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World Literacy Day – भारत के परिप्रेक्ष्य में
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World Literacy Day-भारत हमेशा से ही विश्व गुरु रहा है मगर आज के दौर मे हमारे देश में साक्षरता का स्तर काफी निचे है। शिक्षा का मानव जीवन में उपादेयता बहुत अधिक है, वैसे भी साक्षर होना अति आवश्यक है जिससे व्यक्ति को अपने मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों का बोध हो और वह समाज के प्रति अपने अधिकारों और दायित्व का निर्वहन अच्छे से कर सके। हमारे देश की 70 % जनता गांवों में निवास करती है जो गरीबी, अंधविश्वास, अशिक्षा के कारण कई प्रकार के शोषण का शिकार होते रहते हैं। साक्षरता आंदोलनों ने इस तरह के कई रूढ़िवादी, जाति, धर्म, स्थानीय और प्रांतीय भेदभाव की सीमाओं को तोड़ा है और लोगों को जागरूक किया है।
भारत में साक्षरता के बढ़ते कदम
अनेकता में एकता को पिरोये भारत विश्व की सबसे पुरानी सम्यताओं में से एक है जहाँ बहुरंगी विविधता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत समाहित है। इसके साथ ही यह अपने-आप को बदलते समय के अनुरूप ढालती भी आई है। आजादी पाने के बाद पिछले 65 वर्षों में भारत ने चहुँओर बहुआयामी, सामाजिक और आर्थिक प्रगति की है। बावजूद इसके साक्षरता की बात करें तो इस मामले में आज भी हम कई देशों से पीछे हैं। यहां आजादी के समय से ही देश की साक्षरता बढ़ाने के लिए कई कार्य किए गए और कानून बनाए गए पर जितना सुधार सरकारी कागजों में दिखता है उतना असल में हुआ नहीं है।
2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में अब 82.1% पुरुष और 64.4% महिलाएं साक्षर हैं। इस दौरान राहत की बात यह रही की पिछले दस वर्षों में महिलाएं 4% ज्यादा साक्षर हुई हैं। जनगणना के आंकडों में पहली बार इस बात के सकारात्मक संकेत भी मिले हैं कि महिलाओं की साक्षरता दर पुरुषों की साक्षरता दर से 6.4 फीसदी अधिक है। लेकिन सभी सुधारों के बावजूद अरुणाचल प्रदेश और बिहार में अब भी सबसे कम साक्षरता दर देखने को मिल रही है। जबकि केरल और लक्षद्वीप में सबसे ज्यादा 93 और 92 प्रतिशत साक्षरता है। केरल के अलावा देश के अन्य राज्यों की हालत औसत है जिनमें से बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की हालत बहुत ही दयनीय है।
1947 में स्वतंत्रता के समय देश की केवल 12 प्रतिशत आबादी ही साक्षर थी। जो की वर्ष 2007 तक बढ़कर 68% हो गया और 2011 में यह बढ़कर 74% हो गया लेकिन फिर भी यह विश्व के साक्षरता दर 84% से बहुत कम है। 2001 की जनगणना के अनुसार 65 प्रतिशत साक्षरता दर के साथ ही देश में 29 करोड़ 60 लाख निरक्षर थे ,जो आजादी के समय की जनसँख्या 27 करोड़ के लगभग है।
1947 के पश्चात भारत में 6-14 वर्ष के बच्चों के लिए संविधान में पूर्ण और अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव रखा गया जिसे 1949 में संविधान निर्माण के दौरान शामिल किया गया परन्तु लगभग 7 दशक बीत जाने पर भी हम अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सके हैं। भारतीय संसद में वर्ष 2002 में 86वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित हुआ जिसमें 6-14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया गया, मगर नतीजों में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ।
World Literacy Day
भारत सरकार द्वारा साक्षरता के क्षेत्र में प्रयास आज़ादी के समय से चलते आया है जिसमे सर्व शिक्षा अभियान,मिड डे मील योजना,प्रौढ़ शिक्षा योजना,राजीव गांधी साक्षरता मिशन आदि अभियान शामिल हैं, मगर सफलता अब तक आशा के अनुरूप नहीं मिल सकी। इनमें से मिड डे मील ही एक ऐसी योजना है जिसने देश में साक्षरता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई।
मिड डे मील की शुरूआत तमिलनाडु से हुई जहां 1982 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एम.जी.रामचंद्रन ने 15 साल से कम उम्र के स्कूली बच्चों को प्रति दिन निःशुल्क भोजन देने की योजना शुरू की थी।इसके फलस्वरूप राज्य में साक्षरता 1981 के 54.4 % से बढ़कर 2001 में 73.4 % हो गई। इसके बाद 2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्य सरकारों को सरकारी सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में निःशुल्क भोजन देने की व्यवस्था करने का आदेश दिया था।
