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तुलसीदास के काव्य की काव्यगत विशेषताएँ
तुलसी का कलापक्ष
तुलसीदास को भाव के क्षेत्र में जितनी सफलता प्राप्त हुई है, उतनी ही उनको कला के क्षेत्र में भी प्राप्त हुई है। कला के क्षेत्र में भी वे एक देदीप्यमान नक्षत्र हैं। महाकवि हरिऔध ने उन्हें सर्वतोमुखी प्रतिभा का कवि कहा है- “हिन्दी काव्य क्षेत्र में तुलसी जैसी सर्वतोमुखी. प्रतिभा लेकर कोई कवि अवतीर्ण नहीं हुआ। हिन्दी की कवि परम्परा में उनका स्थान सर्वोपरि है। भारत के इस सपूत की लेखनी का स्पर्श पाकर कविता जैसे कृत-कृत्य हो उठी। वस्तुतः-
“कविता करके तुलसी न लसे कविता लसी पा तुलसी की कला।”
वास्तव में तुलसी के काव्य में जैसा भावपक्ष सशक्त और अनुपम है उनकी अभिव्यक्ति पद्धति वैसी ही समृद्ध और सशक्त है। डॉ० विजयेन्द्र स्नातक ने तुलसी के काव्य-कौशल के विषय में सत्य ही लिखा है-
“लोकनायक तुलसीदास हिन्दी काव्य-जगत् के सबसे अधिक देदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनकी काव्य प्रतिभा और पांडित्य का प्रभुत्व देश, काल की सीमा का अतिक्रमण कर आज सार्वकालिक और सार्वभौमिक होकर सर्वत्र व्याप्त हो गयी है। उनकी काव्य-शैलियाँ अपनी प्रसूत भाव सामग्री, अभिव्यक्ति पद्धति, समृद्ध भाषा शैली, प्रचुर कल्पना सूक्ति, अद्भुत वस्तुविन्यास और उत्कृष्ट काव्य-कौशल के कारण हिन्दी-काव्य में श्रेष्ठ समझी जाती है ।”
श्रीयुलू सारंग ने तुलसी की कलात्मकता पर प्रकाश डालते हुए कहा है- “तुलसी की भावभूमि जहाँ इतनी व्यापक है, महान् है, वहाँ उनकी अभिव्यंजना शक्ति में उतनी ही गहनता और तीव्रता है। इतना अवश्य है कि तुलसी ने काव्य का वह विकृत रूप हमारे सामने नहीं रखा जो हमारे हृदय में मर्मस्थल को स्पर्श नहीं करता, रस का उद्रेक करते हुए हमारी अनुभूतियों को नहीं जगाता, वरन् कुतूहल मात्र ही उत्पन्न करता है। इसलिए तुलसी की वाणी, शब्दों की कलाबाजी और उक्तियों की झूठी तड़क-भड़क में नहीं उलझी ।” तुलसी से पूर्व काव्य की भाषा अव्यवस्थित, अनगढ़ एवं विशृंखलित थी । कबीर की भाषा सधुक्कड़ी होने के कारण, उसमें अरबी फारसी आदि के शब्दों का समावेश था। उनकी भाषा कला का स्पर्श तक नहीं कर पायी थी। सूफी कवियों जायसी आदि की भाषा यद्यपि अवधी थी परन्तु इन कवियों की भाषा में तुलसी जैसी कला नहीं थी। उनकी भाषा भी लोक-जीवन के व्यवहार की भाषा थी । तुलसीदास ने अपनी भाषा को प्रवाहमयता, कमनीयता, सजीवता एवं शालीनता से भरकर भाषा को समृद्ध किया।
तुलसीदास का भाषात्मक सौन्दर्य- तुलसीदास का ब्रज व अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार है। ब्रज एवं अवधी, दोनों ही भाषाओं को उन्होंने अपने काव्य का माध्यम बनाया। रामचरितमानस परिष्कृत अवधी का ज्वलंत उदाहरण है। विनयपत्रिका, गीतावली आदि में ब्रजभाषा का जीवित रूप व्यंजित होता है। तुलसीदास ने जहाँ अपने काव्य में कोमलकान्त पदावली का प्रयोग किया है वहाँ ओज की भी सुन्दर व्यंजना उन्होंने अपने काव्य में की है। तुलसी के भाषा सौंदर्य पर प्रकाश डालते हुए डॉ० श्यामसुन्दरदास ने लिखा है-
‘“इसी उद्देश्य से गोस्वामीजी को संस्कृत का विद्वान् होने पर भी उस देववाणी की ममता छोड़कर जनवाणी का आश्रय लेने के लिए बाध्य किया था। संस्कृत जिसमें अब तक रामकथा संरक्षित थी। इससे ‘रामचरित मानस’ का आनन्द पूर्ण लाभ सर्वसाधारण न उठा सकता था। इसी से गोस्वामीजी की भाषा में रामचरित मानस लिखने की प्रेरणा हुई।”
भाषा की प्राञ्जलता एवं परिष्कृतता- तुलसीदास की भाषा में प्राञ्जलता एवं परिष्कृतत्व का पूर्ण योग है। वस्तुतः तुलसी ने अवधी एवं ब्रजभाषा में प्राञ्जलता व परिष्कृतता की वास्तविकता को समावेशित किया। तुलसी की भाषा में ओज, प्रसाद और माधुर्य तीनों गुण हैं। एक ओर अवधी की ठेठ मिठास है तो दूसरी ओर संस्कृत की कोमलकान्त पदावली की ” नूतन छटा है। देखिए-
कन्दर्प अगणित अमित छवि, नव नील नीरज सुन्दरम् ।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुताम्बरम्।
भज दीन बंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकन्दनम् ।
रघुनंद आनंद कंद कौशल चन्द्र दशरथ नंदनम् ।।
