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तृतीय गोलमेज सम्मेलन (Third Round Table Conference)
तृतीय गोलमेज सम्मेलन- साम्प्रदायिक समस्या का समाधान न निकाल पाने के कारण द्वितीय गोलमेज सम्मेलन विफल रहा तथा वह 17 सितम्बर, 1931 को समाप्त हुआ। इस घोषणा के साथ ‘ब्रिटिश प्रधानमन्त्री’ तथा हमारे रास्ते अलग-अलग हैं’ गांधी जी लन्दन से स्वदेश रवाना हुए और वह 28 दिसम्बर, 1931 को बम्बई पहुँचे। सम्मेलन की विफलता और समाप्ति के साथ ही वायसराय लार्ड विलिंगडन के इशारे पर ब्रिटिश नौकरशाही ने गांधी इर्विन समझौते का खुला उल्लंघन करते हुए भारत में दमनचक्र तेज कर दिया। स्वदेश वापस आने के बाद यह स्थिति देखकर गांधी जी ने इसके बारे में वायसराय से वार्ता का प्रस्ताव किया परन्तु उनके नकारात्मक उत्तर के कारण उन्होंने 3 जनवरी, 1932 से पुनः सविनय अवज्ञा आन्दोलन प्रारम्भ करने का आह्वान किया। उनके साथ ही अन्य कांग्रेसी नेताओं की व्यापक पैमाने पर गिरफ्तारी शुरू हुई तथा सरकार का दमन चक्र दिन प्रतिदिन अपेक्षाकृत और अधिक तेज होता गया।
इस वातावरण में ही ब्रिटिस प्रधानमन्त्री रँमजे मैकडॉनल्ड ने भारत की साम्प्रदायिक समस्या के हल के लिए 16 अगस्त, 1933 को अपने एक ऐसे निर्णय की घोषणा की जो ‘फूट डालो और ‘शासन करो’ को ब्रिटिश नीति का ही कुत्सित रूप था। इसमें जाति और धर्म के भेदभाव का अपेक्षाकृत और अधिक उग्र करने की व्यवस्था थी। इसमें स्त्रियों, भारतीय ईसाईयों और दलित वर्ग के लिए प्रतिनिधित्व की व्यवस्था कर राष्ट्रीयता की भावना पर करारा प्रहार किया गया था। इस षड्यन्त्रपूर्ण एवं घृणित निर्णय में दलित वर्ग को हिन्दुओं से अलग करने की साजिश की गयी थी, उसके विरोध में महात्मा गांधी ने 20 सितम्बर, 1932 को यर्वदा जेल में आमरण अनशन प्रारम्भ किया जो पूना समझौते के फलस्वरूप 26 सितम्बर, 1932 को समाप्त हुआ। इस निर्णय (मैकडानल्ड अवार्ड) से मुस्लिम साम्प्रदायिकता को काफी बल मिला। सरकारी नीति के विरोध में भारत के समझौतेवादी नेता तेजबहादुर सप्रू, डाक्टर जयकर और एम. एस. जोशी ने वायसराय की सलाहकार समिति से इस्तीफा दे दिया। सरकार द्वारा भारत को भावी संवैधानिक व्यवस्था की रूपरेखा घोषित किये जाने पर ही उनकी मनःस्थिति का परिवर्तन हुआ।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के पुनः प्रारम्भ होने ‘मैकडानल्ड अवार्ड’ के विरोध में जागृत जनमत, पूना समझौते के फलस्वरूप सवर्ण हिन्दुओं एवं दलित वर्ग के बीच समस्या के समाधान तथा भारत के समझौतेवादी नेताओं की क्षुब्ध मानसिकता के वातावरण में ब्रिटिश शासन ने भारतीय समस्याओं के समाधान के लिए नवम्बर महीने में गोलमेज सम्मेलन आहूत करने की सेण्ट्रल असेम्बली में घोषणा की। इस घोषणा के अनुसार 17 नवम्बर, 1932 को तीसरा गोलमेज सम्मेलन शुरू हुआ और वह 24दिसम्बर तक चला। उसमें कुल 46 प्रतिनिधियों ने ही भाग लिया। यह पहले के दो गोलमेज सम्मेलनों के प्रतिनिधियों की संख्या की तुलना में बहुत कम थी । उसमें कांग्रेस तथा ब्रिटेन की लेबर पार्टी के प्रतिनिधियों ने भाग नहीं लिया।
