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संविधानवाद की विभिन्न अवधारणाएँ
“संविधान के उद्देश्य और उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपनाए जाने वाले साधन प्रायः हर राज्य में समान नहीं होते। दूसरे शब्दों में, संविधानवाद की विभिन्न मान्यताएँ या विचारधाराएँ अस्तित्व में हैं और इन मान्यताओं के अनुरूप ही राज्य अपने सांविधानिक आदर्शों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इन आदर्शों की प्राप्ति के लिए साधन भी अलग-अलग रूप और प्रकार ग्रहण करते हैं।
आधुनिक संविधानवाद के बारे में तीन अवधारणाएँ मुख्य रूप से प्रचलित हैं-
1. पाश्चात्य अवधारणा, 2. सोवियत अथवा साम्यवादी अवधारणा एवं 3. विकासशील देशों की अवधारणा।
संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा
पाश्चात्य विचारधारा के अनुसार संविधानवाद की व्याख्या दो प्रकार से हो सकती हैं- (1) मुल्य-मुक्त व्याख्या, एवं (2) मूल्य-अभिभूत व्याख्या। जब हम केवल संविधानिक ढाँवे का वर्णन करते हैं और उसके साथ कोई मूल्य, आदर्श, मान्यताएँ एवं सिद्धान्त नहीं जोड़ते, तो यह व्याख्या ‘मूल्यमुक्त व्याख्या’ कहलाती है। वास्तव में कोई भी संविधान मूल्य-रहित नहीं होता, क्योंकि कुछ न कुछ उपयोगिता एवं मूल्य हर संविधान में समाविष्ट रहते हैं। जब हम राजनीतिक आदर्शों एवं उद्देश्यों को सामने रखकर संविधानवाद की व्याख्या करते हैं तो ऐसी व्याख्या ‘मूल्य-अभिभूत व्याख्या’ कहलाती है। इस व्याख्या के अनुसार जब हम समानता, स्वतंत्रता, प्रजातन्त्र आदि राजनीतिक आदर्शों के बारे में विचार करें तभी वे संविधानवाद की बातें होंगी। मूल्य अभिभूत व्याख्या के आधार पर ही संविधानवाद की व्याख्या की जा सकती है और की जानी चाहिए। यही मान्यता इसके विचार को आगे बढ़ाती है तथा साध्य और साधन की दृष्टि से सोचने के लिए। पृष्ठभूमि तैयार करती है। पाश्चात्य विचारकों के अनुसार संविधानवाद के साध्य और साधन (Means & Ends) दोनों पहलू हैं। यदि इनमें से एक भी न हो तो हम संविधान का सही रूप प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
पाश्चात्य संविधानवाद को उदारवाद का दर्शन कहा जाता है जिसका अन्तर्भाग प्रतिबन्धों की व्यवस्था है। पाश्चात्य देशों में इन प्रतिबन्धों की व्यवस्था शक्ति के ढाँचे का संस्थीकरण करके की जाती है। पाश्चात्य समाजों का विश्वास है कि शक्ति का संस्थीकरण हो जाने से उसका प्रयोग किसी व्यक्ति विशेष की इच्छा से न होकर संस्थागत विधियों द्वारा होगा और जब शक्ति का इस प्रकार नियमपूर्वक प्रयोग किया जाएगा तो उसके दुरुपयोग की प्रभावशाली बचाव-व्यवस्था कायम रहेगी। साराँश यह है कि पश्चिमी संविधानवाद का प्रमुख आधार ‘संस्थागत और प्रक्रियात्मक प्रतिबन्धों से सीमित सरकार’ है। ये प्रतिबन्ध ही पाश्चात्य संविधानवादी धारणा के मूल तत्व हैं।
पाश्चात्य संविधानवाद के तत्व
यदि हम पाश्चात्य संविधानवाद पर गहराई से विचार करें तो स्पष्ट रूप से उनके ये दो मूल तत्व परिलक्षित होते हैं—(क) सीमित सरकार की परम्परा और (ख) राजनीतिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त। इनका विस्तृत वर्णन निम्नांकित हैं
