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राजनीतिक व्यवस्था उपागम से आप क्या समझते है?
‘राजनीतिक व्यवस्था’ क्या है? हमें सर्वप्रथम ‘व्यवस्था’ शब्द का अर्थ समझना चाहिए। यह शब्द भौतिक विज्ञानों से लिया गया हैं । भौतिक विज्ञानों के अन्तर्गत “व्यवस्था का अर्थ सुपरिभाषित अन्तर क्रियाओं के परिभाषा के अनुसार, समूह से है जिसकी सीमाएँ निश्चित की जा सकें। ” शाब्दिक “व्यवस्था” का अर्थ है- .” जटिल सम्बन्धित वस्तुओं का समय समूह विधि संगठन, पद्धति के निश्चित सिद्धान्त तथा वर्गीकरण का सिद्धान्त।” इन अर्थों में महत्वपूर्ण शब्द है – सम्बन्धित संगठित और संगठन। अर्थात् एक व्यवस्था संगठित होनी चाहिए अथवा उसमें संगठन हो, उसके अंग सम्बद्ध हो। यदि किसी भी स्थान पर हमें संगठन मिलता है अथवा जहाँ से संगठित होने के गुण पाये जाते है और उसके सभी अंग एक दूसरे से सम्बद्ध है तो वहाँ ‘व्यवस्था’ विद्यमान है। व्यवस्था में तीन गुण पाये जाते हैं।
(1) व्यापकता – व्यापकता का अर्थ है व्यवस्था के अन्तर्गत हम सभी परस्पर क्रियाओं शामिल करते है। दूसरे शब्दों में हम व्यवस्था के अन्तर्गत न केवल उन अंगों को शामिल करते है जो विधि पर आधारित है, जैसे विधानमण्डल, कार्यपालिका आदि वरन् समस्त संरचनाओं को उनके राजनीतिक रूप में शामिल करते है जैसे जाति, धर्म परिवार आदि।
(2) अन्योन्याश्रय- अन्योन्याश्रय का अर्थ है कि जब व्यवस्था के एक अंग के गुणों में परिवर्तन आता है तो उसका प्रभाव अन्य संघटकों पर भी स्वतः पड़ता है। उदाहरण के लिए मानव शरीर एक व्यवस्था है। जब शरीर के किसी एक भाग में पीड़ा होती है तो उसका प्रभाव संपूर्ण शरीर पर पड़ता है।
(3) सीमाएँ – सीमाएँ से हमारा तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यवस्था किसी एक बिन्दु से प्रारम्भ होती है तथा किसी एक निश्चित स्थान पर उसका अन्त होता है। दूसरे शब्दों में ऐसा बिन्दु जहाँ पर अन्य व्यवस्थाओं की परिधि समाप्त होती है और राजनीतिक व्यवस्था की परिधि प्रारम्भ होती है, उसे हम राजनीतिक व्यवस्था की सीमा कहते है।
समाज स्वयं एक व्यवस्था है जिसका निर्माण राजनीतिक व्यवस्था के अतिरिक्त अन्य व्यवस्थाओं जैसे आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, धार्मिक और जैविक व्यवस्थाओं से होता है। ये सभी व्यवस्थाएँ एक-दूसरे को प्रभावित करती रहती है। राजनीतिक व्यवस्था अन्य व्यवस्थाओं से अलग और पूर्ण नहीं है। व्यक्ति का राजनीतिक आचरण न केवल उसके राजनीतिक मूल्यों अथवा प्रतिमानों से प्रभावित होता है वरन् रक्त सम्बन्ध धार्मिक सम्बन्ध, आर्थिक क्रियाओं तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों से भी प्रभावित होता है। व्यवस्था का अर्थ है- “मानवीय सम्बन्धों का स्वरूप”। कोई भी मानवीय सम्बन्धों की संरचना ‘राजनीतिक व्यवस्था’ बन जाती है यदि उसके अन्तर्गत शक्ति, नियम और सत्ता के तत्व दृष्टिगोचर होने लगते है।