World Literacy Day
1998 में “राष्ट्रीय साक्षरता मिशन” (15 से 35 आयु वर्ग के लोगों के लिए) और 2001 में “सर्व शिक्षा अभियान” शुरू किया गया। तथा 2010 तक 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों की आठ साल की शिक्षा पूरी कराने का लक्ष्य रखा गया था।
बाद में संसद ने 4 अगस्त 2009 को बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून को स्वीकृति दे दी। 1 अप्रैल 2010 से लागू हुए इस कानून के तहत 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देना हर राज्य की जिम्मेदारी होगी और हर बच्चे का मूल अधिकार होगा।
हमारे यहां की शिक्षा व्यवस्था में प्रयोगवादी सोच की कमी है इसके कारण भी देश में कम साक्षरता दर देखा जाता है। उदाहरणतः जब एक गरीब और निरक्षर आदमी जब एक साक्षर आदमी को नौकरी की तलाश में भटकते हुए देखता है तो वह सोचता है कि इससे बढ़िया तो निरक्षर होना है जो बिना पढ़े कम से कम काम तो कर सकता है और इसी कारण वह अपने बच्चों को भी शिक्षा की जगह काम करना सिखाता है। यही वजह है कि आज भी देश में अनेक जगहों पर बच्चे शाला त्यागी होते हैं और स्कूलों की बजाय चाय या कारखाने में काम करते देखे जाते हैं।
पश्चिम एशिया तथा कुछ अफ़्रीकी राष्ट्र जो 20 वीं सदी में आजाद हुए, उनकी साक्षरता दर खासकर महिला साक्षरता दर 50% के आस-पास हैं. जो बेहद चिंताजनक हैं. भारत के पिछड़े तथा आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की स्थति भी इस तरह ही हैं।
भारत में शैक्षिक इतिहास
भारत का शैक्षिक इतिहास अत्यधिक विस्तृत एवं समृद्ध रहा है। प्राचीन काल में आश्रमों में ऋषि-मुनियों द्वारा शिक्षा दी जाती थी जिसका स्वरुप मौखिक होता था। जब वर्णमाला का विकास हुआ तो भोज पत्र और पेड़ों की छालों पर लिखित शिक्षा का प्रसार होने लगा। इसके पश्चात् ही भारत में लिखित साहित्य का विकास तथा प्रसार होने लगा। भारत में शिक्षा जन साधारण को बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उपलब्ध होने लगी। इसका उदाहरण है नालन्दा, विक्रमशिला और तक्षशिला जैसी विश्व प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों की स्थापना। इन संस्थानों के माध्यम से शिक्षा की पहुंच लोगो तक होने लगी थी।
भारत में शिक्षा का प्रसार
भारत में शिक्षा का नवीनतम रूप अंग्रेज़ों के आगमन पश्चात यूरोपीय मिशनरियों द्वारा अंग्रेज़ी शिक्षा के प्रचार के रूप में सामने आया। इसके बाद से भारत में पश्चिमी शिक्षा पद्धति का निरन्तर प्रसार हुआ। वर्तमान समय में भारत में सभी विषयों/तकनीकों के शिक्षण/प्रशिक्षण हेतु अनेक विश्वविद्यालय और हजा़रों महाविद्यालय स्थापित किया गए हैं। भारत पुनः उच्च कोटि की शिक्षा प्रदान करने वाले देश के रूप में विश्व के अग्रणी देशों में अपना स्थान बना रहा है।
शिक्षा में शुल्क एवं शुल्क वृद्धि
भारतीय शिक्षा में पूर्व में शुल्क आधारित शालाएं होती थी मगर सरकारी विद्यालयों में प्राप्त होने वाली शिक्षा अब पूर्णतः निशुल्क हैं, जहां बच्चे उच्च कोटि की शिक्षा समस्त सुविधाओं के साथ प्राप्त क्र अपना भविष्य उज्जवल बना सकते हैं। परन्तु निजी संस्थानों में उच्च शुल्क के साथ ही सभी शैक्षणिक सामग्री को खरीद कर शिक्षा प्राप्त किया जाता है जो की आम नागरिक के लिए संभव नहीं है अतः सरकार ने ऐसे संस्थानों में पिछड़े तबकों के 15% विद्यार्थिओं के लिए सीट आरक्षित करने का निर्देश दे दिया है।
शिक्षा के शुल्क में विशेषकर उच्च शिक्षा में अनेक कारणों से निरन्तर वृद्धि हो रही है जिसमे विशेष रूप से व्यावसायिक शिक्षा का शुल्क बढ़ना है । इस कारण ग़रीब परिवार के बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होने लगी है।
साक्षरता की और एक कदम “साक्षर भारत”
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एवं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने देश की सभी महिलाओं को साक्षर बनाने के लक्ष्य के साथ अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस के मौके पर महिलाओं के लिए विशेष तौर पर ‘साक्षर भारत’ मिशन का शुभारंभ किया था। साक्षरता के मामले में आज़ादी के बाद से हमने लगातार वृद्धि की है। वर्ष 1950 में साक्षरता की दर 18 फ़ीसदी थी, जो वर्ष 1991में 52 फ़ीसदी और वर्ष 2001 में 65 फ़ीसदी पहुँच गयी।
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