प्रसार शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्य
प्रसार शिक्षा का उद्भव ग्रामोत्थान तथा ग्रामीणों को बेहतर जीवन-स्तर प्रदान करने के उद्देश्य से हुआ है। हार्ने के अनुसार, ग्रामीण जनसंख्या का जीवन स्तर ऊंचा उठाना तथा भूमि, जल एवं पशुधन का समुचित उपयोग ही प्रसार कार्यक्रम का मूल लक्ष्य है। स्थानीय प्राकृतिक स्रोतों की सहायता से आत्मोन्नति द्वारा जीवन को सुखमय एवं समृद्ध बनाया जाना चाहिए। ग्रामीण वर्ग अपनी सम्पन्नता तथा बेहतर जीवन स्तर की प्राप्ति के लिए शहरी जीवन के प्रति आकर्षित होते हैं। उनमें यह विश्वास जाग्रत करना आवश्यक है कि ये सब कुछ वे गाँवों में रहकर ही प्राप्त कर सकते हैं। कृषि एवं ग्रामीण उद्योगों की उन्नति करके ग्राम्यवासियों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाया जा सकता है। प्रसार कार्य के माध्यम से उनके सामाजिक एवं पर्यावरीक वातावरण को स्वस्थ बनाया जा सकता है तथा सामुदायिक सुविधाएँ, जैसे- अस्पताल, विद्यालय, बैंक इत्यादि की व्यवस्था करके आधुनिक जीवन की कड़ियों से जोड़ा जा सकता है।
ग्रामीणों का विकास ही प्रसार शिक्षा का मूल लक्ष्य है। कृषकों के ज्ञान को बढ़ाकर, उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि करके पैदावार को बढ़ाया जा सकता है। इससे आमदनी में वृद्धि होना सुनिश्चित है। आमदनी बढ़ने पर अच्छे भोजन, अच्छे पहनावे, अच्छी तरह जीवनयापन की इच्छा स्वतः बलवती होती है। बौद्धिक स्तर को ऊंचा उठाने पर सामाजिक वातावरण अपेक्षाकृत स्वस्थ होता है। प्रसार कार्यक्रम के अन्तर्गत एक ऐसे वातावरण को तैयार करने का उद्देश्य रहता है जहाँ परस्पर व्यवहार में खुलापन हो, लोगों का बौद्धिक स्तर निरंतर ऊँचा उठता रहे, आत्मिक ज्ञान का विकास हो, पर्यावरण स्वच्छ हो, सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा होती रहे, लोगों के मनोरंजन की पर्याप्त व्यवस्था हो, ग्रामवासियों की ग्राम्य-जीवन के प्रति आसक्ति बनी रहे तथा उन्हें आगे बढ़ने के समस्त अवसर गाँवों में प्राप्त होने लगें। अपने काम, अपने परिवेश, अपने जीवन से संतुष्ट होकर ही कोई व्यक्ति अपने प्रति आस्थावान हो पाता है तथा अपने काम, अपने परिवेश और अपने जीवन पर गौरवान्वित हो सकता है। इन सारे लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को लेकर ही प्रसार शिक्षण एवं कार्यक्रम की परिकल्पना की गई तथा कार्यान्वयन किया जा रहा है।
अध्ययन की दृष्टि से प्रसार शिक्षा के लक्ष्यों एव उद्देश्यों को अग्रलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- (1) शैक्षिक उद्देश्य, (2) भौतिक उद्देश्य, (3) सामाजिक उद्देश्य, (4) सामुदायिक उद्देश्य, (5) सांस्कृतिक उद्देश्य ।
शैक्षिक उद्देश्य- प्रसार शिक्षा के शैक्षिक उद्देश्यों के अन्तर्गत मनुष्य के ज्ञान, मनोवृत्ति तथा कार्यक्षमता में परिवर्तन लाना लक्षित होता है। ज्ञान के विकास हेतु मनुष्य को सूचनाओं की आवश्यकता होती है। इन सूचनाओं से स्वयं को जोड़ना, उन्हें ग्रहण करना तथा उनका उपयोग करना आत्मोन्नति के महत्वपूर्ण चरण हैं। प्रायः व्यक्ति अपनी समस्याओं को जानने तथा पहचानने में असफल रहता है। उसे यह बताने की आवश्यकता रहती है कि उसकी समस्या क्या है। समस्या रवैये की भी आवश्यकता होती है। व्यक्ति की रुचि सीखने के प्रति होनी चाहिए तथा उसकी यह का अभिज्ञान होने पर ही व्यक्ति हल ढूँढ़ने का प्रयास करता है। इसके निमित्त विवेक तथा विश्लेषणात्मक आंतरिक इच्छा होनी चाहिए कि वह सदैव नई बातें सीखकर अपना ज्ञानवर्द्धन करे। प्रसार शिक्षण के अन्तर्गत सीखने की क्रिया प्रत्यक्षण (perception) के सिद्धांत पर आधारित होती है, अर्थात् प्रत्यक्षण की विशेषता के अनुसार इसके द्वारा उसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति का ज्ञान होता है जो उपस्थित रहता है।
