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प्रजातांत्रिक व्यवस्था में पत्रकारिता के दायित्व अथवा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता के महत्व
वर्तमान के सन्दर्भ में: हिन्दी पत्रकारिता- स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता के समग्र मूल्यांकन के पश्चात सहसा यह प्रश्न उठता है कि वर्तमान युग में पत्रकारिता अप्रत्याशित महत्व की भागीदार क्यों हो गई है और यदि ऐसा हो भी गया हो तो उसकी उपलब्धियाँ और सम्भावनाएँ क्या हैं? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वर्तमान भौतिक और वैज्ञानिक जगत इतना अधिक विस्तृत और अनुसंधान बाहुल्य हो गया है कि विश्व के किसी भी कोने में घट रही घटनाओं और नई उपलब्धियों और गवेषणाओं को पत्रकारिता के अभाव में समझा और जाना नहीं जा सकता है। वास्तविकता यह है कि पत्रकारिता न केवल वैचारिक सम्प्रेषण का माध्यम है अपितु दिन-प्रतिदिन घटित होने वाली स्थितियों और परिस्थितियों से उत्पन्न सन्दर्भोंों का सम्प्रेषण है।
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता के महत्व के विश्लेषण के सिलसिले में सबसे पहले यह तथ्य उल्लेखनीय है कि यह वह शक्ति है जो वैश्विक घटनाक्रम का सही मंच बनी हुई है। पत्रकारिता सामाजिक जीवन की मार्गदर्शिका है और जनसेवा एवं कलात्मक अभिरुचि के साथ-साथ ज्ञान वैविध्य के विस्तार और विकास में शीर्षस्थ स्थान रखती है। इतना ही नहीं पत्रकारिता अतीत के गर्भ में छिपे हुए रहस्यों को अनावृत्त करती हुई वर्तमान की हर साँस और धड़कन का इतिहास और भूगोल प्रस्तुत करती है। जहाँ तक स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता की उपलब्धियों का प्रश्न है, उन्हें इस प्रकार विश्लेषित किया जा सकता है।
इसने समस्त देश को और उसके विभिन्न दूरवर्ती भागों को एक दूसरे से जोड़ दिया है। यदि पत्रकारिता न होती अथवा उसका इतना विकास न हुआ होता तो हम अपने देश से घटित घटनाओं, अनुसंधानों, सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों से वंचित रह गये होते। निश्चय ही यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है जिसने एक सामाजिक सम्बन्ध की निर्धारण में बड़ी भूमिका निभाई है।
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता केवल राजनीतिक घटना चक्र तक ही सीमित नहीं रही, उसका विकास साहित्य, विज्ञान, मनोविज्ञान, भूगर्भशास्त्र, इतिहास, भूगोल, खेलकूद, संगीत, नृत्य, नाटक, कृषि एवं फिल्म आदि क्षेत्रों तक हुआ है। आज की पत्रकारिता संकीर्ण दुनिया को छोड़कर संसार के बहुआयामी क्षेत्रों तक व्याप्त हो गई है।
तीसरी एवं महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि इसने देश की राजनीति के जनता से जोड़ दिया है।। यही कारण है कि आज राजनीतिक मंच पर घटित होने वाली घटनाएँ न केवल जनमानस को प्रभावित करती हैं, अपितु जनरुचि को भी निवर्धित करती हैं। पिछले दशक का राजनीतिक घटना चक्र इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि सत्ता में हुए विकास, आकस्मिक परिवर्तनों और उखाड़ पछाड़ की राजनीति को जनसमुदाय में अच्छी तरह समझाया है।
इसने अनेक प्रकार से जन-जीवन को जागृत किया है। यह पत्रकारिता की ही देन हैं कि आज हम अपने शासन-तन्त्र, प्रशासन वर्ग और मंत्रिपरिषद के क्रिया-कलापों की सही स्थिति से परिचित है और यह भली-भाँति समझने लगे हैं कि कौन नेता, शासक या प्रशासक कितने पानी में है। अब तक तो यह भी सुनिश्चित सा है कि जब जब हमारे सत्ताधीश जनता को भ्रम और धोखे में रखने का प्रयास करेंगे, तब-तब जनता उसे अपने सुनिश्चित मताधिकार से बदल देगी। निश्चय ही इस स्थिति में पत्रकारिता का योगदान विशेष है।
पत्रकारिता समूचे घटना-चक्र को नियन्त्रित और निर्देशित करती है। सामान्य से सामान्य मनुष्य को मनःशक्तियों को जागृत करने में पत्रकारिता ने उल्लेखनीय कार्य किया है। जागृति, नवोन्मेष, सुधार और सामाजिक परिवर्तनों को दिशा देने में स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता ने अभूतपूर्व कार्य किया है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्ही पत्रकारिता ने राष्ट्रीयता, नव-जागृति का जो प्रयास किया है, वह एक
अविस्मरणीय सन्दर्भ है। एक उल्लेखनीय परिवर्तन यह हुआ है कि पत्रकारिता व्यापक देश-हित की अपेक्षा क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रादेशिक समस्याओं और स्थिति को मुखरित करने लगी है। यद्यपि इन प्रादेशिक पत्र-पत्रिकाओं का लक्ष्य भी लोकहितेषणा से अलग नहीं रहा है।
