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भारत में मानवाधिकार आन्दोलन
औपनिवेशिक भारत में सामाजिक आन्दोलन- भारतीय इतिहास में वर्ष 1800 से कई सामाजिक आन्दोलन नजर आते है। सामान्यतः ऐसे संघर्ष तत्कालीन सरकारों के विरोध में संगठित हुए, उसके साथ ही उस समय के प्रशासन ने कुछ सुधार भी किए। उदाहरण के लिए व्यक्तिगत सुधारकों जैसे राजाराममोहन राय, ईश्वरचन्द्र व दयानन्द सरस्वती के द्वारा किए गए प्रयत्नों के प्रभावस्वरूप अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन द्वारा सामाजिक समानता स्थापित करने की दिशा में वैधानिक परिवर्तन किए गए। सामान्यतः इन परिवर्तनों के सकारात्मक प्रभाव भारत के उन समूहों पर पड़े, जो ऐतिहासिक दृष्टि से सामाजिक उपेक्षा के शिकार थे। उदाहरण के लिए, महिलाएँ प्रमुख रूप से उन नए कानूनों से लाभान्वित हुई, जिनके द्वारा सती-प्रथा या विधवा विवाह प्रतिबन्ध को समाप्त कर दिया गया।
राष्ट्रीय आन्दोलन एवं लोकतान्त्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में किए गए राष्ट्रीय आन्दोलन ने एक व्यापक लोकतान्त्रिक संघर्ष चलाया, जिसमें व्यापक मानवाधिकार व नागरिक स्वतन्त्रता के मुद्दे शामिल थे। इसी आधार पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने नागरिक-अधिकारों का हनन करने वाले कई दमनकारी कानूनों जैसे 1878 का शस्त्र कानून, प्रेस पर प्रतिबन्ध वह राजद्रोह कानून का विरोध किया। किन्तु इसी कांग्रेस ने, कई दमनकारी कानूनों का समर्थन भी किया व इस प्रकार स्वतन्त्रता आन्दोलन में एक स्वस्थ लोकतान्त्रिक प्रभाव स्थापित करने में असफल रही।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रमुख लक्ष्य अंग्रेजी शासन से स्वतन्त्रता प्राप्त करना था। इस स्वतन्त्रता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने सामाजिक स्थायित्व की आवश्यकता व मानवाधिकारों के समर्थन के लक्ष्यों के बीच निरन्तर एक सन्तुलन बनाए रखने का कठिन प्रयास किया। इसी कारण कांग्रेस नागरिक स्वतन्त्रता व अधिकारों की समुचित पक्षधर न हो सकी व दूरगामी नागरिक व सामाजिक आन्दोलनों की आवश्यकता व कमी बनी रही ।
भारत का पहला नागरिक अधिकार संगठन इंडियन सिविल लिबर्टीज यूनियन- भारत में एक विशिष्ट नागरिक अधिकार आन्दोलन का आरम्भ 1934 में स्थापित इंडियन सिविल लिबर्टीज यूनियन ने किया। इसकी प्रमुख गतिविधियाँ नागरिक अधिकारों के हनन सम्बन्धी जानकारी एकत्रित करना था, विशेष रूप से जेलों में बन्द कैदियों व विभिन्न प्रकार की कैद में रखे गए बन्दियों की हालत, पुलिस-अत्याचार व साहित्य व प्रेस पर लगे प्रतिबन्ध इत्यादि पर ध्यान देना था।
इसके अतिरिक्त बम्बई सिविल लिबर्टीज यूनियन, मद्रास सिविल लिबर्टीज यूनियन, व पंजाब सिविल लिबर्टीज यूनियन जैसे संगठनों ने भारत में एक जीवन्त सामाजिक आन्दोलन की आरम्भ किया। वर्ष 1937 में भारतीय कांग्रेस, विभिन्न प्रान्तों में चुनाव जीतकर सत्ता में आई। इन नव-निर्वाचित प्रान्तीय सरकारों को मानवाधिकारों के हनन का दोषी ठहराया गया। इंडियन सिविल लिबर्टीज यूनियन के द्वारा इन मुद्दों के उठाएँ जाने से उसके व कांग्रेस के बीच तनाव बढ़ा। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर इंडियन सिविल लिबर्टीज यूनियन संस्थापकों द्वारा नागरिक अधिकारों के पक्षधर संगठन की आवश्यकता न रहने की घोषणा उसके समाप्त होने का कारण बनी।