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लोक पर प्रभाव डालने वाले कार्यों के विरुद्ध वाद कब दायर किया जा सकता है?

लोक पर प्रभाव डालने वाले कार्यों के विरुद्ध वाद कब दायर किया जा सकता है?
लोक पर प्रभाव डालने वाले कार्यों के विरुद्ध वाद कब दायर किया जा सकता है?

लोक पर प्रभाव डालने वाले कार्यों के विरुद्ध वाद कब दायर किया जा सकता है? – सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 92 में लोकपूर्त कार्यों का वर्णन हैं। धारा 92 के अनुसार (1) पूर्त या धार्मिक प्रकृति को लोक प्रयोजनों के लिये सृष्ट किसी अभिव्यक्त या आन्वयिक न्यास के किसी अभिकथित भंग के मामले में, या जहाँ ऐसे किसी न्यास के प्रशासन के लिये न्यायालय का निर्देश आवश्यक समझा जाता है।

वहाँ महाधिवक्ता या न्यास में हित रखने वाले ऐसे दो या अधिक व्यक्ति, जिन्होंने न्यायालय की इजाजत अभिप्राप्त कर ली है, ऐसा वाद, चाहे वह प्रतिरोधात्मक हो या नहीं, आरम्भिक अधिकारिता वाले प्रधान सिविल न्यायालय में या राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त सशक्त किये गये किसी अन्य न्यायालय में, जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर न्यास की सम्पूर्ण विषय वस्तु या उसका कोई भाग स्थित है, निम्नलिखित डिक्री अभिप्राप्त करने के लिये संस्थित कर सकेंगे।

(क) किसी न्यासी को हटाने की डिक्री;

(ख) नये न्यासी को नियुक्त करने की डिक्री;

(ग) न्यासी में किसी सम्पत्ति को निहित करने की डिक्री;

(ग) ऐसे न्यासी  को जो हटाया जा चुका है या ऐसे व्यक्ति को जो न्यासी नहीं रह गया है; अपने कब्जे मेंकी किसी न्यास-सम्पत्ति का कब्जा उस व्यक्ति को जो उस सम्पत्ति के कब्जे का हकदार है, परिदत्त करने का निर्देश देने की डिक्री;

(घ) लेखाओं और जाँचों को निर्दिष्ट करने की डिक्री,

(ड़) यह घोषणा करने की डिक्री के न्यास सम्पत्ति का या उसमें के हित का कौन-सा अनुपात न्यास के किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिये आवण्टित होगा;

(च) सम्पूर्ण न्यास-सम्पत्ति या उसके किसी भाग का पठ्ठे पर उठाया जाना, विक्रय किया जाना, बन्धक किया जाना या विनिमय किया जाना प्राधिकृत करने की डिक्री

(छ) स्कीम स्थिर करने की डिक्री अथवा

(ज) ऐसा अतिरिक्त या अन्य अनुतोष अनुदत्त करने की डिक्री जो मामले की प्रकृति से अपेक्षित हो।

(2) उसके सिवाय जैसा धार्मिक विन्यास अधिनियम, 1863 द्वारा या उन राज्य क्षेत्रों में, जो 1 नवम्बर, 1956 के ठीक पूर्व भाग, ख राज्यों में समाविष्ट थे, प्रवृत्त तत्समान किसी विधि द्वारा उपबन्धित है, उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट अनुतोषों में से किसी के लिये दावा करने वाला कोई भी वाद ऐसी किसी न्यास के सम्बन्ध में जो उसमें निर्दिष्ट है, उस उपधारा के उपबन्धों के अनुरूप हो संस्थित किया जायेगा, अन्यथा नहीं।

(3) न्यायालय, पूर्व या धार्मिक प्रकृति के लोक-प्रयोजनों के लिये सृष्ट किसी अभिव्यक्त या आन्वयिक न्याय के मूल प्रयोजनों में परिवर्तन कर सकेगा और ऐसे न्यास की सम्पत्ति या आय को अथवा उसके किसी भाग को निम्नलिखित में से एक या अधिक परिस्थितियों में समान उद्देश्य के लिये उपयोजित कर सकेगा, अर्थात्

(क) जहाँ न्यास के मूल प्रयोजन पूर्णतः या

(i) जहाँ तक हो सके पूरे हो गये हैं, अथवा भागतः

(ii) क्रियान्वित किये ही नहीं जा सकते हैं यह न्यास को सृष्ट करने वाली लिखित में दिये गये निर्देशों के अनुसार या जहाँ ऐसी कोई लिखित नहीं है वहाँ न्यास की भावना के अनुसार क्रियान्वित नहीं किये जा सकते हैं, अथवा

(ख) जहाँ न्यास के मूल प्रयोजनों में न्यास के आधार पर उपलब्ध सम्पत्ति के केवल एक भाग के उपयोग के लिये ही उपबन्ध है, अथवा

