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कबीर के काव्य में रहस्यवाद की अवधारणा
मानव ने आँखें खोलकर देखा तो अनन्त वैभवमयी प्रकृति का प्रसार । नीचे हरी-भरी धरती, ऊपर नीलाम्बर, सूर्य की वे कान्त किरणें, चन्द्र का उजास, प्रातः सायं के मेघाडम्बर, कभी धूप कभी छाँह, ऊपर से बरसता हुआ मेह। ओह ! न जाने कितना कुतूहल ! चारों ओर व्यवस्था नियम ! यह वैभव कहाँ से आया ? किसने दिया? कौन है जो इस व्यवस्था को बनाए हुए है ? वह देता है- अतः देव है। पर कहाँ है। कैसा है ? उसके मुँह से सहसा निकल पड़ा “कस्में देवाय हविषा विधेम”। उक्त प्रकार के कुतूहल और जिज्ञासा ने रहस्य को जन्म दिया। रहस्य यहीं से उदय हुआ, यहीं से होता है, यहीं से होगा। यही है रहस्य । दुनियाँ से छिपाकर साधक ‘गूँगे का गुड़’ का स्वाद मौन रहकर ही लेता है। पर जब नहीं रहा जाता तो कुछ कह चलता है। उस अटपटी वाणी को कौन समझे ? वह यही बानी रहस्यवाद कहलायी। डॉ० रामकुमार वर्मा के अनुसार- “रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य अलौकिक शक्ति से अपना शान्त निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और वह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।”
‘रहस्यवाद’ का अर्थ है-प्रच्छन्न तत्त्व ज्ञान। वह भी भावनापूर्ण अनुभूति का विषय बन जाता है तभी रहस्यवाद की उत्पत्ति होती है। असीम और ससीम के सम्बन्ध में ‘गूँगे के गुड़’ की सी अनिर्वचनीयता रहती है जो रहस्यमय हो जाती है। कबीर इसी अज्ञात एवं अच्छन्न ब्रह्म के रहस्य का चित्रण अपने काव्य में करते हैं। वेदों से तत्काल-पर्यन्त रहस्य की धारा अनेक रूप में कबीर को प्राप्त हुई। कुतूहल की जिज्ञासा की परिवृत्ति के निमित्त दार्शनिकों ने प्रयत्न किए, साधकों ने साधना को व्यक्त रूप दिया। ‘पोथियों में लिखे’ के विरोध में प्रस्तुत हुए व्यक्तिगत साधना ने इस प्रवृत्ति को और भी प्रबल बना दिया। कबीर तक पहुँचते-पहुँचते नवीन वेदान्तानुमोदित अद्वैत, नाथ पंथियों द्वारा प्रस्तुत हठयोग, योगशास्त्र के शब्द – योग और प्राणायाम, अनुभव और पश्चिम से प्राप्त सूफी साधना- यह सभी रहस्य के अंग बन गए। सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो पूर्ण, अनन्त परात्पर ब्रह्म में अद्वैत भावनाजन्य प्रेम ही रहस्य का मूल कारण है, अन्य सब तो साधना-मार्ग है। प्रेम की उत्कृष्टता ही सब कुछ है। मैं उसका हूँ, उससे हूँ, वही हूँ- ‘अनहलक’ ।
रहस्यवाद के दो रूप हैं-भावनात्मक और साधनात्मक। कबीर में दोनों प्रकार के रहस्यवाद मिलते हैं। जब वे कण-कण में व्याप्त ब्रह्म को भाव क्षेत्र में उतार लाते हैं तो भावनात्मक रहस्यवाद का सुष्ठु स्वरूप मिलता है और जब अव्यक्त से साक्षात्कार करने का प्रयत्न करते हैं तो साधनात्मक रहस्यवाद के दर्शन होते हैं।
भावनात्मक रहस्यवाद- भावनात्मक रहस्यवाद में कबीर का भावपक्ष पाठकों को एकदम भाव-विभोर कर देता है। आत्मा प्रियतमा के रूप में परमात्मा के वियोग में छटपटाती है, विरह में उत्पीड़न के कारण शरीर काँटा हो जाता है और एक-एक क्षण एक-एक युग के समान बीतता है। विरहिणी आत्मा आर्त्त-स्वर में अपनी व्यथा कहती है। विरह-विजड़ित आत्मा का परमात्मा से मिलने को तड़पना काव्य-सौन्दर्य में चार चाँद लगा देता है। इन पदों को पढ़कर संदेह होने लगता है कि क्या एक फक्क्ड़ और अक्खड़ ने इस सरस काव्य का प्रणयन किया है ? पंडित और मुल्लाओं को फटकारने वाला नीरस और कठोर कवि प्रेम के लोक में मोम से भी मुलायम बन जाता है। सारा फक्कड़पन और आत्म-दर्प दैव्य में बदल जाता है। यहाँ तक कि सूफियों का प्रेमोन्मुख रहस्यवाद कबीर के भावनात्मक रहस्यवाद, को देखकर काँपने लगता है। कबीर के सब कुछ तो हैं- प्रभुराम, दशरथ पुत्र नहीं, वरन् परात्पर पूर्ण अनन्त ब्रह्म ।
कबीर उनके साथ और वे कबीर के साथ न जाने कितने खेल खेलते हैं, पर कबीर को एक ही खेल, एक ही रूप सर्वाधिक भाया है
हरि मेरा पीउ, मैं पीउ की बहुरिया ।
पर ‘बहुरिया’ यों ही तो नहीं बन जाती। जिज्ञासा से पूर्ण प्राप्ति तक न जाने कितना कुछ सहना पड़ता है, कितनी सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। हाँ, अन्तिम लक्ष्य यह रहता है-
एकमेक है सेज न सोवों तब लगि कैसा नेह रे ।
यही दाम्पत्य रूपक कबीर के रहस्य का प्राण है। आत्मा को पहले तो ‘लौ’ से जलते रहना पड़ता है, कभी विरह की आग में जलकर भस्म होना होता है, पर प्रिय की प्राप्ति सहज नहीं है- पहले तो पातिव्रत्य लेना होता है, सिंधौरा हाथ में लेकर कभी प्रिय के लिए जलना पड़ता है। सिर उतार कर पृथ्वी पर रखना होता है और उस पर चढ़कर यह प्रतीति करानी होती है कि मैं भी प्रेमी हूँ। इससे नीचे कहीं कोई स्थान साधक को नहीं है।
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