सीखने की क्रिया के साथ-साथ मनुष्य की मनोवृति एवं व्यवहार में परिवर्तन तथा परिमार्जन आते हैं। ज्ञानार्जन द्वारा ही व्यक्ति यह जान पाता है कि उसकी आवश्यकताएँ क्या हैं, उसके नैतिक मूल्य क्या होने चाहिए तथा इनके प्रति उनकी मनोवृत्ति कैसी रहनी चाहिए। जीवन के पिछले अनुभव मनुष्य को आगे बढ़ने में सहायता पहुँचाते हैं। इनके द्वारा मनुष्य को अपनी गलतियों तथा उपलब्धियों का ज्ञान होता है। पिछले अनुभव मानव-मनावृत्ति को प्रभावित कर उसके व्यवहार में आवश्यकतानुरूप परिवर्तन लाते हैं।
ज्ञान-स्तर बढ़ाने, मनोवृत्ति में परिवर्तन लाने के साथ-साथ प्रसार शिक्षा का यह भी उद्देश्य रहता है कि वह व्यक्ति की कार्यक्षमता या कार्य-कौशल्य को विकसित करे। कार्य सम्पादन में दक्षता का कोई अन्तिम बिन्दु नहीं होता। यह एक उत्तरोत्तर विकसित होने वाली कला है। जब व्यक्ति अपनी कार्यक्षमता नहीं बढ़ाता तो वह लकीर का फकीर बन जाता है तथा अपनी प्रगति एवं उन्नति की सम्भावनाओं पर विराम चिन्ह लगा लेता है। कृषक कार्य तथा ग्रामीण उद्योग दिन-प्रतिदिन नई तकनीकों से जुड़ने के कारण अत्यन्त परिवर्तनीय एवं विकासोन्मुख हो गए हैं। इनके विकास में कदम से कदम मिलाने का अर्थ है- ग्रामीणों की कार्यक्षमता का विकसित होना, अन्यथा Lab to Land की परिकल्पना मात्र कल्पना रह जाएगी। कृषि एवं ग्रामीण उद्योग धन्धों से सम्बन्धित प्रयोगों को साकार रूप तो उस धंधे से जुड़े लोग ही दे सकते हैं। अतः यह आवश्यक है कि कार्य दक्षता को उत्तरोत्तर विकसित करके कार्य-सम्पादन प्रणाली में आवश्यकतानुसार परिवर्तन लाए जाएँ।
प्रसार शिक्षा का उद्देश्य ग्रामीणों को शिक्षित करना है। ग्राम्य-शिक्षण की कार्य-प्रणाली सामान्य शिक्षण से भिन्न होती है। इसके कई पहलू होते हैं। जो व्यक्ति जिस उद्योग-धंधे से उसे अपने ही धंधे से सम्बन्धित जानकारी प्राप्त होनी चाहिए। प्रसार कार्यकर्त्ताओं के माध्यम से निजी कार्य सम्बन्धी जानकारियाँ उन्हें उनके अपने कार्यक्षेत्र में प्राप्त होती है। जनसंचार माध्यम भी प्रसार शिक्षण के व्यावहारिक पक्ष को लक्षित करके अपना कार्य सम्पादन करते हैं। हमारे देश के साक्षरता स्तर में प्रसार शिक्षा के अन्तर्गत प्रौढ़ या वयस्क शिक्षा को अत्यन्त महत्व दिया जा रहा है। प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत मुख्य रूप से 15 से 35 आयु वर्ग के व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है। जुड़ा है, प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम का उद्देश्य उन लोगों को शिक्षित करना है जो विद्यालयी शिक्षा से वंचित रह गए अथवा जो विद्यालयी शिक्षा को पूरा नहीं कर पाए। जनसंचार के छपित माध्यमों के लाभ से अशिक्षि वर्ग वंचित रह जाता है। अतः नई जानकारियों के लिए उसे सदा दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। अक्षर ज्ञान द्वारा व्यक्ति को इस दिशा में आत्म-निर्भर बनाया जा सकता है। इस प्रकार उन्नत बीजो, नए कृषि यंत्रों, उर्वरकों, कीट नियंत्रण, पशुओं की देखभाल, भंडारण, विक्रय जैसी महत्त्वपूर्ण बातो से सम्बन्धित जानकारियाँ वे स्वयं पा सकते हैं। शैक्षिक स्तर के विकास के साथ व्यक्ति में जागरूकत आती है। वह अपनी आवश्यकताओं एवं समस्याओं के प्रति सतर्क होता है तथा स्वयं उनके समाधान ढूँढ़ने में सक्षम होता है। शिक्षित ग्रामीण कृषि सम्बन्धी पत्र-पत्रिकाओं का समुचित लाभ उठाकर अपने उद्योग को समुन्नत बना सकता है।
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