चित्रोपमता- तुलसी का भाषा पर साधिकार होने के कारण उन्होंने मर्मस्थली वर्णनों में चित्र-सा उपस्थित कर दिया है। देखिए-
जहाँ तहाँ बुबुकि विलोकि बुकारी देत, जरत निकेत धायो-धायो लागी आगि रे ।
हाथी छोरो, घोरा छोरो महिष वृषभ छोरो, छेरी छोरो सौवे सो जागयौ जागि- जागि रे ।।
ध्वन्यात्मकता से ध्वन्यात्मकता का भाषा में अपना विशेष महत्त्व होता है। ध्वन्यात्मकता भाषा उत्कृष्ट रूप से प्राप्त होती है। शृंगार रस पूर्ण ‘मानस’ की इन पंक्तियों में एक ध्वनि-चित्र देखें-
कंचन किंकिंन नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सम राम हृदय गुनि ।।
सीताजी के कंकन कटिबन्ध एवं नूपुरों की ध्वनि शब्द चित्र अत्यन्त सुन्दर है। विविध
भाषाओं के शब्दों का प्रयोग- तुलसीदास ने अपनी भाषा में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, उर्दू, फारसी, राजस्थानी, गुजराती, बुन्देलखण्डी, भोजपुरी आदि भाषाओं के शब्दों को ग्रहण किया है। यथा-
(1) मसक की पाँसुरी पयोधि परियत है-
(2) रामबोला नाम, हो गुलाम रामसाहिब को-
प्रचलित मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग- मुहावरे एवं लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में सजीवता एवं सशक्तता आ जाती है। तुलसीदास ने अपने समय में प्रचलित मुहावरों का प्रयोग अपनी भाषा में खूब किया है। एक-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
(1) बात चले बात को न मानिवो बिलग, बलि,
काकी सेवा रीझि कै निवाजी रघुनाथ जू ।।
(2) पल टारति नाहीं ।
(3) प्रसाद पाय राम को पसारि पाँय सूति हौं।
प्रचलित लोकोक्तियों का प्रयोग भी तुलसीदास ने खूब किया है। इन लोकोक्तियों के प्रयोग ने इनकी भाषा में प्राण डाल दिए हैं। देखिए-
(क) अंजन कहा आँख जेहि फूटै बहुतन कहाँ कहाँ करै ।
(ख) तुलसीदास सावन के अंधेहि जो सूझत रंग हर्यो ।
(ग) लैवै को एक न दैवे को दोऊ।
(घ) मन मोद कनि भूख बुझाई
(ङ) माँगि के खैबौ मसीदत को सोइबौ ।
शब्द-शक्तियाँ- शब्दों का उचित प्रयोग काव्य का प्राण है। इससे ही काव्य में निश्चितता, स्पष्टता, प्रवाह, सरसता एवं प्रौढ़ता आती है। जो कवि शब्दों को नगीने की भाँति जड़ सकता है वही सफलता पर सुन्दर मुकुट बाँधता है। तुलसी ने अपने काव्य में अभिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों शब्द-शक्तियों का प्रयोग किया है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है तुलसी की भाषा में प्रसंगानुकूलता तो कहीं संस्कृतगर्भिता तो कहीं मुहावरों के प्रयोग द्वारा भाषा को सम्पन्न बनाया है। भाषा में समाहार की सजीवता दर्शनीय है। डॉ० राजपति दीक्षित ने तुलसी की भाषा की विशिष्टता पर प्रकाश डालते हुए कहा है- “संस्कृत तत्सम् शब्दों का प्रचुर प्रयोग उन्होंने साभिप्राय किया है। इनके द्वारा एक ओर तो उन्होंने भाषा को शिष्ट रूप दिया और महत्तम और उन्नतम भावो का वाहक और प्रकाशक बनाया और दूसरी ओर उन्हें देश भाषा के संयत और मनोरम साँचे में ढाल कर चलनसार और टकसाली रूप दे दिया। उनकी यह भाषा-निर्माण की कला अपूर्व है। जिस कारीगरी से उन्होंने संस्कृत शब्दों को देशी रूप दिया, संस्कृत की जमीन पर पहले प्रांतीय भाषा का रंग चढ़ाया और फिर हिन्दी प्रत्ययों और विभक्तियों के बूटे जड़कर हिन्दी-धातुओं की गोट लगा दी वह सारी मोहक और प्रांजल छटा उन्हीं का निर्माण है। हमारी मातृभाषा ने उनसे प्राप्त किया हुआ यह परिधान बड़े गौरव के साथ धारण किया ।” इस सन्दर्भ में डॉ० मनहर गोपाल भार्गव का कथन दर्शनीय है-
“तुलसी शब्दों के अनुगामी नहीं, वरन् शब्द उनके अनुगामी थे। संस्कृत की शत-शत उक्तियों एवं उद्धरिणियों को आत्मसात करके उसमें निज- नवीनता, सरसता एवं मौलिकता का पुट देना, शब्दों को सहज स्फुरण, सरस-संवेग, कोमल कुहुक, परिपक्वता, अर्थमयता आदि गुणों से युक्त करना तथा पर्यायवाची शब्दों के अर्थों के सूक्ष्मान्तरों को ध्यान में रखकर उनका प्रयोग करना- एक महान् साधक का काम है, जो निरन्तर, सतत एवं अनवरत साधना के बिना सम्भव नहीं। तुलसी एक महान् शब्द साधक थे। उन्होंने अहरह शब्द – साधना की थी, अतएव उनकी कीर्ति अक्षय होकर दिग्दिगन्त व्याप्त हुई ।”
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