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“संकल्प न कि शक्ति राज्य का आधार है।” (ग्रीन)। इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
अनेक विचारक राज्य को मात्र शक्ति का परिणाम और प्रतीक मानते हैं। ये व्यक्तिवादी, साम्यवादी तथा अराजकतावादी विचारक हैं, जिनसे ग्रीन सहमत नहीं है। ग्रीन की मान्यता है कि यदि कोई राज्य भय और आतंक फैलाकर अपने आदेशों का पालन कराने की कोशिश करता है तो वह कभी भी स्थायी नहीं हो सकता है। इसलिए अंग्रेजी दार्शनिक ग्रीन ने कहा है कि “संकल्प न कि शक्ति राज्य का आधार है।”
ग्रीन का मत है कि राज्य का जन्म अधिकारों की रक्षा करने के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हुआ है। आमतौर पर व्यक्ति जिस तरह अपने अधिकारों को सम्माननीय मानता है, उसी तरह दूसरों के अधिकारों की भी रक्षा करता है। किन्तु कभी-कभी क्रोध, घृणा या स्वार्थ से प्रेरित होकर वह दूसरों के अधिकारों के प्रति उपेक्षापूर्ण दृष्टि भी अपना लेता है । जहाँ तक सार्वजनिक दृष्टि का प्रश्न है, अधिकारों की अवहेलना अवांछनीय होती है और सभी लोगों की यह समान इच्छा होती है कि सभी परिस्थितियों में सभी के अधिकारों की रक्षा करने वाली कोई संस्था होनी चाहिये। यही सामान्य इच्छा राज्य की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है। इस तरह राज्य सामान्य इच्छा का ही साकार रूप है राज्य का आधार यही इच्छा है।
यह बात तो सत्य है कि राज्य कभी-कभी हमारे खिलाफ बल का प्रयोग करता है, लेकिन यह भी सत्य है कि राज्य बल का प्रयोग भी हमारी इच्छा से ही करता है, क्योंकि इसी के लिए हमने राज्य की सृष्टि और स्थापना की है। वास्तविकता तो यह है कि ग्रीन ने बल के प्रयोग को भी सामान्य इच्छा का ही दूसरा रूप बतलाया है। कहने का मतलब यह है कि राज्य के जिन कृत्यों में हमें बल प्रयोग देखने को मिलता है, वे भी सामान्यत:सामान्य इच्छा के फल होते हैं। इसी संदर्भ में ग्रीन ने अपनी यह प्रसिद्ध उक्ति व्यक्त की है-‘संकल्प न कि शक्ति राज्य का आधार है।’
ग्रीन की इस उक्ति के समर्थन में निम्नांकित बातें कही जा सकती हैं-
(1) चूँकि रज्य का आधार इच्छा है शक्ति नहीं, इसलिए पुलिस और सेना के लिए भी राज्य
की आज्ञाओं को शिरोधार्य करते हैं।
(2) शक्ति तो एक स्थायी तत्त्व है, लेकिन राज्य तो एक स्थायी संस्था है। स्वयं ग्रीन के शब्दों में, “राज्य का वास्तविक आधार साधिकार शक्ति हो सकती है। निराधिकार शक्ति से अधिक
से अधिक राज्य का अस्थायी आधार ही माना जा सकता है।’
(3) व्यावहारिक जीवन के अनुभव से भी यह बात अभिव्यक्त होती है कि किसी भी राज्य के अस्तित्व का आधार केवल शक्ति तो नहीं ही हो सकती। केवल शक्ति पर आधारित होने के कारण ही भारत में ब्रिटेन का साम्राज्य, फ्रांस में बूबॉ वंश का शासन तथा सोवियत रूस में जारशाही की इतिश्री हो गयी।
(4) यदि राज्य का आधार मात्र शक्ति ही होती तो इसका अस्तित्व बहुत पहले ही समाप्त हो गया होता। राज्य का अस्तित्व अभी तक बना रहना ही इस बात का प्रमाण है कि राज्यों का आधार इच्छा है, न कि शक्ति।
(5) यदि राज्य का आधार केवल शक्ति ही होती, तो मनुष्य उसकी आज्ञाओं का पालन तभी तक करता है जब तक उसे भय उपस्थित रहता है। लेकिन व्यवहार में देखने को मिलता है कि राज्य की आज्ञाओं का पालन अधिकांश जनता स्वेच्छा से करती है, क्योंकि राज्य की सत्ता जनता की सामान्य इच्छा पर आधारित होती है।
(6) नागरिकों में प्रायः सहयोग, न्याय तथा ईमानदारी की भावनाएँ अस्तित्व में होती हैं, जिनसे ग्रीन की इस उक्ति की सत्यता को ही बल मिलता है।
आलोचनाएँ
किन्तु अनेक आलोचकों ने ग्रीन के इस कथन को सत्य मानने से इंकार किया है। उनके अनुसार, यह कथन पूर्णतया सत्य और स्वीकार योग्य कतई नहीं है।
इस कथन की प्रमुख आलोचनाएँ इस प्रकार हैं-
(1) आलोचक मनोवैज्ञानिक आधार पर इस कथन को सत्य मानने के लिए तैयार नहीं हैं। मानव मस्तिष्क में बराबर संघर्ष चलता रहता है और इस प्रकार से सामान्य हित या सामान्य इच्छा की कल्पना औचित्यपूर्ण नहीं है। गिन्सबर्ग के शब्दों में, “समाज में जब कभी हमें जो वस्तु सार्वजनिक कल्याण की प्रतीत होती है, वह मनुष्य की इच्छा पर आधारित नहीं होती, वरन् इसके विपरीत व्यक्तियों की इच्छाओं में परस्पर इतना संघर्ष होता है कि हम उसके द्वारा सामान्य इच्छा की उत्पत्ति को तर्कयुक्त नहीं ठहरा सकते।”
(2) यदि यह मान भी लिया जाय कि सामान्य इच्छा सत्य है और इसका अस्तित्व भी है, तो उसे कार्य रूप में अवतरित करने वाली मशीन के रूप में राज्य है, जिसे हमेशा ठीक ही नहीं माना जा सकता।
(3) इस बात की ठीक प्रकार से विवेचना ही नहीं की जा सकती कि सामान्य इच्छा का आधार सार्वजनिक हित है। फलस्वरूप सामान्य इच्छा के माध्यम से निम्नकोटि की शोषण वृत्ति
को अपनाया जाना बहुत ही सरल है।
उपर्युक्त चर्चित आलोचनाओं के बावजूद ग्रीन ने अपनी इस उक्ति के द्वारा एक महत्त्वपूर्ण आंशिक सत्य को उद्घाटित तथा प्रतिपादित किया है। ग्रीन ने इसके माध्यम से राज्य के लिए एक भावी आदर्श की प्रस्तुति की है। सच्चाई तो यह है कि ग्रीन के इस कथन से प्रजातन्त्र एवं जन प्रमुख का मार्ग प्रशस्त हो सका है।
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