(क) सीमित सरकार की परम्परा- सीमित सरकार की परम्परा का आशय है कि पाश्चात्य संविधानवाद में राजनीतिक शक्ति को नियन्त्रित करने के लिए निम्नलिखित साधनों का सहारा लिया जाता हैं-
1. विधि का शासन-विधि का शासन सरकार की शक्तियों को सीमित रखने की सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था है जिसका आशय यह है कि देश में किसी व्यक्ति का शासन न होकर विधि का शासन मान्य होगा। यह सिद्धान्त अति प्राचीन काल से ब्रिटिश संविधान का एक स्वीकृत सिद्धान्त रहा है। विधि के शासन के अन्तर्गत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा कानून द्वारा होती है और कानून द्वारा सिद्ध किए बिना कोई भी व्यक्ति दण्ड का भागी नहीं ठहराया जा सकता है। विधि के शासन के अन्तर्गत सरकार की स्वेच्छाचारी शक्ति का अभाव होता है और सबके लिए विधि की समानता मान्य होती है। विधि को सर्वोच्च, एकरूप तथा सार्वभौम माना जाता है। पिनॉक एवं स्मिथ के शब्दों में, “विधि के शासन का सिद्धान्त पाश्चात्य संविधानवाद की सम्भवतः सबसे शक्तिशाली और गहन परम्परा है।” इसके द्वारा नागरिकों और प्रशासकीय अधिकारियों की गतिविधियाँ सुनियन्त्रित रहती हैं। विधि का शासन पश्चिमी जगत् में सरकार पर एक आधारभूत प्रतिबन्ध है और संविधानवाद का यही अति प्राचीन तथा क्रमिक आधार अब तक कायम रहा है।
2. मौलिक अधिकारों तथा स्वतन्त्रताओं का प्रावधान- लगभग सभी आधुनिक लोकतांत्रिक राज्यों में नागरिकों को मौलिक अधिकार और स्वतंत्रताएँ प्रदान कर सरकार के कार्यों तथा उसकी शक्तियों को मर्यादित करने की परम्परा विकसित हो चुकी है। नागरिक अधिकारों की स्वीकृति से ही समाज में गतिशीलता बनी रहती है और विद्यमान विविधताओं तथा विशेषताओं को स्वस्थ रूप में विकसित होने का अवसर मिलता है। आधुनिक लोकतन्त्रों में व्यक्ति की स्वतन्त्रता, मस्तिष्क और आत्मा की स्वतन्त्रता, समान लाभ तथा अवसरों की उपलब्धि की स्वतंत्रता, राजनीतिक प्रक्रिया की स्वतंत्रता आदि को वैधानिक स्वीकृति मिली हुई है। इन मूलभूत अधिकार और स्वतंत्रताओं को साधारणतः अनुलंघनीय माना गया है। उपर्युक्त चारों मूलभूत स्वतंत्रताएँ पाश्चात्य संविधानवाद का महत्वपूर्ण भाग हैं। उक्त चारों स्वतंत्रताओं में से राजनीतिक स्वतंत्रता को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। बहुमत पर आधारित लोकतान्त्रिक सरकार को अल्पसंख्यकों के प्रति अन्याय करने से रोकने के लिए इन अधिकारों और स्वतन्त्रताओं का अस्तित्व अनिवार्य है।
3. शक्ति विभाजन– कार्ल जे. फ्रेड्रिक के शब्दों में, “संविधानवाद का वर्णन एक विभाजित शक्ति के रूप में किया गया है।” पाश्चात्य संविधानवादी अवधारणा के अन्तर्गत शक्तियों के विभाजन को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। राजनीतिक शक्ति को राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय सरकारों में विभाजित कर एक शक्ति को दूसरी शक्ति की न्यूनाधिक मात्रा में नियन्त्रित बना दिया जाता है। यद्यपि सभी शक्तियाँ अपने-अपने क्षेत्र में बहुत कुछ स्वतंत्रता का उपभोग करती हैं और प्रायः एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करतीं, तथापि इस प्रकार की व्यवस्था रहती है कि कोई शक्ति निरंकुश न बन जाए।