(ग) जहाँ न्यास के आधार पर उपलब्ध सम्पत्ति और समान प्रयोजन के लिये उपयोजित की जा सकने वाली अन्य सम्पत्ति का न्यास की भावना और समान प्रयोजन के लिये उसके उपयोजन को ध्यान में रखते हुये किसी अन्य प्रयोजन के साथ-साथ अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है और वह उस उद्देश्य से किसी अन्य प्रयोजन के लिये उपयुक्त रीति से उपयोजित की जा सकती है, अथवा

(घ) जहाँ मूल प्रयोजन पूर्णतः ”भागतः किसी ऐसे क्षेत्र के बारे में बनाये गये थे जो ऐसे प्रयोजनों के लिये उस समय एक इकाई था किन्तु अब नहीं रह गया है, अथवा

(i) मूल प्रयोजनों के बनाये जाने के पश्चात् पूर्णतः या भागतः अन्य साधनों से पर्याप्त रूप से व्यवस्था कर दी है, अथवा

(ii) मूल प्रयोजन बनाये जाने के पश्चात् पूर्णतः या भागतः समाज के लिये अनुपयोगी या अपहानिकर होने के कारण समाप्त हो गये हैं,

(ii) मूल प्रयोजन बनाये जाने के पश्चात् पूर्णतः या भागतः विविध के अनुसार पूर्त नहीं रह गये हैं, अथवा

(iv) मूल प्रयोजन बनाये जाने के पश्चात् या भागतः न्यास की भावना को ध्यान में रखते हुये, न्यास के आधार पर उपलब्ध सम्पत्ति और उपयुक्त और प्रभावी उपयोग के लिये किसी अन्य रीति से उपबन्ध नहीं करते हैं।

लोक पर प्रभाव डालने वाले कार्य के उद्देश्य

इस धारा का उद्देश्य लोक-न्यासों में जनता का सर्वजन के करना है तथा जनता को, राज्य के महाधिवक्ता को एवं न्यायालयों को समर्थ बनाना है ताकि वे अधिकारों की रक्षा

ऐसे खैराती या धार्मिक संस्थाओं की आय के दुरुपयोग को रोक सकें। इस धारा के प्रावधान लोक-न्यासों पर लागू होते हैं न कि निजी न्यास पर। धारा का लागू होना- इस धारा के लागू होने के लिये निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है।

(2) बाद में अधिकथन यह है कि न्यास-भंग हुआ है या न्यास के प्रशासन के लिये न्यायालय के निर्देश की आवश्यकता है।

(3) बाद में जिसे अनुतोष का दावा किया गया है वह धारा 92 में उल्लिखित अनुतोषों में से कोई है।

(4) वाद प्रतिनिधि वाद होना चाहिये, लोकहित में न कि व्यक्तियों द्वारा अपने हित में। यदि इन शर्तों में से किसी एक का भी समाधान नहीं हुआ है तो प्रश्नगत वाद धारा 92 की सीमा क्षेत्र से बाहर की जाता है।

वाद ग्रहण की अधिकारिता

जहां तक धारा 92 के अन्तर्गत वादों का सम्बन्ध है वहां जिला न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालयों को समवर्ती अधिकारिता होगी, धन सम्बन्धी सीमा (धन सम्बन्धी क्षेत्राधिकार) पर ध्यान दिये बिना अर्थात् इस सम्बन्ध में धन सम्बन्धी अधिकारिता का कोई महत्व नहीं है।

यहाँ यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि इस धारा के अधीन वाद प्रतिनिधि वाद होना चाहिये जो लोकहित में हो न कि व्यक्तियों के अपने हित के लिये। इस धारा के लागू होने के लिये वास्तविक परख यह है कि क्या वाद मूल रूप से जनता के लिये लोक अधिकार को रक्षा के लिये है और इस परख को लागू करने के लिये न्यायालय के लिये यह आवश्यक है कि वह वाद सार (substance) को देखे न कि प्रारूप (form) को

निजी और लोक न्यास में अन्तर

धारा 92 के अधीन वाद तभी संस्थित किया जायेगा जब लोकहित निहित हो। निजी और लोक-न्यास में अन्तर है कि जहाँ निजी न्यास में हिताधिकारी (beneficiaries) विशिष्ट व्यक्ति होते हैं लोक-न्यास में हिताधिकारी सामान्य जनता या उसका एक वर्ग होता है। निजी न्यास में हिताधिकारी विनिश्चित है या विनिश्चित किये जा सकते हैं किन्तु लोक न्यास में हिताधिकारी एक निकाय का रूप धारण करते हैं और उनको

विनिश्चत नहीं किया जा सकता। जहाँ बाद मन्दिर के प्रबन्ध से सम्बन्धित है, सार्वजनिक न्यास का निर्माण किया गया है, सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन अधिनियम के अन्तर्गत पंजीकृत है, वहाँ केवल उच्च न्यायालय ने सुकुमारन बनाम ए० एस० धर्म संस्था आइडल नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि न्यास

के पंजीकरण के नाते सम्पत्ति की प्रकृति और चरित्र नहीं बदला जायेगा। धारा 92 के प्रावधान यहाँ लागू होंगे। उपरोक्त बाद प्रतिमा के लिये वाद मित्र द्वारा संस्थित किया गया था। न्यायालय अभिनिर्धारित किया कि वाद चलाने योग्य है।

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