दीवानी प्रकृति का वाद क्या है – दीवानी प्रकृति के नाम से जाना जाता है। सिविल प्रकृति का वाद किसे कहते हैं इसका निर्धारण करने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 उपबन्धित करती है- “न्यायालयों को उन वादों के सिवाय, जिनका उनके द्वारा संज्ञान अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से वर्जित है, सिविल प्रकृति के सभी वादों के विचारण की अधिकारिता होगी।”
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दीवानी प्रकृति का वाद (Suit of Civil Nature)
दीवानी प्रकृति के बाद से तात्पर्य ऐसे बाद से है जिसमें किसी महत्वपूर्ण अधिकार के प्रवर्तन की माँग की जाती है। धारा 9 स्पष्टीकरण (1) के अनुसार सिविल प्रकृति का वाद उस वाद को कहते है जिससे सम्पत्ति सम्बन्धी या पद सम्बन्धी अधिकार प्रतिवादित है, उस बात के होते हुये भी कि ऐसा अधिकार धार्मिक कृत्यों कर्मों सम्बन्धी प्रश्नों के विनिश्चय पर पूर्णरूप से अवलम्बित है।
उसके सम्बन्ध में यह बात तात्विक नहीं है कि उस पद के साथ कोई फीस जुड़ी है या नहीं अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में वह पद कैसा भी क्यों न हो चाहे उससे फीस जुड़ा है अथवा नहीं अगर उससे सम्बन्धित अधिकार विवादित है तो वाद दीवानी प्रकृति का होगा।
धारा 9 तथा उसके स्पष्टीकरण को देखने से विदित है कि किसी वाद का मुख्य प्रश्न किसी सम्पत्ति संबंधी या पद संबंधी या अन्य किसी सिविल अधिकार से आच्छादित है तो ऐसा वाद दीवानी प्रकृति का वाद माना जाता है। अगर मुख्य विचारणीय प्रश्न पर निर्णय देने से पहले गौण विचारणीय प्रश्न जो जातिगत या धार्मिक कृत्यों या कर्मों से संबंधित है, पर विचार करना और निर्णय देना आवश्यक है तो ऐसा वाद भी दीवानी प्रकृति का वाद माना जाएगा।
ए.बी.एन. गर्ल्स हाईस्कूल बनाम डिप्टी कलेक्टर पब्लिक इंस्पेक्शन के प्रकरण में जहाँ एक विद्यालय की प्रबंध समिति ने एक वाद संस्थित किया और न्यायालय से निवेदन किया कि यह घोषण की जाए कि उप सार्वजनिक शिक्षा निदेशक को एक महिला शिक्षक की नियुक्ति परिवर्तन को स्वीकृत न प्रदान करने संबंधी आदेश अधिकारातीत है, वहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि वाद दीवानी प्रकृति का है और चलने योग्य है।
ध्रुवप्रीन फील्ड लि० बनाम हुकुम सिंह और अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 की भाषा से स्पष्ट है कि सभी प्रकार के सिविल प्रकृति के वादों को सुनने का न्यायालयों का क्षेत्राधिकार अत्यधिक विस्तृत है इसका मुख्य कारण यह सिद्धान्त है कि जहाँ अधिकार है, वहाँ उपचार है। यह अधिकारिता केवल वहीं सीमित हो सकती है जहाँ पर संविधि द्वारा अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से उसे उपवर्जित कर दिया गया है।
पी.एम.ए. मैटरोपोलिटेन बनाम मोरेन मार मारथौमा के बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जहाँ वाद ईसाइयों के पद से संबंधित है वहाँ भी वाद दीवानी प्रकृति का होगा। वाद जिन्हें दीवानी प्रकृति का माना जाता है |
1. एक सरकारी सेवक द्वारा अपने वेतन के बकाया के लिए लाया जाने वाला वाद।
2. पूजा करने का अधिकार।
3. धार्मिक या अन्य प्रकार का जुलूस निकालने का अधिकार।
4. मृत को दफनाने का अधिकार।
5. किसी व्यक्ति का संचालक या चेयरमैन की हैसियत संबंधी वाद।
6. मत (वोट) देने का अधिकार।
7. विशिष्ट अनुतोष का अधिकार।
8. दीवानी अपराध के लिए क्षतिपूर्ति का वाद।
9. प्रसंविदा के भंग पर क्षतिपूर्ति का अधिकार।
10. विवाह विच्छेद सं बंधी वाद।
11.पद के लिए वाद।
12. प्रबंधन संबंधी वाद।
13. भारक के लिए वाद।
14. घोषणा संबंधी वाद।
15. जन्म तिथि में सुधार संबंधी वाद।
16. जाति से निष्कासन सम्बन्धी |
17. प्रथा पर आधारित गोपनीयता का अधिकार|
मद्रास उच्च न्यायालय ने मेसर्स कैम्ब्रिज सल्यूसन लि० बंगलौर बनाम ग्लोबल साफ्टवेयर लि० एण्ड अदर्स (2009 मद्रास) के याद में यह अभिनिर्धारित किया है कि जहाँ वादी ने इस आधार पर डिवेन्चर प्राप्त करने का दावा किया है कि उन्हें कपटपूर्ण ढंग से कुर्क किया गया है, वहाँ सिविल न्यायालय को अधिकारिता प्राप्त है न कि ऋण वसूली अधिकरण (DRT) को ।
