटर ने ही की थी। चूँकि रोम के गिरजाघर के पादरी पोप कहलाते हैं, अत: पोप को संत पीटर का उत्तराधिकारी माना गया जिसको ईश्वर से सारी शक्तियाँ प्राप्त हुई थीं। ये शक्तियाँ दो प्रकार की थीं-धार्मिक एवं राजनीतिक।संत पीटर और पोप ने राज्य की निकृष्ट शक्ति राजा को सौंप दी और श्रेष्ठ एवं उच्च आध्यात्मिक शक्ति अपने पास ही सुरक्षित कर ली। इस तरह यह प्रमाणित किया गया कि पोप ईसाई जगत का सर्वोच्च अधिकारी है और समस्त राजाओं को उसकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
राजनीतिक स्वरूप के प्रमुख प्रतिपादक राजा जींस प्रथम, फ्रांस की बुस्वे और डी फिगिस थे, जिनकी मान्यता एक और यह थी कि राजा को राजकीय की शक्ति चर्च के माध्यम से नहीं अपितु तो सीधे ईश्वर से प्राप्त होती है और दूसरी ओर राजा की आज्ञा का विरोध पाप है| राजा जेम्स प्रथम इस पक्ष के प्रमुख प्रतिपादक थे जिनकी प्रमुख मान्यताएं इस प्रकार थी-
1. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है जो अपनी शक्तियां सीधे ईश्वर से प्राप्त करता है;
2. राजा अपने कृत्यों के लिए जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होता, बल्कि केवल अपनी और ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है;
3. किसी बालक का राजपरिवार में जन्म का मतलब है कि ईश्वर ने उसे भावी राजा नियुक्त किया है।
4. चूँकि कानून राजा की ही सृष्टि है, अतः राजा कानून के अधीन नहीं हो सकता; तथा
5. स्वतन्त्र एवं स्वेच्छाचारी राजतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली है।
उपर्युक्त चर्चा से राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त की जो प्रमुख विशेषताएँ परिलक्षित होत हैं, वे निम्नवत् हैं-
1. राज्य दैवी कृति है।
2. राजपद ईश्वर द्वारा स्थापित किया गया है।
3. राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है।
4. राजा अपने कार्यों के लिए केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है, अन्य किसी से प्रति नहीं।
5. राजा की सत्ता का विरोध करना पाप है। प्रजा का कर्त्तव्य है कि वह बिना किसी विरोध या आपत्ति के राजा की आज्ञा का पालन करे। प्रजा को विरोध का कोई अधिकार नहीं है।
6. राजपद वंशानुगत है। उत्तराधिकार का वंशानुगत होना भी ईश्वरीय इच्छा ही है। फलत: राजाओं का वंशानुगत अधिकार कभी भी छीना नहीं जा सकता।
7. राजा की शक्ति अपरिमित है। उस पर किसी प्रकार के लौकिक प्रतिबन्ध नहीं लगाये जा सकते।
दैवी सिद्धान्त का पतन (Downfall of Divine Theory)-
इस तरह 9वीं एवं 15वीं सदी तक दैवी सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का सर्वाधिक स्वीकृत सिद्धान्त के रूप में प्रतिष्ठित रहा। किन्तु जैसे-जैसे तेरहवीं सदी और उसके बाद से धर्म एवं नीति का राजनीति से पृथक्कीकरण का प्रतिपादन एवं प्रजातन्त्र का प्रसार होने लगा, इसके समर्थकों की संख्या उत्तरोत्तर घटती ही चली गई। प्रजातन्त्र की मान्यता के साथ दैवी सिद्धान्त की इस धारणा को अमान्य ठहरा दिया गया कि राजा की आज्ञाओं को शिरोधार्य करना अनिवार्यता है। सन् 1642 से 1649 के बीच राजा एवं संसार के मध्य संघर्ष की तत्कालीन राजा चार्ल्स प्रथम की फांसी की सजा के रूप में परिणति ने दैवी सिद्धान्त को समाप्त कर दिया। गिलक्रडास्ट के अनुसार इसके पतन के तीन प्रमुख कारण हैं-
(अ) राज्य को मानव कृति तथा स्वतन्त्रता को महत्ता देने वाले संविदा सिद्धान्त का उदय एवं विकास;
