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पंत के प्रगतिवादी काव्य में लोकमंगल तथा मानव मूल्यों का समावेश है।
पन्त जी ने जीवन की अनित्यता और क्षणभंगुरता का चित्रण यथार्थ रूप में किया है। हमारे चिन्तक और साधक प्राचीनकाल से जीवन की अन्त्यिता और क्षणभंगुरता का सन्देश देते आने हैं। पन्त जी ने जीवन की क्षणभंगुरता को भलीभाँति देखा। बचपन का कोमल शरीर अपनी सुन्दरता में जहाँ मन को लुभाता है वहीं शरीर वृद्धावस्था में पीले पत्ते की तरह शुष्क और नीरस होकर आकर्षणहीन हो जाता है। जीवन में सुख चार दिन को ही आता है और फिर उसके लिए दुःखों की अँधेरी रात्रि ही रह आती है। उसके कुसुमवय कोमल कपोल आभाहीन हो जाते हैं। ‘अधरों’ की मधुर मुस्कान नहीं रहती। अनिमेष होकर सौन्दर्य-सुधा का पान करने वाले नेत्र वृद्धावस्था में ज्योतिहीन होकर रोते हैं। मिलने के पल दो चार ही हैं, जबकि विरह अपार कल्पों में फैला हुआ है-
“आज बचपन का कोमल गात, / जरा का पीला पात।
चार दिन सुखद चाँदनी रात,/ और फिर अँधकार अज्ञात !
शिशिर-सा झर नयनों का नीर, / झुलस देता गालों के फूल !
प्रणय का चुंबन छोड़ अधीर, / अधर जाते अधरों को भूल ।
X X X
मिलन के पल केवल दो-चार/विरह के कल्प अपार !
अरे वे अपलक चार नयन, / आठ आँसू रोते निरुपाय ।
पन्त जी निष्ठुर परिवर्तन को विश्व का करुण विवर्तन और ताण्डव नृत्य कहते हैं। उसके इंगित पर ही संसार में उत्थान पतन होते हैं। वह ‘वासुकि सहस्र फन’ है। इसके ‘लक्ष अलक्षित चरण जग के विक्षत वक्षस्थल’ पर निरन्तर चिन्ह छोड़ रहे हैं। उसकी फुंकारें संसार के भाग्य को तीव्रता से घुमा रही हैं। ‘मृत्यु उसका परल और कंचुक कल्पान्तर है। समस्त विश्व उसका विवर है और दिङ्मण्डल उसकी वक्र कुण्डली है। वह नगरों को वीरान बना देता है। भवनों को खण्डहर कर देता है। आधि, व्याधि, बहुवृष्टि, बात, उत्पात, अमंगल, वहि, बाद भूकम्प आदि उसकी सेना हैं। उसका एक कठोर कटाक्ष सृष्टि में विग्रह छेड़ देता है। संसार उसके संकेत पर चलने के लिए विवश हो जाता है। परिवर्तन का यह क्रूर विनाशकारी तांडव नृत्य देखकर पन्त जी का हृदय क्षोभ से भरकर तिक्त हो जाता है-
‘अहे वासुकि सहस्त्र फन !
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरन्तर,
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर।
क्षत शत छेनोच्छ्वसित स्फीत फूत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अम्बर !
मृत्यु तुम्हारा गरल-दन्त कंचुक कल्पान्तर !
अखिल विश्व ही विवर/वक्र कुण्डल दिङ्मंडल |
X X X
हाय री दुर्बल भ्रांति ! / कहाँ नश्वर जगती में शान्ति !
सृष्टि ही का तात्पर्य अशान्ति !
