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गुरुकुल शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ (Characteristics of Gurkul Education System)
प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था की प्रमुख विशेषता उसकी गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था है। गुरुकुल नगर के कोलाहल से दूर किसी निर्जन स्थान पर नदी के किनारे अथवा पहाड़ पर सुन्दर रमणीय प्राकृतिक स्थान पर होते थे। छात्र अपने गुरु के पास उनके परिवार के सदस्य के रूप में रहकर ज्ञानार्जन करते थे और उनसे वास्तविक जीवन की शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु के आदर्श जीवन का प्रभाव शिक्षार्थी पर अवश्य पड़ता था। डॉ० एस० एन० मुकर्जी ने लिखा है- “गुरुकुल व्यवस्था भारतीय शिक्षा की व्यावहारिक प्रणाली में विश्वास करती थी, न कि शिक्षा संस्थाओं में यान्त्रिक विधियों द्वारा विशाल पैमाने पर छात्रों के उत्पादन में।” गुरुकुल का जीवन तपस्या का समय होता था। शिष्यों के लिए सभी प्रकार के सुख-साधन का निषेध था। विवाहित व्यक्तियों को गुरुकुल में प्रवेश नहीं दिया जाता था। प्रत्येक छात्र को ब्रह्मचर्य व्रत का कठोरता से पालन करना होता था। छात्रों को ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के आदर्श का अनुसरण करना होता था। यहाँ गुरुकुल व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख किया जा रहा है
(1) शिक्षा का आरम्भ
अथर्ववेद में उपनयन संस्कार और ब्रह्मचर्य व्यवस्था का वर्णन किया गया है। उपनयन संस्कार द्वारा शिक्षार्थी ब्रह्मचर्य के नये जीवन में दीक्षित होता और ब्रह्मचारी बन जाता था। ब्रह्मचारी नवीन वस्त्र को धारण करके गुरु के समीप जाता था और वहाँ उसकी शिक्षा प्रारम्भ होती थी। गुरु के आश्रम को ‘गुरुकुल’ कहा जाता था और इस स्थान पर बालक की शिक्षा प्रारम्भ होती थी।
(2) गुरुकुलों का वातावरण
गुरुकुल सुन्दर प्राकृतिक स्थान में और सामान्यतः किसी ग्राम के निकट होता था। प्राकृतिक उन्मुक्तता के वातावरण में रहकर बालक शिक्षा ग्रहण करता था। प्राकृतिक एकान्त और शान्त वातावरण में शिक्षार्थी ब्रह्मचर्य के सिद्धान्तों का पालन करते हुए शिक्षा प्राप्त करता था।
(3) छात्रों की दिनचर्या
गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में दिनचर्या का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान था। शिक्षार्थी सूर्योदय के पूर्व जग जाते थे और वहीं से उनके दैनिक क्रिया-कलाप प्रारम्भ हो जाते थे तथा रात्रि तक के क्रिया-कलाप कठोर नियमों की श्रृंखला में बंधे हुए चलते थे। उन्हें ब्रह्मचर्य के समस्त नियमों का पालन करना आवश्यक था। इन समस्त क्रिया-कलापों को वे नियमित ढंग से करते थे। वे बालक के जीवन के अंग बन जाते थे। इससे लाभ यह होता था कि आने वाले जीवन में विद्यार्थी उन नियमों का पालन करता था। गुरुदेव की सेवा के साथ दैनिक जीवन में परिश्रम करते हुए विद्यार्थी सेवा और श्रम के महत्त्व को समझ लेता था।