भारतीय तथा देशी रियासतों के जिन प्रतिनिधियों ने भाग लिया, वे सभी के सभी कट्टर राजभक्त और सरकार द्वारा मनोनीत थे। ब्रिटेन की तरफ से भारत के पूर्व वायसराय लार्ड इर्विन तथा सर जान साइमन ने भी उसमें भाग लिया। सम्मेलन ने 17 नवम्बर से 24 दिसम्बर के बीच विभिन्न कमेटियों की सन्तुतियों पर विचार विमर्श किया तथा उसके समापन पर भारत मन्त्री सैमुअल होर ने घोषणा की कि प्रान्तीय स्वायत्तता एवं संघीय व्यवस्था, दोनों ही आवश्यक लक्ष्य के रूप में हैं संघीय परन्तु व्यवस्था की स्थापना की तिथि निश्चित नहीं की जा सकती है। वायसराय रक्षा बजट तय करेंगे। वह असेम्बली में पारित नहीं किया जायेगा। भारतीय सेवाओं तथा अन्य रक्षा सेवाओं पर ब्रिटिश सम्राट का पूर्ण नियन्त्रण होगा परन्तु संघीय व्यवस्थापिका की अनुमति के बिना भारतीय सेना बाहर नहीं भेजी जायेगी। सिन्ध और उड़ीसा अलग प्रान्त बना दिये जायेंगे तथा संघीय असेम्बली में मुसलमानों के लिए एक तिहाई स्थान सुरक्षित होंगे।
भारत उदारवादी प्रतिनिधियों को छोड़कर कोई भी इस सम्मेलन की उपलब्धियों सन्तुष्ट नही था। भारत की देशी रियासतों के प्रतिनिधि इसलिए असन्तुष्ट थे कि उन्हें इस बात की आशंका थी कि संघीय व्यवस्था से उनके अधिकारों की रक्षा नहीं हो सकेगी। बजट और रक्षा सेवाओं के बारे में वायसराय को दिये जाने वाले अधिकारों तथा प्रान्तीय गवर्नरों के विशेषाधिकारों को भारतीय राष्ट्रवादी अपने देश का अपमान मानते थे। चतुर्दिक असन्तोष के बावजूद इस सम्मेलन की यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही कि इसने भारत की भावी संघीय व्यवस्था की रूपरेखा तय करने का मार्ग प्रशस्त किया। गोलमेज सम्मेलनों का ही यह फल रहा कि भारत की भावी संवैधानिक व्यवस्था की रूपरेखा तय 5. करने वाला एक श्वेतपत्र मार्च, 1933 में प्रकाशित किया गया।
श्वेतपत्र (मार्च, 1933 )
जनवरी, 1932 में पुनः शुरू किया गया सविनय अवज्ञा आन्दोलन अपने प्रारम्भिक चरण बहुत तेज़ रहा परन्तु धीरे-धीरे उसकी शक्ति कम होने लगी। इसी बीच 17 नवम्बर से 24 में तो दिसम्बर, 1932तक तीसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ। इसके निर्णयों के परिणामस्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों में मार्च, 1993 में सरकार ने एक श्वेतपत्र प्रकाशित किया जिसमें भारत को भावी संवैधानिक व्यवस्था की रूपरेखा पर प्रकाश डाला गया था। यह एक ठोस योजना के रूप में था जिसका ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के दोनों सदनों की एक संयुक्त प्रवर समिति ने परीक्षण किया एवं कुछ संशोधनों के साथ इसे अपनी स्वीकृति प्रदान की तथा जो साइमन कमीशन की रिपोर्ट और मैकडॉनल्ड अवार्ड पर आधारित था। इसमें भारत की संघीय व्यवस्था, केन्द्र में उत्तरदायी शासन, प्रान्तीय स्वायत्तता, वैधानिक एवं वित्तीय संरक्षण तथा वायसराय एवं प्रान्तीय गवर्नरों के दायित्वों की रूपरेखा निर्धारित की गयी थी।