4. शक्तियों का पृथक्करण- सरकार को नियन्त्रित रखने के लिए केवल यह आवश्यक नहीं है कि सरकार के विभिन्न स्तरों में शक्तियों का विभाजन कर दिया जाए, वरन् यह भी आवश्यक है कि एक स्तर पर या सरकार के विभिन्न अंगों में शक्तियों का पृथक्करण किया जाए। यदि एक ही स्तर पर कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के अधिकार एक ही जगह केन्द्रित हो गए तो नागरिकों के मौलिक अधिकारों और स्वतन्त्रताओं की रक्षा सम्भव नहीं हो सकेगी तथा संविधान खतरे में पड़ जाएगा। इसीलिए यह व्यवस्था की जाती है कि सरकार के तीनों अंगों के पृथक अधिकार क्षेत्र हों और उनके साथ ही यह व्यवस्था अनिवार्यतः जुड़ी रहती है कि एक अंग दूसरे अंग का नियन्त्रक और सन्तुलक बना रहे। अतः नियंत्रण और सन्तुलन की भी व्यवस्था की जाती है। पिनॉक तथा स्मिथ ने ठीक ही लिखा है “पाश्चात्य संविधानवाद का सार शक्तियों के पृथक्करण में निहित हैं।”
5. शक्तियों का विकेन्द्रीकरण- पाश्चात्य संविधानवाद में शक्तियों के त्रिकेन्द्रीकरण की व्यवस्था भी सरकार को सीमित रखने की परम्परा का अंग है। एक ही अंग अथवा संस्था विशेष भी शक्तियों का दुरुपयोग न कर सके, इस दृष्टि से आन्तरिक नियन्त्रण की व्यवस्था की जाती है। उदाहरणार्थ, संसद द्विसदनात्मक बनाई जाती है ताकि एक ही संस्था के दोनों अंगों में एक-दूसरे पर आवश्यक नियन्त्रण द्वारा उस संस्था को निरंकुशता के मार्ग पर बढ़ने से रोका जा सके और उस संस्था के अंगों में सुधारात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता रहे। कार्यपालिका को बहुलता, जनमत आदि भी आन्तरिक नियन्त्रण की ऐसी ही व्यवस्थाएँ हैं।
6. स्वतंत्र निष्पक्ष न्यायपालिका–पाश्चात्य संविधानवाद में यह विचार सुविकसित और सुस्थापित हैं कि सरकार की शक्तियों को सीमित रखने के लिए स्वतंत्र तथा निष्पक्ष न्यायपालिका अनिवार्य है जिसे अन्तिम निर्णायक शक्ति प्राप्त होनी चाहिए। पीटर एच. मार्क के अनुसार, एक हैं। ” “स्वतन्त्र न्यायपालिका आधुनिक संविधानिक सरकार के सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से उपर्युक्त सभी विधियों के प्रयोग से पाश्चात्य संविधानवाद में सीमित सरकार की परम्परा को दृढ़ता से स्थापित किया जाता है ताकि हर स्तर पर सरकारी नियन्त्रण और सन्तुलन की शक्तियों बनी रहें तथा सरकार का कोई भी स्तर या अंग अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न कर सके।
(ख) राजनीतिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त (Doctrine of Political Responsibilities)
वह संविधानवाद का दूसरा प्रमुख तत्व है, इसका आशय हैं कि शासन सत्ता का प्रत्येक अंग और अधिकारी स्वयं को लोकमत के प्रति उत्तरदायी समझे। वर्तमान में राजनीतिक उत्तरदायित्व आधुनिक लोकतन्त्र का मूल तन्त्र है और पाश्चात्य संविधानवाद का एक अनिवार्य तत्व है। इस राजनीतिक उत्तरदायित्व को व्यवहार में प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित का सहारा लिया जाता है—
