अनुक्रम (Contents)
पल्लवन के नियम
पल्लवन के लिए निम्न नियमों, प्रविधि और प्रक्रिया का अनुपालन आवश्यक है-
1. सर्वप्रथम पल्लवन के लिए दिये गये वाक्य, सूक्ति, लोकोक्ति अथवा कहावट, उक्ति या काव्य-पंक्ति को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए, ताकि मूल के सम्पूर्ण भाव अच्छी तरह समझ में आ जायें। मूल भाव को समझना ही पल्लवन की कुञ्जी है।
2. दिये गये संदर्भ में मूल विचार अथवा भाव के साथ उसके पोषक या सहायक भाव भी निहित रहते हैं। उन सहायक या पोषक भावों को समझने-पहचानने का प्रयास करना चाहिए। उन्हें समझ लेने से मूल भाव के विस्तारण में सहायता मिलेगी।
3. मूल और गौण विचारों अथवा भावों को समझ लेने के पश्चात् महत्त्व – क्रम से सभी निहित भावों या विचारों को एक-एक अनुच्छेद में लिखना चाहिए।
4. भाव या विचार का पल्लवन करते समय उसकी पुष्टि में जहाँ-तहाँ उद्धरण, दृष्टान्त, तथ्य और प्रमाण भी देने चाहिए।
5. मूल और गौण विचारों के पल्लवन में चारुता लाने के लिए अलंकार और कल्पना का प्रयोग होना चाहिए।
6. भाव और भाषा की अभिव्यक्ति में सरलता, मधुरता, स्पष्टता और मौलिकता होनी चाहिए। वाक्य छोटे-छोटे और भाषा अत्यन्त सहज होनी चाहिए।
7. पल्लवन के लेखन में तथ्यों की एकता और प्रासंगिकता बनी रहनी चाहिए।
8. पल्लवन में पल्लवनकर्ता के मूल तथा गौण भाव या विचार की टीका-टिप्पणी और आलोचना-प्रत्यालोचना नहीं करनी चाहिए। केवल मूल लेखक के मनोभावों का ही विस्तार और विचार होना चाहिए।
9. पल्लवनकर्ता को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पल्लवन के लिए मूल सामग्री में कहाँ कथ्य को विस्तार को देने, कहाँ अर्थ समझाने, कहाँ संभावित विपरीत तर्क को काटने की आवश्यकता है।
10. पल्लवन की रचना अन्य पुरुष में होनी चाहिए।
11. पल्लवन व्यास-शैली में होना चाहिए।
12. पल्लवन कर्ता को विस्तार से लिखने का प्रयास करना चाहिए।
13. पल्लवन करते समय सदैव तर्क-सम्मत पद्धति का प्रयोग होना चाहिए।
14. पल्लवन का अन्तिम निष्कर्ष मूलभाव या प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप होना चाहिए।
पल्लवन लेखन हेतु अपेक्षित सावधानियाँ
पल्लवन की लेखन प्रक्रिया में अधोलिखित सावधानियाँ वांछित हैं-
1. पल्लवन में भी प्रत्यक्ष कथन से बचना चाहिए।
2. इसमें पारिभाषिक, अव्यावहारिक, क्लिष्ट और दुरूह शब्दों का प्रयोग वर्जित है।
3. पल्लवन में लम्बे-लम्बे वाक्य त्याज्य हैं।
4. पल्लवन उत्तम पुरुष में नहीं होना चाहिए।
5. इसमें समास-शैली’ से बचें।
6. पल्लवन के लेखन में पुनरावृत्ति नहीं होनी चाहिए।
7. असंगत, अप्रासंगिक बातों का पल्लवन में उल्लेख नहीं करना चाहिए।
8. शब्द प्रयोग, वर्तनी और व्याकरणगत अशुद्धियों से बचना चाहिए।
9. पल्लवन करते समय मूल का कोई भाव या विचार छूटने न पावे।
10. विचार-श्रृंखला में क्रमबद्धता और एक सूत्रता का होना वांछित है।
11. अनावश्यक विस्तार से बचें।
12. संस्कृतनिष्ठ और समास-बहुल भाषा से बचना चाहिए।
13. मूल के भाव या प्रतिपाद्य विषय को बिना समझे पल्लवन की प्रक्रिया आरम्भ नहीं करनी चाहिए।
आदर्श पल्लवन- लेखन के कुछ उदाहरण
( 1 ) एक शब्द का पल्लवन
‘ईर्ष्या’
जैसे दूसरे के दुःख को देखकर दुःख होता है, वैसे ही दूसरे के सुख या भलाई को देखकर भी एक प्रकार का दुःख होता है, जिसे ईर्ष्या कहते हैं। ईर्ष्या की उत्पत्ति कई भावों के संयोग से होती है, इससे इसका प्रादुर्भाव बच्चों में कुछ देर में देखा जाता है और पशुओं में तो शायद होता ही न हो। ईर्ष्या एक संकर भाव है, जिसकी सम्प्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराश्य के योग से होती हैं। जब दो बच्चे किसी खिलौने के लिए झगड़ते हैं, तब कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि एक उस खिलौने को लेकर फोड़ देता है, जिससे वह किसी के काम में नहीं आता। इससे अनुमान हो सकता है कि उस लड़के के मन में यही रहता है कि चाहे वह खिलौना मुझे मिले या न मिले, दूसरे के काम में न आये अर्थात् उसकी स्थिति मुझसे अच्छी न रहे। ईर्ष्या पहले-पहल इसी रूप में व्यक्त होती है।
2. दो से अधिक शब्दों का पल्लवन
‘कविता क्या है?’
मनुष्य अपने भावों, विचारों और व्यापारों का लिये दिये दूसरों के भावों, विचारों और व्यापारों के साथ कहीं मिलाता और कहीं लड़ाता हुआ अन्त तक चला चलता है और इसी को जीना कहता है। जिस अनन्त-रूपात्मक क्षेत्र में यह व्यवसाय चलता रहता है, उसका नाम है जगत्। जब तक कोई अपनी पृथक् सत्ता की भावना को ऊपर किये इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योग क्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता रहता है, तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है। इन रूपों और व्यापारों के सामने जब कभी वह अपनी पृथक् सत्ता की धारणा से छूटकर अपने आपको बिल्कुल भूलकर-विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान-दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं।
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