(ब) राज्य एवं चर्च को पृथक् करने वाला यूरोप का धर्म-सुधार आन्दोलन; एवं
(स) स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासनतन्त्र के विरोधी लोकतन्त्रवाद का प्रसार।
वस्तुतः दैवी सिद्धान्त के पतन के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
1. नैतिकता एवं तार्किकता का उद्भव एवं विकास;
2. सामाजिक अनुबंध सिद्धान्त का विकास, जिसमें मुख्यतः लॉक द्वारा प्रतिपादित मर्यादित राजतंत्र का समर्थन तथा रूसो के द्वारा सामान्य इच्छा की मान्यताओं की प्रस्तुति;
3. चर्च एवं राज्य का पृथकीकरण तथा संसदात्मक संस्थाओं की सुदृढ़ता;
4.1688 का इग्लण्ड का महत्वपूर्ण जनक्रांति, 1776 की अमरीकी क्रांति तथा 1789 की महान जनतांत्रिक क्रांति; और
5. जनतंत्र का प्रसार एवं विस्तार।
दैवी सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of Divine Theory)
दैवी सिद्धान्त की निम्नांकित आधार पर कड़ी आलोचना की गई है-
1. यह सिद्धान्त लोकतन्त्र के विरुद्ध है और निरंकुशता का समर्थन करता है।
2. परमात्मा दयालु और न्यायकारी है, इसलिए वह अत्याचारी राजाओं को अपना प्रतिनिधि नियुक्त नहीं कर सकता।
3. यह सिद्धांत आधुनिक राज्यों पर लागू नहीं हो सकता।
4. यह सिद्धांत प्रतिक्रियावादी है, प्रगतिवादी नहीं।
5. राज्य दैवी संस्था न होकर प्राकृतिक अथवा मानवीय है।
6. यह सिद्धान्त धार्मिक है, राजनीतिक नहीं।
7. नास्तिकों के लिए इस सिद्धान्त का कोई महत्व नहीं है।
8. स्वयं धर्म-ग्रन्थ भी इस सिद्धान्त का पूर्णरूपेण समर्थन नहीं करते, क्योंकि उनमें यह जिक्र यत्र-तत्र देखने को मिलता है कि यदि राजा न्यायपूर्वक जनहित में शासन न करे तो उसे सिंहासनाच्युत कर दिया जाना चाहिए।
9. यह सिद्धांत अवैज्ञानिक है, क्योंकि राज्य एक मानवीय संस्था है जब कि यह इसे एक ईश्वरीय कृति बतलाता है।
10. यह राज्य की उत्पत्ति बतलाने में सफल नहीं हुआ है, क्योंकि यह राजनीतिक सत्ता की व्याख्या मात्र पेश करता है।
11. यह अनैतिकता का पोषक है क्योंकि प्रारम्भिक प्रतिपादकों ने यह कहा कि ईश्वर ने जनता के पाप को दण्डित करने के लिए बुरा राजा प्रदान किया, जबकि सच्चाई तो यह है कि प्रजा चाहे कितना ही पापी क्यों न हो, किन्तु नैतिकता के किसी भी मापदण्ड के अनुसार बुरा राजा ईश्वरीय तो कदापि नहीं हो सकता बल्कि वह भ्रष्टाचार का जीवन्त प्रमाण ही होगा।
12. आलोचकों के अनुसार दैवी सिद्धांत अवैज्ञानिक है । यह स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुशता को समर्थन है। व्यवहार में इसका लक्ष्य मात्र राजाओं के हित में जनता को अधिकारों से वंचित रखना था। सच्चाई यह है कि इस सिद्धांत को धार्मिक कहना चाहिए राजनीतिक कदापि नहीं। अतः यह पूर्णरूपेण काल्पनिक है जिसके कारण इसे वैज्ञानिक कदापि नहीं माना जा सकता।
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद राजनीतिक संस्थाओं एवं चिन्तन के इतिहास में इसकी महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली देन रही है। आदि काल में जब मनुष्य में किसी सत्ता के पालन की आदत नहीं थी, तो उस समय मनुष्य की आस्था और ईश्वर के प्रति भय की भावना का सहारा लेकर आज्ञा पालन की प्रवृत्ति का विकास किया। वस्तुतः इसने मनुष्य की उसी प्रवृत्ति का प्रयोग करके उनमें व्यक्ति, सम्पत्ति एवं शासन का सम्मान करने की शिक्षा दी। साथ ही इसने ऐतिहासिक तथ्यों का भी समर्थन किया है।