द्वारका प्रसाद अग्रवाल बनाम रमेश अग्रवाल (2003 S.C) के याद में एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक ने प्रेस को एक कम्पनी के पक्ष में पट्टा कर दिया जिसका वह भी एक सदस्य था। कम्पनी के अन्य एक सदस्य ने पट्टाकर्ता को बेदखल करने के उद्देश्य से एक वाद संस्थित किया। सर्वोच्च न्यायालय ने धारित किया कि सिविल न्यायालय धारा 9 में इस वाद की अधिकारिता रखता है और कम्पनी विधि द्वारा इस वाद की अधिकारिता सिविल न्यायालय में वर्जित नहीं है।
धारा 9 के स्पष्टीकरण 11 से यह स्पष्ट है कि जिस वाद में सम्पत्ति का अधिकार या पद का अधिकार विवादास्पद रहता है, वह सिविल प्रकृति का वाद है, चाहे ऐसा अधिकार धार्मिक संस्कारों या उत्सवों के विषय में प्रश्नों के निर्णय पर पूर्णतया निर्भर क्यों न हो। इससे स्पष्ट है कि यदि किसी वाद में जाति का या धार्मिक संस्कार एवं उत्सव का कोई प्रश्न मुख्य प्रश्न है तो वह सिविल प्रकृति का वाद नहीं होता। परन्तु जब –
(i) किसी बाद में जाति का प्रश्न या धार्मिक संस्कारों का प्रश्न गौण प्रश्न है;
(ii) मुख्य प्रश्न सिविल प्रकृति का है, जैसे किसी पद या सम्पत्ति का अधिकार; और
(iii) मुख्य प्रश्न जो सिविल प्रकृति का है जिसका विनिर्धारण जाति के प्रश्न या धार्मिक संस्कारों तथा उत्सवों के प्रश्न का विनिर्धारण किये बिना नहीं किया जा सकता। इन जातियों एवं धार्मिक संस्कारों एवं उत्सवों से सम्बन्धित प्रश्नों के विनिर्धारण की अधिकारिता जो मुख्य प्रश्न के विनिर्धारण के लिए आवश्यक है, सिविल न्यायालय रखता है।
बाद जो दीवानी प्रकृति के नहीं हैं- सामान्यतः उन वादों को दीवानी प्रकृति का वाद नहीं माना गया है जिसमें मुख्य विचारणीय प्रश्न दीवानी या विधिक अधिकार से संबंधित नहीं है। वे अधिकार जो किसी व्यक्ति में नागरिक की हैसियत से नहीं अपितु एक संस्था या समुदाय के एक सदस्य के रूप में विहित है सामान्यतः दीवानी अधिकार नहीं माने जाएंगे। संक्षेप में निम्न प्रकार के बाद दीवानी वाद नहीं है
(1) राजनैतिक प्रश्न सम्बन्धी वाद |
(2) जातिगत प्रश्नों से संबंधित वाद।
(3) धार्मिक कृत्यों या कर्मों से सम्बन्धित वाद।
(4) किसी पद के साथ जुड़ी हुई गरिमा की रक्षा के लिए वाद।
(5) गोपनीयता के अधिकार से संबंधित वाद।
(6) स्वेच्छ्या से किये गये भुगतान से सम्बन्धित वाद।
कोइल पिल्लई बनाम टेरी टोरियल कमिश्नर सैलवेशन आर्मी (1994 मद्रास) के मामले में न्यायालय ने कहा कि जहाँ विवाद पूजा के अधिकार को लेकर नहीं है अपितु विवाद का मुख्य कारण नामकरण के अनुष्ठान संबंधी व्यवहार को लेकर है, वहाँ दीवानी वाद ग्रहणीय नहीं है।
दीवानी प्रकृति का वाद के सिद्धान्त(Concept of Suit of a Civil Nature)
(1) धार्मिक जुलूस निकालने का अधिकार (Right For Religious Procession)
एक घोषणात्मक वाद, जिसमें प्रार्थना की जाय कि अमुक को धार्मिक जुलूस निकालने का अधिकार है, एक दीवानी प्रकृति का वाद होगा। सार्वजनिक मार्गों पर जुलूस निकालने का अधिकार दीवानी अधिकार है और किसी न्यायालय में ऐसे अधिकार के लिए वाद संस्थित किया जा सकता है।
(2) पर्दानशीन महिला का पर्दा रखने का अधिकार (Right to Keep Veil of Veiled Women)
सामान्यतः पर्दे का अधिकार या गोपनीयता का अधिकार किसी कानून के द्वारा मान्य नहीं है। अपवादस्वरूप इसे कहीं-कहीं स्थानीय प्रथाओं ने मान्यता प्रदान कर रखी है। दीवानी न्यायालयों को गोपनीयता के अधिकार के प्रवर्तन का कोई अधिकार नहीं है जब तक कि ऐसे अधिकार को कानूनी मान्यता न प्रदान कर दी जाय। अतः पदों का अधिकार दीवानी प्रकृति का नहीं हो सकता है।
(3) वोट का अधिकार (Right to Vote)
मत देने का अधिकार एक दीवानी अधिकार है और जब कभी इस अधिकार का हनन होता है, दीवानी वाद लाया जा सकता है। उदाहरणार्थ- एक व्यक्ति इस बात के लिए वाद संस्थित करता है कि यह घोषणा की जाए कि वह मत देने योग्य है। इसी प्रकार एम० के० श्रीवास्तव बनाम बताप (1932 मद्रास) में न्यायालय ने कहा कि जहाँ किसी कम्पनी के भागीदारों के मत देने के अधिकार का हनन होता है वे कम्पनी के विरुद्ध अपने अधिकार के प्रवर्तन के लिये वाद संस्थित कर सकते हैं।
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