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वेदना की कवयित्री के रूप में महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा और छायावाद
महादेवी वर्मा के काव्य में छायावादी काव्य की विशेषताएँ कहाँ तक प्राप्त होती हैं। महादेवी जी ने ‘यामा’ की भूमिका में अपनी वेदनानुभूति के दो स्वरूप बतलाये हैं- “एक वह जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार से अविच्छिन्न बन्धन में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और सीमा के बन्धन में पड़े हुए असीम चेतना का क्रन्दन है।” उन्होंने अपनी वेदना के कारण पर प्रकाश डालते हुए यह भी इंगित किया है कि दुःख की व्यंजना हृदय में उठती हुई स्वाभाविक सहृदयता और करुण के व्यापक प्रभाव के कारण है।
महादेवी वर्मा की वेदना के प्रेरक तत्त्व- महादेवी जी की वेदना के प्रेरक तत्त्वों के सम्बन्ध में आलोचकों में पर्याप्त मतभेद है। इन आलोचकों के सामान्यतः दो वर्ग मुख्य हैं श्री विश्वम्भर मानव, श्रीमती शचीरानी गुर्दू, आचार्य विनयमोहन शर्मा, डॉ० नगेन्द्र वेदना को लौकिक मानते हैं। वेदना को आध्यात्मिक मानने वालों में मुख्य हैं- श्री व्यथित हृदय, गंगाप्रसाद पाण्डेय, सन्तकुमार वर्मा तथा श्री लक्ष्मीनारायण शुधांशु ।
श्री मानव ने महादेवी जी को वेदनाभूति का स्रोत खोजने में उनके असफल वैवाहिक जीवन और युवती नारी के हृदय की रंगीन कल्पनाओं की विफलता को ही मुख्य रूप से कारण माना है। यथा, “यौवन के तूफानी” क्षणों में जब उनका (महादेवी का) अल्हड़ हृदय किसी प्रणयी के स्वागत को मचल रहा था और जीवन -गगन के रक्ताभ-पट स्नेह-ज्योत्स्ना छिटकी पड़ रही थी, तभी अकस्मात् विफल प्रेम की धूप खिलखिला पड़ी और पुलकते प्राणों की धूमिलता में अस्पष्ट रेखाएँ सी अंकित हो गईं। आत्म-संयम का व्रत लिए उन्होंने जिस लौकिक प्रेम को ठुकरा कर पीड़ा को गले लगाया वह कालान्तर में आन्तरिक शीतलता से स्नात होकर बहुत कुछ निखर तो गई, परन्तु उनके हठीले मन का उससे कभी लगाव न छूटा और वे उसे निरन्तर कलेजे से चिपटाये रखने की मानो हठ पकड़ बैठीं।
आचार्य विनय मोहन शर्मा ने महादेवी जी की वेदनानुभूति की व्याख्या इस प्रकार की है ‘‘महादेवी का काव्य व्यक्तिगत मानसिक संघर्ष, अभाव और बुद्ध के दुःखवाद से प्रभावित है। दुःख को उन्होंने ‘मधुर’ के रूप स्वीकार किया है। उसमें उनकी प्रेयसी की भूमिका है जो परोक्ष प्रिय के लिए अहर्निशि आतुर होती रहती है। प्रिय और प्रियतम की इस कल्पित आँखमिचौनी से उनका काव्य क्रीड़ा को उठा है। वे कहती हैं
प्रिय चिरन्तन है सजनि/ क्षण-क्षण नवीन सुहागिनी मैं ।
डॉ० नगेन्द्र ने महादेवी जी की वेदना को अतृप्त वासना की अभिव्यक्ति माना है। वह लिखते हैं कि— “सामयिक परिस्थितियों के अनुरोध से जीवन से रस और साँस न ग्रहण कर सकने के कारण यह एक तो वांछित भक्ति का संचय नहीं कर पायीं दूसरे एकान्त अन्तर्मुख हो गई। इस प्रकार उनके आविर्भाव में मानसिक दमन और अतृप्तियों का बहुत बड़ा योग हैं, इसको कैसे भुलाया जा सकता है। इन मन्तव्यों का निष्कर्ष यही है कि महादेवी जी की ‘वेदना’ पर वैवाहिक जीवन की असफलता की गहरी छाया है। उनकी वेदना का मूल कारण तो भौतिक ही है, जो उदात्त बनकर रहस्यवादी या अलौकिक बन गया है।”
श्री ‘व्यथित हृदय’ आदि कतिपय आलोचकों के मतानुसार “उनकी वेदना आध्यात्मिक है, सत्य है। × × वे प्रकृति और सम्पूर्ण जगत को अपने से दूर नहीं देखती हैं।”
