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संत टॉमस एक्वीनास के राजनीतिक विचार | संत टॉमस एक्वीनास के विधि संबंधी विचार
संत टॉमस एक्वीनास राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और तर्कशास्त्र का अपने युग का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधिकारिक विद्वान माना जाता है। उसकी तीक्ष्ण राजनीतिक बुद्धि तथा योग्यता का प्रमाण इससे ही प्रमाणित हो जाता है कि बड़े-बड़े राजा उससे शासकों के कार्य बतलाने का अनुरोध करते थे। साथ ही, अपनी तार्किकता के सहारे ही वह अरस्तू और ईसाई धर्म के दर्शन का समन्वय प्रस्तुत करके स्कॉलेस्टिकवाद के संस्थापक-प्रतिपादक के पद पर प्रतिष्ठित हो सका। उसके प्रमुख राजनीतिक विचार इस प्रकार हैं-
1. प्रकृति
संत टॉमस एक्वीनास के अनुसार प्रकृति सोद्देश्यीय है । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु का अपना महत्त्व है, जो अपने ढंग से संसार के पूर्णत्व की प्राप्ति में योगदान करती है। मानव प्रकृति के दो तत्त्वों की चर्चा वह करता है-सांसारिक तथा आध्यात्मिक। सांसारिक प्रकृति तो लौकिक कार्य में रत रहती है और वह छल-कपट आदि दोषयुक्त भी हो सकती है, लेकिन मनुष्य की आध्यात्मिक प्रकृति ऐसे दोषों से युक्त नहीं रहती, क्योंकि वह अपनी निश्छलता के ही कारण मानव-स्वभाव में ईश्वरीय प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती है। आध्यात्मिक प्रकृति का स्वभाव विवेकयुक्त होता है। इसी के आधार पर टॉमस ने समाज संबंधी अपनी रूपरेखा तैयार की। जिस प्रकार प्रकृति का प्रत्येक अंग अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है ठीक उसी प्रकार समाज का छोटे-से-छोटा सदस्य भी उपयोगी है। वह महत्तर सदस्य की सेवा करता है और समाज का महत्तर सदस्य महत्तम की सेवा करता है और जो व्यक्ति समाज के उच्चतम आसन पर होता है, वह लघुत्तर व्यक्तियों का मार्ग-दर्शन करता है। उसकी मान्यता है कि समाज की रचना स्त्री के लाभ के लिए हुआ है। वस्तुत: संत टॉमस एक्वीनास का विचार है कि समाज का जन्म ही सबके लिए समान रूप से उपयोगी होने के कारण हुआ है।
2. राज्य
टॉमस के अनुसार, राज्य की उत्पत्ति प्राकृतिक रूप से हुई है, क्योंकि उसके बिना मनुष्य का पूर्ण विकास सम्भव नहीं था। चूँकि मानव-स्वभाव पूर्णता प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहता है और राज्य उसमें सहायता प्राप्त कर सकता है, इसलिए राज्य का जन्म स्वभाविक था। टॉमस के अनुसार, राज्य एक समाजोपयोगी संस्था है, जिसके बिना मनुष्य की समुचित उन्नति असंभव है। वह लोक-कल्याणकारी राज्य में विश्वास करता है । उसके अनुसार राज्य को प्रजाजनों की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए, स्कूल, कालेज एवं विश्वविद्यालय खोलने चाहिए, ज्ञान की शाखा-प्रशाखा के समुचित अध्ययन की व्यवस्था करनी चाहिए, निर्धनों की सहायता करनी चाहिए, काम करने योग्य लोगों को काम दिलाना चाहिए तथा भिक्षु गृह खोलने चाहिए। सन्त टॉमस एक्वीनास की धारणा है कि ईश्वर सत्ता का आदि स्रोत है और इसलिए राजसत्ता का भी स्रोत ईश्वर है, जो ईश्वर से समाज को प्राप्त हुई है और समाज शासन करने की क्षमता रखने वाली शक्तियों को यह सत्ता अर्पित कर देता है। इस प्रकार प्रकारान्तर से सरकार की सत्ता का स्रोत भी ईश्वर ही हुआ। अरस्तू की भाँति राजसत्ता का मूल स्रोत सामाजिक व्यवस्था बतला कर और राज्य की उत्पत्ति के धर्म-सम्मत दैवी सिद्धान्त को भी औचित्यपूर्ण बतला कर उसने अरस्तू तथा ईसाई दर्शन में समन्वय स्थापित किया।
3. राज्य का वर्गीकरण
