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महादेवी वर्मा की काव्यगत विशेषताएँ
वर्तमान हिन्दी काव्य-क्षेत्र में महादेवी वर्मा हिन्दी कविता के प्रेरणा स्रोत के रूप में प्रख्यात रही हैं। महादेवी जी की काव्य-कला दो भिन्न विशेषताओं से युक्त है- छायावादी विशेषताएँ और निजी विशेषताएँ। भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से महादेवी वर्मा के काव्य की विशेषताओं का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है।
(I) भावपक्षीय विशेषताएँ
महादेवी वर्मा के काव्य की भावपक्षीय विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
(1) अलौकिक प्रेम का चित्रण- महादेवी जी का सम्पूर्ण काव्य, प्रेम-काव्य है। उनके प्रारम्भिक गीतों में जिस अलौकिक प्रेम का चित्रण हुआ है, वही आगे चलकर एक प्रकार की साधना बन गया। महादेवी के प्रारम्भिक गीतों में ऐसे अनेक संकेत प्रदर्शित हुए हैं जिनके आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके प्रेम का आलम्बन अलौकिक ब्रह्म है। इस अलौकिक ब्रह्म के विषय में कभी तो उनके मन में मिलन की प्रबल भावना जाग्रत हुई है और कभी रहस्यमयी प्रबल जिज्ञासा । जीवन के शून्य और एकांकी क्षणों में वे विकल होकर गा उठती हैं-
अलि कैसे उनको पाऊँ
ये आँसू बनकर मेरे, इस कारण दुल-दुल जाते।
इन पलकों के बन्धन में, मैं बाँध-बाँध पछताऊँ ।।
प्रियतम से मिलने के पूर्व मिलन की आशा में वे शृंगार करती हैं-
शशि के दर्पण में देख-देख मैंने सुलझाये तिमिर केश।
गूँथे चुन तारक पारिजात, अवगुंठन कर किरणें अशेष ।।
(2) प्रकृति का मानवीकरण- छायावादी काव्य में प्रकृति का वर्णन बहुत विस्तार से और अनेक रूपों में हुआ है। परिणामतः कुछ आलोचक इसे प्रकृति काव्य कहना ही उपयुक्त समझते हैं। महादेवी जी ने भी प्रकृति का चित्रण अनेक रूपों में किया है। उनके काव्य में प्रकृति आलम्बन उद्दीपक, उपदेशक, पूर्वपीठिका आदि रूपों में प्रस्तुत हुई है। उन्होंने प्रकृति पर मानवीय भावनाओं का आरोप करके उसे आत्मीय बना लिया है
धीरे-धीरे उत्तर क्षितिज से आ वसन्त- रजनी!
तारकमय नव वेणी- बन्धन, / शीश-फूल कर शशि का नूतन
रश्मि-वलय सित-घन अवगुण्ठन/मुक्ताहल अभिराम बिछा दे चितवन से अपनी !
उन्होंने रात्रि को नहीं, बदली को सुन्दरी के रूप में सुशोभित किया-
रूपसि तेरे घन-केश पाश /श्यामल-श्यामल कोमल कोमल,
लहराता सुरभित केश-पाश ।
(3) रहस्यात्मकता- महादेवी जी के काव्य में रहस्य – भावना पर आधारित स्वर प्रमुख रूप से मुखरित हुआ है। आत्मा को परमात्मा से मिलने के लिए जिन विविध सोपानों को पार करना पड़ता है वे सभी महादेवी जी के काव्य में दर्शनीय हैं। उनके रहस्यवाद की विशेषताएँ है। मनुष्य का प्रकृति से तारतम्य, प्रकृति पर चेतनता का आरोप, प्रकृति में रहस्यों की अनुभूति असीम सत्ता और उसके प्रति समर्पण तथा सार्वभौमिक करुणा आदि। महादेवी जी का प्रियतम निराकार, अगोचर और सर्वव्यापक है। प्रेम में मग्न हो अपने ईश को वे पलकों की शय्या पर सुलाना चाहती हैं।
तुम सो जाओ मैं गाऊँ,
तुमको सोते युग बीते, तुमको यों लोरी गाते।
अब आओ मैं पलकों में स्वप्नों की सेज बिछाऊँ ।।
(4) वेदना भाव-महादेवी जी के काव्य में वेदनाभाव की प्रचुरता है। उनकी वेदना में साधना, संकल्प और लोक-कल्याण की भावना निहित है। महादेवी जी को वेदना अत्यधिक प्रिय है। उनकी कामना है कि उनके जीवन में सदैव अतृप्ति बनी रहे और उनकी आँखों से निरन्तर आँसुओं की धारा बहती रहे-
मेरे छोटे जीवन में देना न तृप्ति का कण भर
रहने दो प्यासी आँखें, भरती आँसू के सागर ।
x x x
अश्रु से मधुकण लुटता आ यहाँ मधुमास,
अश्रु ही की हाट बन आती करुण बरसात!
