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डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि पर लेख | The Execution of The Decree

डिक्री के निष्पादन
डिक्री के निष्पादन

डिक्री का निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि

वे प्रश्न जिनका अभिनिर्धारण डिक्री का निष्पादन करने वाला न्यायालय कर सकता है वे डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित होना चाहिये। डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित दो प्रकार के प्रश्न उठ सकते हैं। प्रथम, जहाँ डिक़ीदारों की संख्या एक से अधिक है, वहाँ उनके बीच और उनके प्रतिनिधियों के बीच ऐसे प्रश्न जिन पर निर्णय केवल उन्हें ही प्रभावित करते हैं और वे निर्णत ऋणी को प्रभावित नहीं करते और द्वितीय, वे प्रश्न जिन पर निर्णय निर्णत ऋणी को भी प्रभावित करते हैं।

ठीक उसी प्रकार दो प्रकार के प्रश्न निर्णीत ऋणी जहाँ उसकी संख्या एक से अधिक है उनके बीच या उनके प्रतिनिधि के बीच उठ सकते हैं। प्रथम, वे प्रश्न जिनसे केवल निर्णत ऋणी या उनके प्रतिनिधि प्रभावित होते हैं और द्वितीय, वे प्रश्न जिनसे डिक्रीदार भी प्रभावित होते हैं।

जहाँ बन्धक धन की वसूली के लिये एक अन्तिम डिक्री पारित की गई और ऐसी डिक्री के निष्पादन में नीलामी विक्रय किया गया, वहाँ ऐसी नीलामी डिक्री को धारा 47 के अन्तर्गत निरस्त किया जा सता है बशर्ते उस प्रारम्भिक डिक्री को जिस पर अन्तिम डिक्री आधारित है, अपील में उलट दिया गया हो।

ऐसा निर्णय उच्चतम न्यायालय ने सुवेन्द्र नारायन देव बनाम रेनुका विश्वास में दिया उच्चतम न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि नीलामी क्रेता को प्रारम्भिक डिक्री पर और उससे पहले वाद का पक्षकार नहीं माना जायेगा।

बनारस स्टेट टेनेन्सी अधिनियम की धारा 159 के अन्तर्गत उठे एक मामले उमाशंकर बनाम सर्वजीत में उच्चतम न्यायालय ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि जहाँ एक व्यक्ति भूमि पर एक समझौते की डिक्री के अन्तर्गत काबिज है, और उसे बाद में उस कब्जे से बेदखल कर दिया जाता है वहाँ वह कब्ज़े के लिये (उस स्वत्व के अधीन जो उसे समझौते के अन्तर्गत प्राप्त हुआ है) वाद संस्थित कर सकता है। ऐसा वाद धारा 47 से बाधित नहीं है क्योंकि बेदखली से नये वाद हेतुक की उत्पत्ति होती है।

होंगे डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों के उदाहरण समीचीन

(1) डिक्री के निष्पादन में गलती से ली गयी सम्पत्ति सम्बन्धी प्रश्न निर्णीत ऋणी ऐसी सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के लिये आवेदन कर सकता है और ऐसा प्रश्न डिक्री के निष्पादन से सम्बन्धी प्रश्न माना जायेगा। उसके लिये अलग से वाद नहीं संस्थित किया जा सकता है।

न्यायालयों को जो सामान्य शक्ति उन प्रश्नों के विनिश्चय के लिये, जिनका सम्बन्ध धारा 47 के अन्तर्गत निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से है, दी गई है का प्रयोग आदेश 21 नियम 2 जिसमें उपनियम (3) सम्मिलित है के प्रतिबन्यों के अधीन ही किया जा सकता है। अतः जहां डिक्री का समायोजन या भुगतान न्यायालय के बाहर किया गया है और जिसे आदेश 21 नियम 2 के अन्तर्गत सत्यापित / अभिलिखित नहीं किया गया है, उसे निष्पादन न्यायालय द्वारा मान्यता नहीं दी जायेगी।

(2) ऐसी डिक्री के निष्पादन में ली गई सम्पत्ति जिसे बाद में संशोधित (amend) कर दिया गया। ऐसी सम्पत्ति से सम्बन्धी प्रश्न।

(3) एकतरफा डिक्री (ex-part decree) के निष्पादन में दी गई सम्पत्ति जिसे निरस्त कर दिया गया है।