अरस्तू के समान ही संत टॉमस एक्वीनास ने छ: प्रकार के राज्य बतलाये हैं। उसके अनुसार निरंकुशतंत्र निकृष्टतम शासनतंत्र है, जो राजतंत्र का विकृत स्वरूप है। राजतंत्र को वह सर्वोत्तम मानता है । जिस राज्य में एक ही राजा होता है और विवेक तथा न्याय पर शासन को आधारित करता है, वह सर्वोत्तम राज्य है। राज्य का सर्वाधिक विशिष्ट गुण एकता है जो राजतंत्र में ही प्राप्त होती है। उसके बाद ही वह आभिजात्यतंत्र, मध्यवर्गीय जनतंत्र, सामन्ततंत्र
और लोकतंत्र को स्थान देता है।
4. राज्य का उद्देश्य
टॉमस के अनुसार राज्य का उद्देश्य वही है, जो मनुष्य का है। मनुष्य मोक्ष या निर्वाण चाहता है, जो तभी संभव है जब मनुष्य सम्पूर्ण मोह-माया और ममता को त्याग कर अपने को निर्दोष बना ले अर्थात् जब वह सद्गुणी हो जाय। मनुष्य इसी मार्ग पर अग्रसर होने का प्रयास करता है, लेकिन इस मार्ग में अनेक बाधाएँ उपस्थित होती हैं । राज्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है कि वह ऐसी परिस्थितियों और वातावरण की सृष्टि करे कि मनुष्य को अपने कर्त्तव्य की ओर अग्रसर होने में सहायता प्राप्त हो और उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं का निराकरण हो सके। राज्य के अन्य कार्य हैं-शांति और व्यवस्था की स्थापना, बाह्य आक्रमणों से रक्षा, नागरिकों को सदाचारी बनाना, अपराधियों को दण्ड देने की व्यवस्था करना, आवागमन के साधनों को सुलभ बनाना।
5. विधि
टॉमस के विधि संबंधी विचार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं । वह विधि को इस प्रकार पारिभाषित करता है-“विधि विवेक सम्मत वह आदेश है जिसका लक्ष्य लोक-कल्याण होता है और यह आदेश उस व्यक्ति के द्वारा दिया जाता है जिसके ऊपर किसी समुदाय की व्यवस्था का भार होता है।” उसकी मान्यता है कि विधि में सार्वभौमिकता, अपरिवर्तनशीलता तथा स्वाभाविकता के गुण होने चाहिए। विधि का आदि स्रोत प्रकृति है। इसलिए प्रकृति की विधि का उल्लंघन करने की शक्ति किसी मानव में नहीं है, चाहे वह पोप ही क्यों न हो। इसलिए विधि के प्रति सामान्य व्यक्ति और पोप दोनों को समान रूप से श्रद्धा रखनी चाहिए। विधि के प्रति यह आस्था एवं श्रद्धा का भाव अत्यधिक महत्त्वपूर्ण था।
सन्त टॉमस के अनुसार, विधि चार प्रकार की होती है-
(अ) शाश्वत विधि-
शाश्वत विधि ईश्वर का विवेक है, जिससे अन्य कोई परिचित नहीं है। इसमें समस्त ब्रह्माण्ड का विधान निहित है। ये सर्वोच्च विवेक का प्रतीक है। इसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना मानव क्षमता के परे है। किन्तु मानवीय प्रकृति में कुछ दैवी या आध्यात्मिक अंश भी विद्यमान होता है, जिस पर शाश्वत विधियों की एक हल्की एवं क्षीण सी छाप उपस्थित होती है। यह अस्पष्ट होती है और अपने चेतन मस्तिष्क के माध्यम से मनुष्य पूर्णरूपेण विश्लेषण नहीं कर पाता है। फिर भी मनुष्य शाश्वत विधि को अन्तरंग ढंग से अनुभव करता है और अपने आचरण को तदनुकूल विकसित करने की कोशिश करता है।
(ब) प्राकृतिक विधि
जो विधियाँ शाश्वत विधि की भाँति पूर्णरूपेण अस्पष्ट नहीं होती, हालाँकि उनकी उत्पत्ति का आधार शाश्वत विधियाँ ही होती हैं। मानव-मस्तिष्क के द्वारा शाश्वत विधि का अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट स्वरूप प्राकृतिक विधि है । शाश्वत विधि को मनुष्य की बुद्धि के द्वारा जितना ग्रहण कर लिया जाता है, वही प्राकृतिक विधि है
(स) मानवीय विधि