वेदना महादेवी जी के लिए विभिन्न प्रकार की उपलब्धियों का साधन बन गई। जिस प्रियतम की प्राप्ति वेदना से हुई है, उस प्रियतम में भी वे पुनः वेदना को ही ढूँढ़ने की आकांक्षा रखती है-
तुमको पीड़ा में ढूँढ़ा,/तुममें ढूँढूँगी पीड़ा ।
(II) कलापक्षीय विशेषताएँ
पीड़ा और वेदना की महानू कवयित्री महादेवी के काव्य की कलापक्षीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं- (1) सूक्ष्म अप्रस्तुत-विधान-अपने विषय को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए कवि उपमानों का सहारा लेते हैं। ये उपमान दो प्रकार के होते हैं। स्थूल और सूक्ष्म। महादेवी जी ने अपने काव्य में सूक्ष्म उपमानों का प्रयोग किया है। साँसों को सौरभ के समान बताते हुए महादेवी जी ने कहा है-
इन पर सौरभ की साँसें/लुट-लुट जातीं दीवानी ।
(2) लाक्षणिकता- लाक्षणिकता की दृष्टि से महादेवी जी का काव्य भव्य है। उन्होंने अपने अनेक गीतों में भावों के सुन्दर चित्र अंकित किए। जिस प्रकार थोड़ी सी रेखाओं और रंगों के माध्यम से कुशल चित्रकार किसी भी चित्र को उभार देता है उसी प्रकार महादेवी ने थोड़े से शब्दों के माध्यम से ही अनेक सुन्दर चित्र चित्रित किए-
देखकर कोमल व्यथा को आँसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दी थीं इसी अंगार-पथ में ।
(3) प्रतीक-योजना- महादेवी जी के काव्य में प्रतीकों का बाहुल्य है। बदली, सान्ध्य-गगन, सरिता, दीप, सजल नयन, रात्रि, गगन, जलधारा, अन्धकार, ज्वाला, पंकज, किरण, विद्युत, प्रकाश आदि उनके प्रमुख प्रतीक हैं। उनके प्रतीकों के अर्थ भी अपने ही हैं। जैसे- मैं नीर भरी दुःख की बदली में ‘बदली’ की तात्पर्य करुणा से परिपूर्ण हृदयावली से है। इसी प्रकार कुछ गिने-चुने प्रतीकों को अपनाकर तथा उनमें नवीन अर्थ भरकर कवयित्री ने अपनी प्रतीक योजना को समृद्ध और भावों को प्रभावशाली बना दिया है।
भाषा- महादेवी जी की प्रारम्भिक रचनायें ब्रज भाषा में होती थीं। फिर इन्होंने खड़ी बोली में पदार्पण किया। इनकी खड़ी बोली शुद्ध, परिष्कृत एवं परिमार्जित है। संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्राधान्य है कोमलकान्त पदावली से युक्त इनकी भाषा माधुर्य से ओत-प्रोत है। भावों के अनुसार भाषा में प्रवाह भी है ।
शैली- महादेवी जी की शैली “गीत शैली” है। इनकी वर्तमान शैली धीरे-धीरे विकसित शैली का परिष्कृत रूप है। इनकी शैली को ‘भावात्मक गीत शैली’ कहा जा सकता है। इस शैली में भाव, भाषा और संगीत का समन्वय है। लक्षणा अथवा व्यंजना शक्तियों के प्रयोग ने शैली में अस्पष्टता उत्पन्न की है।
निष्कर्ष – महादेवी वर्मा छायावादी युग की एक महत्त्वपूर्ण कवयित्री समझी जाती हैं। सरस, कल्पना, भावुकता एवं वेदनापूर्ण भावों को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से इन्हें अत्यधिक सफलता मिली। इन्हें छायावादी कविता के उन्नायकों में से एक माना जाता है।
- महादेवी वर्मा के काव्य के वस्तु एवं शिल्प की सोदाहरण विवेचना कीजिए ।
- महादेवी वर्मा के गीतों की विशेषताएँ बताइए।
- वेदना की कवयित्री के रूप में महादेवी वर्मा के काव्य की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।
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