गुरुकुल में छात्रों की दिनचर्या इस प्रकार की होती थी कि उसका नैतिक, शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास सम्यक् रूप से हो । श्रम और तप उसके प्रमुख कार्य थे। वह यज्ञ हेतु सामग्री जुटाता था, गुरु की सेवा करता था और भिक्षा माँगता था। इसको भिक्षा देना प्रत्येक गृहस्थ का पुनीत कर्त्तव्य था। गुरु के पास रहकर वह विविध विधाओं का अध्ययन करता था। उसकी दिनचर्या इस प्रकार की होती थी कि वह अपने शारीरिक विकास के साथ ही ज्ञान का अर्जन भी कर सके।
(4) गुरु-शिष्य सम्बन्ध
प्राचीन गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में गुरु-शिष्य सम्बन्ध का अनोखा रूप देखने को मिलता है। इस व्यवस्था में गुरु-शिष्य सम्बन्ध अत्यन्त पवित्र और निकट का था। गुरु-शिष्य का जो सम्बन्ध था, वह शायद संसार के किसी भी देश और किसी “भी काल में नहीं था। इन दोनों में अत्यन्त निकटता होती थी। अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि इस काल में गुरु-शिष्य पिता और पुत्र के सम्बन्ध की ही भाँति होते थे। जिस प्रकार से पिता अपना धन आदि पुत्र को देता है, उसी प्रकार गुरु भी अपना सम्पूर्ण ज्ञान और तप आदि अपने शिष्यों को समर्पित कर दिया करते थे। गुरु अपने शिष्यों पर उसी प्रकार उदारता रखता था जिस प्रकार कि पिता अपने पुत्रों को समान समझता है। गुरुकुल व्यवस्था में गुरु के प्रति शिष्यों के कर्त्तव्य निर्धारित थे जिनका पालन करना प्रत्येक शिष्य के लिए आवश्यक था।
(अ) गुरु के प्रति शिष्यों के कर्त्तव्य- गुरु के प्रति शिष्यों के अनेक कर्त्तव्य थे जिनका पालन करना प्रत्येक शिष्य का कर्त्तव्य था। गुरु के प्रति शिष्यों के निम्नलिखित कर्त्तव्य होते थे-
(i) शिष्य प्रातःकाल उठकर अपने गुरु का चरण स्पर्श करते थे। (ii) शिष्य गुरु के स्नान, दातून, पूजन आदि का सामान एकत्र करते थे। (iii) शिष्य गुरु-आश्रम की गायों को चराया करते थे। (iv) शिष्य गुरु के लिए भिक्षा माँग कर लाते थे। (v) गुरु के खेतों में शिष्य काम करते थे। (vi) शिष्य गुरुगृह की गृहस्थी के छोटे-छोटे कार्यों को करते थे। (vii) शिष्य गुरुगृह की आग को सदैव प्रज्वलित रखते थे। (viii) शिष्य गुरु की प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे। (ix) वे गुरु के आदेशों का जीवनपर्यन्त पालन करते थे। (x) गुरु को ‘गुरुदेव’ आदि शब्दों से सम्बोधित किया जाता था। (xi) गुरु को ब्रह्म, देव, महेश्वर, परब्रह्म आदि का गौरवपूर्ण स्थान दिया जाता था।”
( ब ) शिष्य के प्रति गुरु के कर्त्तव्य- गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में गुरु अपने शिष्यों पुत्रवत् मानते थे। छात्र गुरु को मानस पिता कहा करता था। चूँकि गुरु मानस-पिता के रूप में थे, अतएव मानस-पिता के रूप में छात्रों के प्रति उनके निम्नलिखित कर्तव्य थे
(i) छात्रों के रहन-सहन एवं पालन-पोषण की व्यवस्था करना। (ii) शिष्यों के स्वास्थ्य एवं उनके चरित्र-विकास का ध्यान रखना। (iii) शिष्य के अस्वस्थ होने पर पिता के समान उनकी सेवा करना । (iv) शिष्यों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुख समझना। (v) शिष्यों की समस्याओं का समाधान करना। (vi) अध्यापन एवं ज्ञान वृद्धि के लिए प्रयास करना। (vii) छात्रों की जिज्ञासा को शान्त करना। (viii) शिष्यों के प्रत्येक प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर प्रस्तुत करना । (ix) छात्रों में आदर्श गुणों का विकास करना। (x) शिष्यों की बुरी आदतों का शोधन करना। (xi) शिष्यों को भावी जीवन के लिए तैयार करना | (xii) शिष्यों का सर्वांगीण विकास करना ।