सामाजिक समस्याओं, गतिविधियों और विविध घटना-प्रसंगों के सम्प्रेषण के लिए पत्रकारिता ने जिस भाषा को अपनाया है; वह लोकोन्मुख भाषा है। जनता में प्रचलित शब्दावली का प्रयोग और वह भी कतिपय बहु-प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ करके स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारों ने पत्रकारिता को आम आदमी से जोड़ दिया है। भाषा का सरलीकृत रूप, वाक्यों की स्पष्टता और शैली की रवानगी के कारण स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता की भाषा-शैली सुगम्य और सुबोध है। भाषा विषयक यह उपलब्धि स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता की प्रमुख उपलब्धियाँ हैं।
पत्रकारिता आज के व्यवस्त जीवन में हमारी सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा का कार्य भी कर सकती है। नए मूल्यों तथा प्रतिमानों के निर्धारण का कार्य भी पत्रकारिता ने किया है। स्वतंत्रता के पश्चात हिन्दी पत्रकारिता जिस दिशा में अग्रसर हुई है, वह दिशा क्षेत्रीय न होकर बहुक्षेत्रीय है। इससे उसमें संकीर्णता नहीं रही और व्यक्ति की अभिव्यक्ति-विषयक स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि वह न केवल अतीत की संरक्षिका वरन वर्तमान की विश्लेषिका है, अपितु भविष्य की नियामिका भी है। नवभारत के कार्यकारी सम्पादक सुरेन्द्रप्रताप सिंह के अनुसार, ‘आज इस बात को दावे के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी पत्रकारिता अब न सिर्फ प्रसार की दृष्टि से बल्कि विश्वसनीयता, गुणवत्ता तथा प्रभाव की दृष्टि से भी अंग्रेजी से आगे निकल रही है।’
अतीत आज हमारे सामने नहीं है और भविष्य हमारे लिए अनजान है। फिर भी यह बात जोर देकर कही जा सकती है कि मनुष्य स्वयं जैसे भविष्य का निर्माता होता है, वैसे ही पत्रकारिता भी अपने भविष्य की निर्मात्री हो सकती है। पत्रकारिता को भविष्य निमात्री तभी माना जा सकता है जबकि वह कलात्मक रूप से विकसित हो, सांस्कृतिक अभिरुचियों को विकसित करे, वास्तविकता का सम्यक् उदघाटन करती रहे और वैज्ञानिक शिल्प को अपनाकर सतत् सत्यान्वेषणी बनी रहे। बाबूराव विष्णु पराड़कर ने वृन्दावन साहित्य सम्मेलन के अवसर पर हुए सम्पादकीय सम्मेलन में जो भविष्यवाणी की थी वह आज बिल्कुल सत्य हो रही है। उन्होनें कहा था, ‘हम सम-सम्पादक पत्रों की उन्नति चाहते हैं, पर हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इस उन्नति के साथ-साथ पत्र की स्वातंत्र्य हानि अवश्यम्भावी है। उन्नति व्यापारिक ढंग से हो सकती है। इसके लिए पूँजी और व्यावसायिक संगठन की आवश्यकता है। इंग्लैण्ड अमेरिका के पत्रों में स्पष्टतः देखा जाता है कि उनके सम्पादकीय स्तम्भ उतने ही निकम्मे बनते जा रहे हैं। लन्दन के टाइम्स जैसे दो-तीन पत्र इसके अपवाद हैं, पर साधारण नियम वही है जो ऊपर बताया जा चुका है। एडीटर की अपेक्षा मैनेजिंग एडीटर का प्रभाव और क्षमता अधिक दृढ़ हो गई है। भावी हिन्दी समाचार पत्रों में भी ऐसा होगा। पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े-बड़े धनियों अथवा सुसंगठित कम्पनियों के लिए ही सम्भव होगा।
पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे, आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी। मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पना होगी, गम्भीर गन्वेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब कुछ होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी। इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क समझे जाएगे। सम्पादक की कुर्सी तक पहुँच भी न होगी। वेतनभोगी सम्पादक मालिक का काम करेंगे, पर आज भी हमें जो स्वतन्त्रता प्राप्त है वह उन्हें नहीं होगी।’
नवभारत के सम्पादक राजेन्द्र माथुर के शब्दों में, ‘हिन्दी पत्रकारिता का विकास भविष्य में ‘थ्री टीयर’ विकास होगा। एक राष्ट्रीय, दूसरा प्रादेशिक और तीसरा जिला स्तरीय होगा।’
अतः वर्तमान में पत्रकारिता का जो स्वरूप है, वह हमें यह विश्वास दिलाता है कि हिन्दी पत्रकारिता तमसावृत नहीं है, एक ज्योतिष्यमान किरण दिखाई दे रही है जो हिन्दी पत्रकारिता के प्रति आशा जगाती है।
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