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद मानवाधिकार आन्दोलन भारतीय संविधान-पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने भारतीय संविधान के माध्यम से स्वतन्त्र भारत के नागरिकों को अविभाज्य व पूर्ण मौलिक अधिकार प्रदान किए। भारतीय संविधान विश्व का सबसे विस्तृत प्रगतिशील व अधिकारों पर आधारित संविधान है। यह लगभग उसी समय रचित मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा-पत्र से प्रभावित था। मौजूदा अधिकारों पर आधारित अनेकों संविधानों से भी कई विशेषताएँ इसमें अपनाई गई। यही कारण है कि इसमें मानवाधिकार के आधारभूत सिद्धान्त निहित हैं व संविधान उनकी सुरक्षा का भी आश्वासन देता है।
भारतीय संविधान के दस्तावेज में भारतीय जनता के अधिकारों के अंग्रेजी औपनिवेशिक सत्ता के द्वारा हनन के विरुद्ध किए ऐतिहासिक संघर्ष के प्रमाण मिलते है। संविधान नागरिक अधिकारों के अतिक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है, इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष में निहित अन्य आदर्शों, विशेष रूप से सामाजिक सुधार के संकल्प व उसके सती, बाल विवाह व छुआछूत जैसी प्रथाओं के विरुद्ध सक्रिय प्रयास भी इसमें शामिल है। संविधान राज्य को लोगों के कल्याण व राहत पहुँचाने के लिए उचित नीतियाँ बनाने व लागू करने का आदेश देते हुए नागरिक अधिकारों के अतिरिक्त आर्थिक व सामाजिक अधिकार के विचार को मूर्त रूप देता है।
महात्मा गांधी के नेतृत्व ने भारतीय समाज में रचनात्मक ऊर्जा को जाग्रत किया। इसी ऊर्जा ने भारतीय समाज में गांधीवादी आन्दोलन के अन्तर्गत भौतिक व आध्यात्मिक कल्याण के लक्ष्य को नया रूप दिया। इससे पहले, राष्ट्रवादी आन्दोलन का नेतृत्व, लोगों को सुधार की विषयवस्तु मानता था — इस दृष्टिकोण का निचोड़ उन दो विभिन्न नीतिगत कार्यक्रमों में देखा जा सकता है, जो या तो भारतीयों के पूर्ण पश्चिमीकरण अथवा औपनिवेशिक प्रशासन से सहयोग की हिमायत करता था। गाँधी ने इसके विपरीत एक नया विकल्प प्रस्तुत किया लोगों के अपने संसाधनों का उन्हीं के सहयोग से पुनर्गठन करके भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति का रास्ता दिखाया।
स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात अंग्रेजी दमनकारी शासन के विरुद्ध जनान्दोलन संगठित करने के सभी प्रयासों ने अपने सपने साकार करने के लिए स्वतन्त्र देश की सरकार पर अपनी आशाएँ टिका दी । किन्तु सरकार की नीतियों ने वास्तविकता व जन आकांक्षाओं की खाई को पाटने की अपेक्षा उच्च जातियों व सम्पन्न वर्गों के हाथ में विशेषाधिकार केन्द्रित कर दिए। संविधान में निहित स्वतन्त्रता का आदर्श व उपेक्षितों के पक्ष में अधिकार व स्वीकार्यात्मक/सक्रिय हस्तक्षेप की नीति को जातिवादी, सामन्तवादी व साम्प्रदायिक भारतीय राजनीति ने औपनिवेशिक नौकरशाही के साथ मिलकर निष्प्रभावी बना दिया। आन्तरिक अव्यवस्था व अस्थिरता ने नागरिक अधिकारों के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को चुनौती देकर उसे दुर्बल कर दिया। 1960 के दशक में उभरा वामपंथी नक्सली आन्दोलन, केन्द्रीय सरकार की दमनकारी व शोषक नीतियों की प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति था। इसके परिणामस्वरूप असहमति का हिंसक दमन व कठोर राजनीतिक नियन्त्रण के मनमाने तरीकों का नागरिकों पर उपयोग बढ़ा। किन्तु इस स्थिति ने संविधान व राज्य द्वारा अपना नियन्त्रण स्थापित करने के तरीकों के तीखे विरोधाभास की तरफ सबका ध्यान बँटाया, इसी कारण नए सामाजिक व जन-आन्दोलनों का जन्म हुआ।