1. निश्चित अवधि में चुनाव (Regular Election at Proper Intervals ) – चुनाव अवस्था के माध्यम से नागरिकों के अपने शासकों को हटाने या बनाने का अवसर मिलता है। लोकप्रिय सरकार चुनावों में नागरिकों के समर्थन से विजय प्राप्त करती है, अन्यथा अपदस्थ होकर शान्तिपू दूसरी सरकार के सत्तारूढ़ होने का द्वार खोल देती है। चुनाव नागरिकों के हाथ में वह शक्तिशाल थियार है जिससे भय खाकर प्रत्येक सरकार नागरिकों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए की इच्छाओं और आवश्यकताओं के प्रति सजग और सचेत बनी रहती है।
2. राजनीतिक दलों का अस्तित्व (Provision Political Parties) — राजनीतिक दल राजनीतिकत्विकी स्थापना में प्रबल सहायक होते हैं। जब तक विस्तृत आधार वाले राजनीतिक दलों का समाज में अस्तित्व नहीं होगा तब तक राजनीतिक उत्तरदायित्व की व्यवस्था सही अर्थों में कायम नहीं हो सकती। नागरिकों के मतों की अभिव्यक्ति राजनीतिक दल रूपी व्यापक संगठन के माध्यम से हो पाती है। दलों के माध्यम से ही नागरिक अपनी विशिष्ट नीतियाँ प्रकाश में लाते हैं और सरकार की अनुचित या अपने लिए अहितकारी नीतियों का विरोध करते हैं। राजनीतिक दल सरकार और समाज के बीच सम्पर्क की मजबूत कड़ी है तथा समाज की ओर से सरकार को दिन-प्रतिदिन नियन्त्रित रखने को सचेष्ट रहते हैं। इस सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि समाज में एकदलीय व्यवस्था हो या बहुदलीय पाश्चात्य संविधानवाद एक दलीय व्यवस्था को नहीं मानता, क्योंकि इससे निरंकुशता का मार्ग प्रशस्त होता यह एक अधिक दलों के समर्थन का पक्षपाती है। संविधानवाद शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था है जो तभी प्रभावशील हो सकती है जब एक से अधिक दल हों, जो विरोधी दल के रूप में कार्य करते हुए सरकार को जनता के प्रति उत्तरदायी बनाए रखें, अपने प्रचार के माध्यम से जनता में विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करें और जनता को राजनीतिक दृष्टि से शिक्षित बनाएँ।
3. समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता (Freedom of Press)- समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता से राजनीतिक उत्तरदायित्व की व्यवस्था का प्रसार होता है। चुनावों की समाप्ति के पश्चात् नगरिकों में राजनीतिक गतिविधियों के प्रति लगाव बनाए रखने में समाचार पत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है। समाचार-पत्र सरकार और नागरिकों के बीच विचारों के आदान-प्रदान के शक्तिशाली माध्यम हैं। सरकार को नागरिकों की आवश्यकताओं, इच्छाओं, असन्तोष आदि का पता समाचार पत्रों के माध्यम से बड़ी अच्छी तरह चलता रहता है जिससे उत्तरदायित्व की भावना को बल मिलता है। समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता पर अंकुश रखे जाने से लोकतान्त्रिक भावना का प्रसार और नागरिकों तथा राजनीतिक शक्ति के प्रयोगकर्ताओं के बीच समन्वय नहीं हो सकता। अतः स्वतंत्र प्रेस का लोकतंत्र में बड़ा भारी महत्व होता है।