(5) अध्ययन की अवधि
गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत अध्ययन अवधि के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। वैदिक युग में उपनयन संस्कार के पश्चात् शिक्षा आरम्भ हो जाती थी। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार स्वेतकेतु ने 12 वर्ष की आयु में अध्ययन प्रारम्भ किया था और 12 वर्ष तक जारी रखा था। इसके अतिरिक्त 12 वर्ष की आयु से जीवनपर्यन्त अध्ययन करने का उल्लेख मिलता है। साधारणतः अध्ययन की अवधि 12 वर्ष तक ही थी।
(6) निःशुल्क एवं सार्वभौम शिक्षा
गुरुकुल की शिक्षा निःशुल्क थी किन्तु प्रत्येक छात्र को गुरु दक्षिणा अवश्य देनी होती थी। वह दक्षिणा के रूप में कुछ भी दे सकता था। दक्षिणा इतनी कभी नहीं होती थी कि शिक्षक का पर्याप्त पारिश्रमिक कहा जा सकता। निःशुल्क होने के कारण ही शिक्षा सार्वभौम एवं सबके लिए थी।
(7) शिक्षा का स्वरूप
गुरुकुल की शिक्षा का स्वरूप धर्म से अनुप्राणित था। शिक्षा का आदर्श उद्देश्य अध्यात्म एवं मोक्ष की प्राप्ति था। ज्ञान का अर्जन धर्म के द्वारा और धार्मिक क्रियाओं के रूप में किया जाता था। इस प्रकार की शिक्षा का सम्पूर्ण कलेवर धर्म के अभेद्य वातावरण से परिपूर्ण था। गुन्नार मिरडल ने लिखा- “शिक्षा का पूरी तरह होने वाले धार्मिक व्यक्तियों के निर्देशों का संरक्षण था।” वेद मंत्रों, गीता आदि का पाठ तब तक कराया जाता था जब तक कि वे कंठस्थ नहीं हो जाते थे।
(8) शिक्षा पद्धति
गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा मौखिक रूप से अभ्यास द्वारा प्रदान की जाती थी। ऋग्वेद में लेखन सामग्री अथवा लेखन कला का कोई उल्लेख नहीं हुआ है। एक मन्त्र में शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी की तुलना बरसात में बोलने वाले मेढ़क से की गयी है। प्रवचन एवं उच्चारण का बहुत अधिक महत्त्व था। उच्चारण के 7 प्रकार और व्याख्यान की 4 व्यवस्थाओं का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। गुरुकुल के अन्तर्गत शिक्षण की पद्धति व्याख्यान के रूप में होती थी। इसके मुख्य अंग थे श्रवण, मनन, चिन्तन, स्वाध्याय और पुनरावृत्ति ।
प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का आधार मनोवैज्ञानिक था और मौखिक व चिन्तन-मनन नामक दो अध्यापन विधियों को प्रश्रय दिया गया था। शिक्षण काल में गुरु-शिष्य दोनों ही सक्रिय रहते थे और शिष्य अपनी शंकायें प्रस्तुत करते थे तथा गुरु उन शंकाओं का समाधान कर छात्रों में अन्वेषण की प्रवृत्ति उत्पन्न करता था। शिष्यों में स्वाध्याय की प्रवृत्ति भी थी और गुरु का यही लक्ष्य रहता कि शिष्य में विषय का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने की रुचि जाग्रत की जाय।
(9) छात्र का जीवन
गुरुकुल में छात्रों के खान-पान, वेशभूषा, आचार-व्यवहार आदि के सम्बन्ध में भी निश्चित नियम थे, जिनका पालन करना अत्यन्त आवश्यक समझा जाता था। मनुस्मृति के अनुसार विद्यार्थियों को दिन में केवल दो बार अर्थात् प्रातःकाल और सायंकाल भोजन करना चाहिए अति भोजन और मांस, मधु पान व बासी भोजन आदि से बचने का भी आदेश दिया जाता था।