राजनीति विज्ञान का जनक अरस्तू इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि राजनीतिक संगठन अन्य संगठनों से इस रूप में भिन्न है क्योंकि इसमें सत्ता और नियम विद्यमान रहते है जबकि अन्य संगठनों में इसका अभाव पाया जाता है। आधुनिक विचारक लासवैल भी “राजनीतिक क्रिया उस क्रिया को मानता है जो शक्ति के परिप्रेक्ष्य में की गयी हो।”
राजनीतिक व्यवस्था राजनीतिक संस्थाओं तक ही सीमित नहीं है। जाति, समूह, चर्च, व्यावसायिक संगठन सभी में राजनीतिक व्यवस्था की कल्पना की जा सकती है, यदि संस्था के सदस्य सत्ता, शक्ति और नियम से सम्बन्धित है, वस्तुतः प्रत्येक संगठन का एक राजनीतिक पहलू होता है।
राबर्ट डहल के अनुसार, ” राजनीतिक व्यवस्था मानव सम्बन्धों का वह स्थानी संरूप है। जिसके अन्तर्गत शक्ति नियम और सत्ता महत्वपूर्ण मात्रा में अन्तर्ग्रस्त हों।”
डेविड ईस्टन के अनुसार राजनीतिक व्यवस्था के तीन संघटक है – प्रथम राजनीतिक व्यवस्था नीतियों के माध्यम से मूल्यों का आवण्टन करता है, द्वितीय, इसका आबण्टन प्राधिकारिक होना है, तीसरा, इसका अधिकारिक आबण्टन समाज पर बाह्य रूप से लागू होता है।
संक्षेप में, राजनीतिक व्यवस्था एक ऐसी उप-व्यवस्था है जिसके विभिन्न भागों में ऐसी सम्बन्चसूत्रता होती है कि व्यवस्था के किसी भी भाग में हुआ कोई भी परिवर्तन अन्य अन्तः क्रियाशील अंगों तथा सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में भी अनुकूल परिवर्तन ला देता है।
राजनीतिक व्यवस्था की विशेषताएँ
आमण्ड ने राजनीतिक व्यवस्था की पाँच विशेषताएँ बतलायी है-
(1) राजनीतिक व्यवस्क्थाओं की सार्वभौमिकता; (2) राजनीतिक संरचनाओं की सार्वभौमिकता; (3) राजनीतिक कार्यो की सार्वभौमिक्ता (4) राजनीतिक संरचना की बहुकार्यता; (5) राजनीतिक व्यवस्थाओं का सांस्कृतिक दृष्टि से मिश्रित रूप विभिन्न राजनीतिक व्यवस्थाएँ वास्तविक जीवन में प्रायः एकसा व्यवहार करती है अतः
राजनीतिक व्यवस्थाओं में पायी जाने वाली समान विशेषताएँ इस प्रकार है :
( 1 ) राजनीतिक पंरचनाओं की समानता – सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक संरचनाएँ पायी जाती है। इन संरचनाओं की परस्पर तुलना की जा सकती है। इन संरचनाओं में अन्तर केवल विशिष्टीकरण का होता हैं।
( 2 ) कार्यों की सर्वव्यापकता सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं में समान कार्य किये जाते है। संरचना के आधार पर राजनीतिक व्यवस्था की तुलना करने पर हम सही परिणाम नहीं इसे संरचना की अपेक्षा कार्यों को अधिक महत्व देना चाहिए। हित समूह के संगठन और सदस्यता की अपेक्षा यह जानना अधिक उपयुक्त होगा कि हितों को कैसे स्पष्ट किया जाता है? कौन-से ठन इस कार्य में भाग लेते है और किस प्रकार वे हितों की स्पष्ट करते है ?