इसमें देशी रियासतों के सहयोग से अखिल भारतीय संघ तथा केन्द्र में प्रतिबन्धित उत्तरदायी शासन व्यवस्था का प्रस्ताव था। वायसराय को व्यापक विशेषाधिकार परन्तु प्रान्तीय गवर्नरों को प्रतिबन्धित विशेषाधिकार देने तथा प्रतिबन्धित प्रान्तीय स्वायत्तता की व्यवस्था करने का भी प्रस्ताव था। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के आधार पर पृथक निर्वाचन का भी इसमें उल्लेख था।
यों तो इस श्वेतपत्र ने भारत की भावी संवैधानिक व्यवस्था की रूपरेखा पर प्रकाश डालते हुए आगे चलकर निर्मित होने वाले भारत अधिनियम 1935 की आधारशिला तैयार की परन्तु ब्रिटेन की ‘कंजरवेटिव पार्टी’ और ‘लिबरल पार्टी’ को छोड़ प्रायः सभी ने इसकी सामान्य अथवा कटु आलोचना की। ब्रिटिश पार्टी के नेता एटली ने इसकी इस आधार पर आलोचना की कि इसमें भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य देने की ब्रिटेन की प्रतिज्ञा को स्पष्ट उपेक्षा की गयी है। भारत की सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली और प्रान्तीय व्यवस्थापिकाओं में इसकी कटु आलोचना की गयी।
भारतीय लिबरल फेडरेशन ने वैधानिक एवं वित्तीय संरक्षण, प्रतिबन्धित संघीय एवं केन्द्र में प्रतिबन्धित उत्तरदायी व्यवस्था तथा वायसराय एवं प्रान्तीय गवर्नरों के विशेषाधिकारों पर प्रहार किया। कांग्रेस पार्टी की कार्य समिति ने जून, 1934 में प्रस्ताव स्वीकृत कर इसकी कटु आलोचना की तथा इसे अस्वीकार कर दिया। उसके पृथक् निर्वाचन और साम्प्रदायिक निर्णय का जमकर विरोध परन्तु न तो उसे स्वीकार और न तो उसे अस्वीकार ही किया। हिन्दू महासभा ने भी पृथक् निर्वाचन और साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का विरोध करते हुए इसकी आलोचना की। मुस्लिम लीग भी इससे सन्तुष्ट नहीं थी। प्रान्तीय स्वायत्तता का तो उसने स्वागत किया परन्तु संघीय व्यवस्था के प्रस्ताव की आलोचना की।
पं. जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोष ने पृथक् निर्वाचन एवं साम्प्रदायिक निर्णय पर कड़ा प्रहार करते हुए कांग्रेस कार्यसमिति की भी इस बात के लिए आलोचना की कि उसने राष्ट्रवादी मुसलमानों के दबाव में आकर इसे अस्वीकार नहीं किया। सुभाषचन्द्र बोष ने तो राष्ट्रवादी मुसलमानों पर भी यह आरोप किया कि वे इस मामले में साम्प्रदायिक मुसलमानों के मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं। पं. जवाहर लाल नेहरू के अनुसार साम्प्रदायिक निर्णय से ब्रिटिश अधीनता अनिवार्य हो जायेगी। सी. वाई. चिन्तामणि ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि इसके प्रस्ताव इतने प्रतिक्रियावादी हैं कि ये प्रगतिशील लोकमत के प्रत्येक वर्ग के लिए पूर्णतः अस्वीकार्य है। इन समस्त आलोचनाओं के बावजूद ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने इस श्वेतपत्र के आधार पर ही अगस्त, 1935 में भारत सरकार अधिनियम 1935 पारित किया।
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