श्री गंगाप्रसाद पाण्डेय सन्तकुमार वर्मा महादेवी जी के व्यक्तित्व को; आध्यात्मिकता की भूमिका पर व्यक्त साधना जीवन मानते हैं, जिसकी संचारी रूप सेवा का ठोस जीवन है। इसके अनुसार, ‘‘उन्होंने महादेवी के जीवन में दुःखवाद को पूर्ण रूप से समझने की चेष्टा की है क्योंकि उनका विश्वास है कि दुःख द्वारा अपने जीवन को ही नहीं वरन् मानवता को सुखी और समृद्ध बनाया जा सकता है-
चिर ध्येय यही जलने का/ठण्डी विभूति बन जानी
है पीड़ा की सीमा यह / दुःख का चिर सुख हो जाना
श्री लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने भी महादेवी जी की आध्यात्मिक साधना को उनके वास्तविक जीवन की अभिव्यक्ति ही माना है।
कुछ आलोचकों ने महादेवी जी की करुणा का रहस्य उनके नारी स्वभाव में ही ढूँढ़ने का प्रयत्न किया है। डॉ० रामविलास शर्मा महादेवी जी के पीड़ावाद को पूर्ण भौतिक और नारी जीवन की परिस्थितियों से सम्बन्धित बताया है उनके विचार से आज की नारी सामन्ती व्यवस्था के कारण पीड़ित है।
अपने दुःख एवं वेदना भाव के सम्बन्ध में महादेवी वर्मा के विचार- महादेवी वर्मा बचपन से ही विशेष कल्पनाशील रही हैं। अपने इस कल्पनाशील प्रवृत्ति का वर्णन कवयित्री ने ‘यामा’ की भूमिका में बड़ी कवित्वपूर्ण शैली में किया है- “मेरा प्रत्यक्ष ज्ञान मेरी कल्पना के पीछे सदा ही बाँधकर चलता रहता है इसी से जब रात-दिन होने का प्राकृतिक कारण मुझे ज्ञात न था तभी सन्ध्या से रात तक बदलने वाले आकाश के रंगों में मुझे परियों का दर्शन होने लगा था, x x x मेरी रंगीन कल्पना के जो रंग शब्दों में न समाकर छलक पड़े या जिनकी शब्दों में अभिव्यक्ति मुझे पूर्ण रूप में सन्तोष न दे सकी, वे ही तूलिका के आश्रित हो सके हैं।”
महादेवी की वेदना का स्वरूप विषादकारी न होकर आह्लादकारी है। उन्हें करुणा-स्नात उजले उल्लासमय दुःख की अपेक्षा है, निराशाजनित मलिन दुःख की नहीं-
शून्य मन्दिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी
अर्चना हो शूल हो ले, सार दृगजल अर्घ्य हो ले
आज करुणा स्नात उजला, दुःख हो मेरा पुजारी।
इस प्रकार महादेवी की काव्य-कृतियों में वेदना का स्वाभाविक विकास उपलब्ध होता है। महादेवी जी के दुःख का वह रूप प्रिय है जो सहानुभूति और ममता की वृद्धि करके आत्मा का विस्तार करता है। अद्वैतवादी प्रभाव की भूमिका में दुःखवादी आत्मप्रतीत द्रष्टव्य है
तुम हो विधु के बिम्ब और मैं / मुग्धा रश्मि अजान
जिसे खींच चलाते अस्थिर कर, कर/कौतूहल के बाण!
महादेवी जी की वेदनानुभूति के पीछे इनका सेवा-संकल्प लेकर चलने वाला जीवन और उसके मार्ग में आने वाली कठिनाइयाँ भी हैं। एक ओर तो कवयित्री सबके दुःख को अपना दुःख समझकर करुणापूरित हो जाती हैं और दूसरी ओर अपनी साधना के प्रति पूर्णतः आश्वस्त दिखाई देती हैं।
निष्कर्ष- उपर्युक्त विवेचना का निष्कर्ष यह है कि महादेवी वर्मा की वेदनानुभूति बहुत ही व्यापक है और वह जीवन की सक्रियता प्रदान करने वाली ठोस सेवा का संकल्प लिए हुए हैं। महादेवी जी की वेदनानुभूति का विकास जीवन की यथार्थता को लेकर युगानुकूल प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है। इनकी वेदना के साहित्य में साधना, संकल्प और लोक कल्याण की भावना मुखरित हुई है। महादेवी की वेदनानुभूति में विविधता और व्यापकता दोनों ही हैं। धर्मस्पर्शिता की दृष्टि से उनका भाव कवीन्द्र रवीन्द्र के वेदना-भाव से सम्बन्धित निकट है। छायावादी कवियों में वेदनानुभूति की दृष्टि से वह जयशंकर प्रसाद के सर्वाधिक निकट हैं।
- महादेवी वर्मा के काव्य के वस्तु एवं शिल्प की सोदाहरण विवेचना कीजिए ।
- महादेवी वर्मा के गीतों की विशेषताएँ बताइए।
- महादेवी वर्मा की काव्यगत विशेषताएँ- भावपक्षीय विशेषताएँ तथा कलापक्षीय विशेषताएँ
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