(3 ) राजनीतिक संरचना की विविधता सभी राजनीतिक व्यवस्थाएँ विविध कार्य करती है। ये हम विगत 50 वर्षो में राजनीतिशास्त्र में हुए विकासों का अवलोकन करें तो हम देखेंगे कि राजनीतिक संरचनाओं का प्रत्येक अंग केवल एक ही कार्य नहीं करता वरन् एक से अधिक कार्य ता है। यह कहा जाता है कि विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उनकी लागू करती है तथा न्पायपालिका उनकी व्याख्या करती है। परन्तु वास्तविकता यह है कि तीनों विभाग एक-दूसरे के कार्य को करते है। विधानमण्डल विधि-निर्माण के साथ-साथ प्रशासनिक और न्यायिक कार्य भी करता है। नौकरशाही न केवल कानूनी को लागू करती है बल्कि विधि निर्माण के साथ-साथ प्रशासनिक और न्यायिक कार्य भी करता है। नौकरशाही न केवल कानूनों को लागू करती है बल्कि विधि निर्माण का एक बहुत बड़ा स्रोत है।
(4) राजनीतिक संरचनाओं का मिश्रित स्वरूप- कोई भी राजनीतिक व्यवस्था विशुद्ध नहीं होती। समस्त राजनीतिक व्यवस्थाएँ ‘मिश्रित व्यवस्थाएँ हैं। राजनीतिक व्यवस्था परम्परागत तथा आधुनिक दोनों प्रकार के विचारों और संस्थाओं का रूप होती है।
( 5 ) राजनीतिक साधनों का असमान स्वामित्व- प्रत्येक व्यवस्था में राजनीतिक साधनों का असमान विवरण होता है। राजनीतिक साधनों से हमारा अभिप्रायः उन साधनों से है जिनकें द्वारा एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के आचरणों को प्रभावित करता है। इस प्रकार राजनीतिक साधनों के अन्तर्गत धन भोजन, सूचनाएँ, बल प्रयोग की धमकी आदि शामिल किये जा सकते है।
( 6 ) राजनीतिक प्रभाव का प्रयत्न राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ लोग सरकार की नीतियों और निर्णयों को प्रभावित करने के लिए अधिक प्रयत्नशील रहते है। शासकीय नीतियों, नियमों और निर्णयों को प्रभावित करने की क्षमता का ही नाम राजनीतिक प्रभाव है।
( 7 ) राजनीतिक प्रभाव का असमान वितरण- राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत राजनीतिक प्रभाव का असमान वितरण होता है। इसका प्रमुख कारण साधनों का असमान वितरणहै। कुछ व्यक्तियों के पास राजनीतिक साधन अधिक होते है जिनके द्वारा वे सरकार को प्रभावित कर सकते है। जिन व्यक्तियों का सरकार पर अधिक प्रभाव होता है, वे अपने इस प्रभाव के द्वारा और अधिक राजनीतिक साधनों पर नियन्त्रण कर सकते है।
(8) वैधता का अर्जन- राजनीतिक व्यवस्था के नेता यह प्रयत्न करते है कि जब भी संघर्ष से निपटने के लिए सरकारी साधनों का प्रयोग किया जाये जो उन निर्णयों का पालन जनता न केवल हिंसा, दण्ड आदि की भावना से करें बल्कि इस भावना से भी करें कि वह नैतिक रूप से सही है और उनका पालन करना उचित हैं। अर्थात् प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था के नेता अपने कार्यो को वैध बनाने का प्रयास करते है।
(9) विचारधारा का विकास – सिद्धान्तों के समूह को विचारधारा कहा जाता है राजनीतिक व्यवस्था के नेता साधारणतया ऐसे स्थायी और एकीकृत सिद्धान्तों के समूह को अपनाते है जो कि व्यवस्था में उनके नेतृत्व को स्पष्ट और उचित सिद्ध कर सकें । नेता विचारधारा का विकास इसलिए करते है ताकि उनके नेतृत्व को वैधता प्राप्त हो सके अथवा वे अपने प्रभाव को प्राधिकार में परिवर्तित कर सकें। यह तथ्य हम सभी जानते है कि बल प्रयोग की अपेक्षा प्राधिकार के माध्यम से शासन करना अधिक मितव्ययी है। विचारधारा राजनीतिक व्यवस्था को औचित्य प्रदान करती है।
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