विद्यार्थियों की वेशभूषा भी निर्धारित थी और उपनयन के पश्चात् विभिन्न जातियों के छात्र विभिन्न वस्तु की बनी हुई मेखला धारण करते थे। अतः ब्राह्मण मूँज के घास की क्षत्रिय ताँत की और वैश्य ऊन की बनी मेखला पहन सकते थे।
इसी प्रकार ये तीनों जातियाँ क्रमशः सन, रेशम और ऊन के वस्त्रों के टुकड़ों का तथा शरीर के ऊपरी भाग के लिए क्रमशः काले मृग, चित्तीदार मृग या बकरे की खालों का प्रयोग करते थे। विद्यार्थियों को अपना शरीर किसी भी प्रकार से अलंकृत करने और केशों के प्रसाधन तक की मनाही थी तथा वे अंजन, सुगन्ध, छाते और जूतों का प्रयोग भी नहीं कर सकते थे। इस प्रकार उनका जीवन शिष्टाचार, मर्यादा और आत्म-संयम से परिपूर्ण होता था। अपना जीवन पवित्र रखने के लिए दोनों समय संध्या-वन्दन और हवन करते थे तथा असत्य भाषण, गाली-गलौज एवं चुगलखोरी आदि से दूर रहकर आत्म-संयमी बनने तथा काम, क्रोध व लोभ से मुक्त रहने की शिक्षा प्राप्त करते थे।
इस प्रकार गुरुकुल में विद्यार्थियों को अपने व्यवहार में सादगी और विचारों में श्रेष्ठता के सिद्धान्त का अनुसरण करना पड़ता था। इस स्थान पर यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्राचीन गुरुकुल में शिक्षार्थियों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था और राजकुमारों को भी अपने निर्धन सहपाठियों का-सा छात्र जीवन व्यतीत करना पड़ता था।
(10) गुरु का आदर्श
प्राचीन काल में गुरु ज्ञान व आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से समाज में सर्वोच्च व्यक्ति थे और उनमें अग्नि की सी तेजस्विता व इन्द्र की-सी वीरता विद्यमान होने के कारण स्वाभाविक ही उन्हें लोकप्रियता प्राप्त थी। अपने आश्रमों और गुरुकुलों में रहकर गुरुजन हमेशा अध्ययन अध्यापन पर ध्यान देते तथा निश्छल भाव से शिष्यों को शिक्षा प्रदान करते थे। उनकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। वह अपने शिष्यों को पुत्रवत् रखते थे और उनके भोजन, वस्त्र व निवास आदि का प्रबन्ध स्वयं करते तथा उनके सुख-दुख में भी समान रूप से भाग लेते थे।
इस प्रकार शिष्यों के सभी कार्यों का उत्तरदायित्व गुरु पर ही होता था और वह उनके चरित्र-निर्माण पर बल देते हुए हमेशा यही चाहते थे कि उनका शिष्य उनसे भी अधिक यश व ख्याति प्राप्त करे।
(11) पाठ्य-विषय
प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थियों को ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्ववेद आदि संहिताओं के मंत्रों को कंठस्थ करना होता था और शिक्षा कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, निरुक्त एवं तर्क विज्ञान की दृष्टि से गुरुकुल शिक्षा प्रशंसनीय ही मानी जायेगी।
(12) साधारण दण्ड की व्यवस्था
गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था में दण्ड की भी व्यवस्था थी लेकिन वह दण्ड कठोर नहीं होता था। वास्तव में उस समय की शिक्षा में दण्ड किस कार्य के लिए कितना दिया जाता था, इस पर कोई निश्चित तथ्य प्राप्त नहीं होते। हाँ, कुछ महापुरुषों के विचार इस सम्बन्ध में अवश्य मिलते हैं। आपस्तम्भ के अनुसार अध्यापक को चाहिए कि वह दोषी छात्रों को अपनी उपस्थिति से दूर भेज दे अथवा ऐसे विद्यार्थियों के लिए कोई व्रत निर्धारित कर दे। मनु का विचार है कि दोषी छात्र को बिना कष्ट दिए हुए उसे मधुर वाणी में शिक्षा प्रदान करे, लेकिन यदि विद्यार्थी ने कोई भयानक अपराध किया हो तो उसको रस्सी अथवा पतली छड़ी से शारीरिक दण्ड देना चाहिए। यही विचार याज्ञवल्क्य तथा गौतम का भी है। गुरुकुल व्यवस्था में जो दण्ड दिया जाता था वह केवल आत्म-सुधार के लिए ही होता था। संक्षेप में कह सकते हैं कि दण्ड के रूप में विद्यार्थी को समझाना-बुझाना, व्रत उपवास करवाना आदि नियम थे।
(13) धार्मिक तत्त्वों का महत्त्व
गुरुकुल शिक्षा की एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी थी कि शिष्यों का जीवन धर्ममय होता था क्योंकि शिक्षा की विभिन्न क्रियाओं में धर्म के क्रियात्मक स्वरूप पर बल दिया जाता था। गुरुकुल शिक्षा धार्मिक तत्त्वों, जैसे- प्रार्थना, संध्या, यज्ञ, वेद, ग्रन्थ, पूजा आदि से परिपूर्ण होती थी। बालक गुरुकुल में रहकर इन सभी तत्त्वों को व्यवहार में लाते थे। अन्य विषयों की शिक्षा में धार्मिकता विद्यमान थी। टी०एन० सिक्वेरा का विचार है “शिक्षा का तात्पर्य एक धार्मिक संस्था के होने से था। शिक्षक को यह पढ़ाना पड़ता था कि वह कैसे प्रार्थना एवं यज्ञ करें और किस प्रकार अपने जीवन की अवस्था के अनुरूप अपने कर्त्तव्यों को पूरा करें। गुरुकुल शिक्षा निश्चित रूप से धार्मिक एवं वैयक्तिक थी।”
(14) ब्रह्मचर्य जीवन पर विशेष बल
गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रत्येक विद्यार्थी के लिए यह आवश्यक था कि वह सादा जीवन और उच्च विचार के आदर्श को मानकर चले। उसमें आत्म-संयम और इन्द्रिय-संयम होता था। स्त्री के बारे में वह सोच भी नहीं सकता था, स्पर्श करना और देखना तो दूर की बातें थीं। इसका एक कारण यह था कि गुरुकुलों का वातावरण, खान-पान आदि इतने सादे होते थे, विचारों में इतनी पवित्रता होती थी कि बुरी बातें मस्तिष्क में आ ही नहीं पाती थीं। विद्यार्थी 25 वर्ष तक की अवस्था तक ब्रह्मचारी रहकर गुरु-गृह में रहता था। शिक्षा कार्य समाप्त करने के उपरान्त ही अपने घर आकर वह विवाह करता था और वहीं से उसका गृहस्थ जीवन आरम्भ होता था।
(15) विद्यार्थी जीवन के बाद भी स्वाध्याय
गुरुकुल में विद्यार्थी जब अध्ययन कार्य समाप्त कर लेता था तो समापन संस्कार के समय आचार्य विद्यार्थियों को यह उपदेश और आदेश देते थे कि उन्होंने अध्ययन काल में जिन बातों का पठन किया, आगे भी करते रहेंगे। ज्ञान का विस्मरण किसी भी प्रकार नहीं करेंगे। स्वाध्याय के लिए वर्षाकाल सबसे अच्छा समय समझा जाता था क्योंकि इस समय कृषक कृषि कार्य से निवृत्त हो जाते थे।
(16) बाह्य नियन्त्रण और प्रभावों से मुक्त
गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि तत्कालीन शिक्षा पर राज्य सरकार अथवा किसी सामाजिक संस्था या व्यक्ति का कोई नियन्त्रण नहीं था और प्रत्येक राजा अपना यह कर्त्तव्य समझता था कि विद्वान लोग बिना किसी विघ्न बाधा के अध्यापन कार्य में लगे रहें।
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