X X X
दिवस-निशि का यह विश्व विशाल/मेघ मारुत का माया जाल । “
पन्त जी ने अनुभव किया कि- ‘परिवर्तन होते रहने से अनित्यता की भावना उदय होती है और अनित्यता ही परिवर्तन को जन्म देती है।’
पन्त जी अनित्यताजन्य निराशा और विरक्ति में भी आशा नहीं छोड़ते। वे सदैव आशावादी ही रहे। अनित्यता के परिवर्तन का उन पर स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा। इस आशावाद के कारण ही ये अनित्यता में नित्यता और जीव में एक ही अविनाशी तत्त्व का नर्तन देखते हैं
“नित्य का यह अनित्य नर्तन,/विवर्तन अगजग व्यावर्तन’
अचिर में चिर का अन्वेषण,/विश्व का तत्वपूर्ण दर्शन। “
यह सत्य और नित्य हृदय ने प्रेम, नेत्रों में सौन्दर्य और लोक सेवा के क्षेत्र में शिव बन जाता है। यह संसार भावनात्मक है। मानव दिव्य-सौन्दर्य तथा स्नेह को अपनी भावना के अनुसार अनेक रूपों में देखता है। पन्त जी तात्विक एकता को शाश्वत सत्य में भावना करने लगते हैं-
‘वही प्रजा का सत्य स्वरूप/हृदय में बनता प्रणय अपार
लोचनों में लावण्य अनूप/लोक-सेवा में शिव अविकार
स्वरों में ध्वनित मधुर सुकुमार/सत्य ही प्रेमोद्गार
दिव्य सौन्दर्य स्नेह साकार/भावनामय संसार।”
नित्यता का विश्वास ही पन्त जी को समदृष्टि प्रदान करता है। वह सुख-दुःख में ‘समरसता’ स्थापित करते हैं। उनके लिए विनाश और सृजन दोनों ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। इस प्रकार सृजन ही संहार और संहार ही सृजन बन जाता है। यह मृत्यु की रात्रि बन्द करती है, तो जन्म की भोर नेत्र खोलती है-
“एक ही लोल लहर के छोर/उभय सुख दुःख, निशि भोर
इन्हीं से पूर्ण त्रिगुण संसार/सृजन ही है संहार ।
मूँदती नयन मृत्यु की रात/खोलती नव जीवन का प्रात
शिशिर की सर्व प्रलयंकर बात/बीज बोती अज्ञात ।”
आगे चलकर पन्त जी का दृष्टिकोण अधिक स्थिर और व्यापक हो जाता है। वे सुख और दुख दोनों के अतिरेक से घबराकर दोनों के सन्तुलित और मधुर सम्मिलन में ही जीवन की सार्थकता देखते हैं-
“मैं नहीं चाहता चिर सुख, / मैं नहीं चाहता चिर दुःख ।
सुख-दुःख के मधुर मिलन से, / यह जीवन हो परिपूरन ।
X X X
जग पीड़ित रे अति दुख से, / जग पीड़ित रे अति सुख से,
अविरत दुःख है उत्पीड़न, / अविरत सुख भी उत्पीड़न ।
अतः जीवन के लिए दिन तथा रात, हास तथा अश्रु दोनों ही वांछनीय हैं। ‘वह पन्त जी के जीवन दर्शन की समरसता है’
“दुःख सुख की निशा दिवा में, / सोता जगता जग जीवन ।
यह साँझ उषा का आँगन, / आलिंगन विरह-मिलन का ।
चिर हास अश्रुमय आनन, रे इस मानव-जीवन का ।
पन्त जी का सारा काव्य ‘त्याग, कल्याण और कर्मठता’ की भावना से ओत-प्रोत है। पन्त जी की दृष्टि में आत्म-बलिदान महान है। मनुष्य स्वयं दुःख-सुख सहन कर ही दूसरे को सुख पहुँचा सकता है। संसार केवल आदान-प्रदान है-
“म्लान कुसुमों की मृदु मुस्कान, / फलों में फलती फिर अम्लान ।
महत् है अरे आत्म बलिदान, / जगत केवल आदान-प्रदान ।
मानव जीवन का लक्ष्य कल्याण है। मन पवित्र और कोमल विश्व-वेदना में ही तप कर पवित्र हो सकता है और पवित्र होकर ही उसका त्याग, लोकमंगल और कर्मठता की ओर उन्मुख होना सम्भव है। पन्त जी कहते हैं-
‘तप रे मधुर मधुर मन।/ विश्व-वेदना में तप प्रति पल,
रे जग जीवन की ज्वाला में गल/बन अकलुष उज्ज्वल औ कोमल
तप रे विधुर विधुर मन। “
ऐसा होने पर ही व्यष्टि का समष्टि में प्रसार हो सकेगा-
“अपने सहज स्पर्श से पावन, इस जीवन की पूर्ति पूर्णतम ।
स्थापित कर जग में अपनापन, ढल रे ढल आतुर मन।”
पन्त जी के काव्य में लोक-मंगल और लोक-कल्याण की भावना वेगवती बनकर प्रवाहित हुई है। वे ज्योतिर्मय जीवन संसार के उर्वर आँगन के कणकण में बरसने की प्रार्थना करते हैं-
“जग के उर्वर आँगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन ।
बरसो लघु-लघु तृणतरु पर, हे चिर अव्यय, चिर तू न ।”
X X X
बरसो सुख बन, सुषमा बन, बरसो जग जीवन के घन !
दिशि-दिशि औ पल-पल में, बरसो संसृति के सावन,
इस लोकोपकार की भावना ने ही कर्मठता को जन्म दिया है। पन्त जी कहते हैं कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही सुख-दुःख को प्राप्त होता है-
“स्वीय कर्मों ही के अनुसार / एक गुण फलता विविध प्रकार
(कहीं राखी बनता सुकुमार।/कहीं बेड़ी का भार ।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि पन्त जी की आज्ञा, समरसता, त्याग और लोक मंगल तथा कर्मण्यता से ओत-प्रोत जीवन-सन्देश समस्त काव्य में व्यक्त हुआ है।
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