1975-76 के दौरान जनान्दोलन का उदय- हिंसक तरीकों से आर्थिक व सामाजिक असमानताओं की बदलने का प्रयास जिस प्रकार नक्सल विद्रोह व उस प्रकार के अन्य आन्दोलनों ने किया, उससे भारतीय राज्य व समाज में एक अभूतपूर्व संकट की स्थिति बनी। नियन्त्रण से बाहर होते विरोध का दमन करने के लिए 1975 में इन्दिरा गांधी की सरकार ने राष्ट्रव्यापी आपातकाल की घोषणा कर दी। श्रीमती गांधी के इस एकपक्षीय कदम ने भारत में जनाधिकार आन्दोलनों को चिनगारी देकर अचानक भड़काने की भूमिका निभाई। आपातकाल में मानवाधिकारों का भीषण दमन किया गया व बिना कारण के गिरफ्तारी के कानून का खुलकर व्यापक उपयोग किया गया। एक लाख से अधिक लोगों को राजनीतिक कारणों से झूठे आरोपों के आधार पर गिरफ्तार करके जेलों में रखा गया। इस प्रकार गिरफ्तार किए जाने वालों में, विरोधी दलों के नेता, विभिन्न मजदूर संघों के नेता व सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। सरकार ने समाचार-पत्रों, व संचार माध्यमों की निकाली पर रोक तथा सार्वजनिक सभाओं पर पूरी तरह रोक लगा दी। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त सभी नागरिक अधिकारों व उनको सुरक्षा प्रदान करने वाले उपकरणों को 19 महीने के लिए पूरी तरह स्थगित कर दिया गया।
इस समय के दौरान ही मानवाधिकार आन्दोलन सांगठनिक आधार के रूप में विकसित हुआ एवं स्पष्ट रूप से दिखने लगा। भारत में जनाधिकार आन्दोलन ने मनमाने ढंग से बन्दी बनाए जाने, संरक्षणात्मक हिंसा, बन्दियों से दुर्व्यवहार व कानूनी प्रक्रियाओं के दुरुपयोग के विरुद्ध आवाज उठाई। इस आपातकाल के दौरान अनेको संगठनों का जन्म हुआ, जैसे पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज एंड डेमोक्रेटिक राइट्स आन्ध्रप्रदेश सिविल लिबर्टीज यूनियन व एसोसिएशन फॉर दि प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइटस। राज्य की न्यायहीनता का विरोध करने के लिए बनाए गए इन समूहों के अतिरिक्त अन्य समूह राज्य से कई प्रकार की माँग करने के लिए गठित किए गए। यह समूह मानवाधिकार समूहों की श्रेणी में आते है। इन समूहों ने निम्नलिखित गतिविधियों को अपनाया
- तथ्यों की जाँच के लिए जाँच दलों का गठन एवं जाँच-पड़ताल करना
- जनहित याचिकाएँ दायर करना
- नागरिक जागरण कार्यक्रमों का आयोजन
- अभियान संचालन
- ‘स्वतन्त्र आन्दोलन व संगठनों के लिए समर्थन साहित्य निर्माण
संकट की स्थिति में इन संगठनों ने उन समुदायों, समूहों व व्यक्तियों को राहत देने, समर्थन करने व जनमत प्रभावित करने के प्रशंसनीय प्रयास भी किए हैं जिनके अधिकारों का हनन किया गया। ऐसे अनेक उदाहरण इस प्रकार की गतिविधियों के दिए जा सकते है 1984 के सिक्ख विरोधी धंगे, भोपाल गैस त्रासदी, 1989 के भागलपुर के दंगे, हाल में सरदार सरोवर परियोजना द्वारा विस्थापितों के आन्दोलन व गोधरा दंगे के पीड़ितों के सरोकार।
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