मानवीय विधियाँ प्राकृतिक विधियों का वह स्वरूप हैं जो विशिष्ट व्यावहारिक परिस्थितियों में बुद्धि की सहायता से बनायी जाती है। प्राकृतिक विधि जब परम्परा बन जाती है, तो राज्य के द्वारा उसकी पुष्टि कर दी जाती है। इस पुष्टि से एक ओर उक्त परम्पराओं के प्रति राज्य की सहमति की अभिव्यक्ति होती है और दूसरी ओर यह धमकी भी प्रस्तुत करता है कि यदि प्राकृतिक विधि द्वारा अनुमोदित और राज्य द्वारा सहमत परम्पराओं का किसी के द्वारा उल्लंघन किया जायेगा तो उसे राज्य के कोप का भागी बनना पड़ेगा।
(द) दैवी विधि
दैवी विधि वह है, जिसे ईश्वर ने कृपा कर स्वत: ही धर्म ग्रन्थों में व्यक्त कर दिया है । जब मानव-विवेक और बुद्धि असफल हो जाती है, तो उसको त्रुटियों को दैवी विधि दूर करती है । दैवी विधि का अनुपालन संत टॉमस एक्वीनास ने अत्यावश्यक बतलाया है और उसके अनुसार इनका पालन किये बिना मनुष्य को संसार से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
6. धर्म सत्ता एवं राजसत्ता
राज्य का उद्देश्य है ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करना जिसमें मनुष्य का सद्गुणी विकास हो सके, ईश्वर से वह साक्षात्कार कर मुक्ति प्राप्त कर सके । यही मानद जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसमें सहायता करना राज्य का परम कर्त्तव्य है तथापि राज्य के द्वार मात्र बाह्य वातावरण की प्रस्तुति ही की जा सकती है। मुक्ति-प्राप्ति के लिए आत्मा की शुद्धि करन आवश्यक है, जो धर्म का दायित्व है। मानव-आत्मा का नियंत्रण करने वाली शक्ति संयम का पाठ पढ़ाती है और वह शक्ति अवश्य ही उससे श्रेष्ठतर है जो मात्र लक्ष्य प्राप्ति के बाह्य साधनों को इकत्रित करती है। फिर भी दोनों सत्तायें अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण हैं।
धार्मिक सत्ता और लौकिक सत्ता के पारस्परिक सहयोग के प्रश्न पर उसके विचार का आधार उसका यह दृष्टिकोण है कि “विशेष सत्य और मानव जीवन से संबंधित महत्त्वपूर्ण सत्य विवेक के आधार पर नहीं, वरन् विश्वास के आधार पर प्राप्त किये जा सकते हैं।” विश्वास के क्षेत्र में वह चर्च को अन्तिम सत्ता मानता है और इसीलिए वह मानता है कि लौकिक क्षेत्र में भी उसे लौकिक सत्ता प्राप्त होनी चाहिए। टॉमस के ही शब्दों में, “शासक का यह कर्त्तव्य है कि वह लौकिक कार्यों को ईश्वर की इच्छा के अनुसार सम्पादित करे और इस दृष्टि से राज्य के अधिकारी, पुरोहित या पादरी वर्ग और चर्च को दैवी कानून के अधीन होना चाहिए।” यदि कोई शासक चर्च के आदेशों का उल्लंघन करता है, तो उसे पदच्युत और बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए। एक्वीनास की यह स्पष्ट धारणा है कि नागरिक कल्याण और मुक्ति से संबंधित सभी विषयों में पोप को समस्त शासकों पर सर्वोच्च सत्ता प्राप्त होनी चाहिए। स्पष्ट है कि सांसारिक तथा आध्यात्मिक समस्त मामलों में चर्च को सर्वोच्च स्थिति प्रदान की है। एक्वीनास के शब्दों में, “राज्य रूपी जहाज पर राजा बढ़ई की भाँति है जिसका कार्य आवश्यक मरम्मत द्वारा जहाज को ठीक हालत में रखना है, किन्तु चर्च का कार्य जहाज के चालक जैसा है जो उसे निश्चित स्थान की ओर ले जाता है जिस प्रकार बढ़ई जहाज के चालक के अनुशासन में रहता है उसी प्रकार राज्य और उसके शासक को चर्च के नियंत्रण में रहना चाहिए।” इस प्रकार एक्वीनास ने राज्य के समस्त व्यक्तियों और संस्थाओं पर चर्च को प्रमुख सिद्ध किया है। लेकिन एक्वीनास पोपशाही का वैसा अतिरंजित पोषण नहीं करता, जैसा ग्रगरी सप्तम, इनासेण्ट तृतीय और कौनिफास अष्टम ने किया था। फॉस्टर के अनुसार, “एक्वीनास के लिए चर्च सामाजिक संगठन का ताज है, वह लौकिक संगठन का प्रतिद्वन्दी नहीं वरन् उसकी पूर्णता है।”
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