संविधानवाद का विकास (Development of Constitutionalism)
ग्रीन के सम्पत्ति पर विचार Thomas Hill Green(T. H. Green)
तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का महत्व
इतिहास की आर्थिक व्याख्या (Economic Interpretation of Histroy)
Important Questions Answer Indian Preamble in Hindi
लोकसभा की शक्तियां विस्तार में (Functions and Powers of the Lok Sabha in Hindi) PDF
संसदीय शासन प्रणाली के गुण एवं दोष
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के लक्षण
एकात्मक सरकार का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, गुण एवं दोष
संघात्मक शासन व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? उसकी प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
एकात्मक एवं संघात्मक शासन में क्या अन्तर है?
बेंथम के विचारों की आलोचना। Criticism of Bentham In Hindi
इसे भी पढ़े…
- Political Notes By BL Choudhary in Hindi PDF Download
- Dhyeya IAS Indian Polity Notes PDF Download {**ध्येय IAS}
- Vision IAS Indian Polity and Constitution Notes
- Shubra Ranjan Political science Notes Download PDF
- Indian Polity Handwritten Notes | Vajiram & Ravi Institute
- Indian Polity GK Questions-भारतीय राज्यव्यवस्था सामान्य ज्ञान
- भारतीय संविधान एवं राजव्यवस्था By Drishti ( दृष्टि ) Free Download In Hindi
Note: इसके साथ ही अगर आपको हमारी Website पर किसी भी पत्रिका को Download करने या Read करने या किसी अन्य प्रकार की समस्या आती है तो आप हमें Comment Box में जरूर बताएं हम जल्द से जल्द उस समस्या का समाधान करके आपको बेहतर Result Provide करने का प्रयत्न करेंगे धन्यवाद।
You May Also Like This
- सम-सामयिक घटना चक्र आधुनिक भारत का इतिहास
- सम-सामयिक घटना चक्र अतिरिक्तांक GS प्वाइंटर प्राचीन, मध्यकालीन भारत का इतिहास
- सम-सामयिक घटना चक्र GS प्वाइंटर सामान्य भूगोल PDF Download
- सम-सामयिक घटना चक्र (GS Pointer) भारतीय राजव्यवस्था एवं शासन PDF
- English as Compulsory language
- सम-सामयिक घटना चक्र अतिरिक्तांक GS प्वाइंटर सामान्य विज्ञान
- Lucent’s Samanya Hindi pdf Download
- क्या आप पुलिस में भर्ती होना चाहतें है – कैसे तैयारी करे?
- Maharani Padmavati क्यों खिलजी की चाहत बनी पद्मावती
- News and Events Magazine March 2018 in Hindi and English
- Banking Guru February 2018 in Hindi Pdf free Download
- Railway(रेलवे) Exam Book Speedy 2017 PDF में Download करें
- मौर्य वंश से पूछे गये महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर हिंदी में
- IAS बनना है तो कुछ आदतें बदल लें, जानें क्या हैं वो आदतें
अगर आप इसको शेयर करना चाहते हैं |आप इसे Facebook, WhatsApp पर शेयर कर सकते हैं | दोस्तों आपको हम 100 % सिलेक्शन की जानकारी प्रतिदिन देते रहेंगे | और नौकरी से जुड़ी विभिन्न परीक्षाओं की नोट्स प्रोवाइड कराते रहेंगे |
Disclaimer:currentshub.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है ,तथा इस पर Books/Notes/PDF/and All Material का मालिक नही है, न ही बनाया न ही स्कैन किया है |हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है| यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- currentshub@gmail.com