(4) डिक्री निष्पादन न करने का करार (agreement) सम्बन्धी प्रश्न |

(5) ठिक्री के पैसे का भुगतान कर दिया गया है या न्यायालय के बाहर उसका समायोजन (adjustment) कर दिया गया है, सम्बन्धी प्रश्न।

(6 ) बन्धक रखी गई विभिन्न सम्पत्तियों के आनुपातिक दायित्व से सम्बन्धित प्रश्न।

(7) वे सभी प्रश्न जो नीलामी खरीदने वाले व्यक्ति और निर्णीत-ऋणी के बीच उठते हैं उनका अवधारण निष्पादन करने वाले न्यायालय के द्वारा किया जाना चाहिये, न कि अलग बाद संस्थित करके। इन प्रश्नों के अन्तर्गत कब्जे का परिदान भी आता है।

(8) ऐसी सम्पत्ति के क्रेता को या उसके प्रतिनिधि को कब्जा देने से सम्बन्धित सभी प्रश्न इस धारा के अर्थ में डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या उसकी तुष्टि से सम्बन्धित प्रश्न समझे जायेंगे।

(9) कोई भी व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है कि नहीं, सम्बन्धी प्रश्न धारा 47 के अन्तर्गत आता है।

(10) जहाँ एक डिक्री के निष्पादन में निर्णत-ऋऋणी को अत्यधिक (excessive) सम्पत्ति अर्जित कर ली गई और सम्पत्ति को वापस करने के लिए आवेदन देता है, वहाँ ऐसा

प्रश्न का निर्धारण धारा 47 के अन्तर्गत किया जा सकता है, अलग वाद के द्वारा नहीं: परन्तु किसी डिक्री की वैधता से सम्बन्धित प्रश्न डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित प्रश्न नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार निर्णत ऋणी की सम्पदा का कुप्रशासन से सम्बन्धित प्रश्न धारा 47 के अन्तर्गत नहीं आता है।

निर्णीत ऋणी द्वारा बिक्री के पहले भुगतान सम्बन्धी प्रश्न भी धारा के प्रावधानों के अन्तर्गत नहीं आता है। ऐसे प्रश्न भी जो किसी पक्षकार और उसके स्वयं के प्रतिनिधि के बीच उठते हैं डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से सम्बन्धित प्रश्न नहीं माने जायेंगे। ऐसे पक्षकार से सम्बन्धित प्रश्न जिसे निष्पादन के प्रक्रम (stage) पर जोड़ा गया है इस धारा के अधीन नहीं आता।

जहाँ एक विशेष अनुमति याचिका 12 वर्ष पहले उच्चतम न्यायालय द्वारा खारिज की गई थी, और इसी से सम्बन्धित एक अर्न्तवर्ती आवेदन उच्चतम न्यायालय में दिया गया जिसमें स्वत्व (Title) और धोखा का प्रश्न उठाया गया, वहाँ उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स देवी दयाल रोलिंग मिल्स बनाम प्रकाश चिमन लाल पारिख नामक वाद में अभिनिर्धारित किया कि स्वत्व और धोखा का प्रश्न, न तो विशेष अनुमति याचिका (संविधान के अनुच्छेद 136 या 142 में और न तो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47 के अन्तर्गत और न ही अर्न्तवर्ती आवेदन में उठाया जा सकता है।

जहां याचिकाकर्ताओं को सिविल कोर्ट ने तृतीय श्रेणी का कर्मचारी घोषित किया, डिक्री अन्तिम और निश्चायक हो गई, उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर वह प्रार्थना किया गया कि कालेज प्राधिकारियों को यह निर्देश दिया जाय कि वे सिविल कोर्ट की घोषणा के अनुसार अनुतोष प्रदान करें, वहां उच्च न्यायालय ऐसा अनुतोष प्रदान कर निष्पादन न्यायालय के रूप में कार्यकर्ता नहीं माना जा सकता।

पंचाट के बारे में आक्षेप या तो निर्णीत ऋणी द्वारा विवाचक के समक्ष लाया जाना चाहिये या विचारण न्यायालय के समक्ष जब आवेदन पंचाट को निरस्त करने के लिये दिया जा रहा है। पंचाट जब अन्तिमता ग्रहण कर ले एक सिविल न्यायालय की डिक्री के समान तब आक्षेप नहीं स्वीकार किया जा सकता निष्पादन को कार्यवाही में।

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