4. लोकमत – लोकमत वह प्रभावशाली अस्त्र है जिसके आगे प्रत्येक सरकार को झुकना पड़ता है, चाहे वह लोकतांत्रिक हो या निरंकुश। राजनीतिक उत्तरदायित्व की सबसे प्रभावशाली व्यवस्था लोकमत के माध्यम से ही सम्भव है। लोकमत सरकार पर प्रभावशाली ढंग से नियंत्रण रखता है।
5. परम्पराएँ और सामाजिक बहुलवाद- परम्पराओं और सामाजिक बहुलवाद अर्थात् समाज के विभिन्न संघों द्वारा सरकार की शक्तियाँ मर्यादित रहती हैं और राजनीतिक उत्तरदायित्व की अवस्थाएँ पनपती हैं। परम्पराएँ समाज में सुदीर्घकाल में स्थापित होती हैं। वर्तमान में भी इनकी पर्याप्त उपयोगिता और लोकप्रियता होती है। अतः कोई भी सरकार सुस्थापित परम्पराओं की पूर्ण उपेक्षा करके जनमत को क्रुद्ध करने का साहस नहीं करती। समाज में जो विभिन्न संघ होते हैं वे समाज के सदस्यों की विभिन्न आवश्यकताओं और हितों की पूर्ति करते हैं तथा अपनी माँगों की पूर्ति एवं हितों की रक्षा के लिए सरकार पर दबाव डालते रहते हैं। सीमित सरकार की परम्परा तथा राजनीतिक उत्तरदायित्व का सिद्धान्त इन दो मूलभूत तत्वों पर आधारित पाश्चात्य संविधानवाद ही आज विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में लोकप्रिय हैं।
संविधानवाद की सोवियत अथवा साम्यवादी अवधारणा
सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में साम्यवाद के पतन के बावजूद भी ऐतिहासिक दृष्टि से संविधानवाद की सोवियत अथवा साम्यवादी अवधारणा का अध्ययन करना आवश्यक बन जाता है। इस साम्यवादी अवधारणा के मूल तत्व लेनिन, स्टालिन, निकिता खुश्चेव और लियोनांद ब्रेझेनन के विचारों में देखे जा सकते हैं। ये साम्यवादी विचारधारा के मुख्य प्रणेता थे।
सोवियत संघ के जन्म के साथ ही नवीन समाजवादी विचारधारा का जन्म हुआ। सोवियत विचारधारा के अनुसार समाजवाद की दशा में देश ने जो प्रगति की है, उसका प्रतिबिम्ब ही संविधान है तथा इस प्रगति की यात्रा के दौरान जो उपलब्धियाँ हुई हैं, संविधान उसकी ही झलक है। संविधानवाद के सोवियत दृष्टिकोण से संविधान में पूर्वकालीन तथा वर्तमान विवरण के साथ ही भविष्य की योजना की ओर भी संकेत मिलता है। संविधानवाद स्थिरता का नहीं, गतिशीलता का द्योतक होता है। साम्यवादियों का विचार है कि संविधान को व्यावहारिकता तभी प्राप्त होगी जब | आर्थिक शक्ति पर नियन्त्रण स्थापित हो जायेगा। सोवियत संविधानवाद निम्नलिखित साम्यवादी धारणाओं से सम्बन्धित हैं
(i) साम्यवादियों को पश्चिमी जगत् की अर्थव्यवस्था से घृणा है, क्योंकि इसमें अर्थव्यवस्था केवल कुछ धनिक लोगों के हाथ में रहती है और इससे वर्ग संघर्ष का जन्म होता है। इसलिए साम्यवादी अर्थव्यवस्था पर सम्पूर्ण समाज का नियन्त्रण चाहते हैं।
(ii) साम्यवादियों का विचार है कि पाश्चात्य देशों में समस्त आर्थिक और राजनीतिक शक्ति पूँजीपति वर्ग के हाथ में रहती है। राजनीतिक शक्ति की अपेक्षा आर्थिक शक्ति का विशेष महत्व है।
विकासशील देशों में संविधानवाद
विकासशील देशों में संविधानवाद की कोई विशिष्ट पहचान बताना कठिन है क्योंकि ये देश और इनके संविधान प्रक्रिया के गर्भ में हैं। भारत जैसा ‘विकासशील देश अपवाद के रूप में हैं। जिसका लिखित संविधान विश्व के किसी भी अग्रिम संविधान से कम नहीं है, जिसकी राजनीतिक व्यवस्था में व्यवहार में संविधानवाद सुप्रतिष्ठित हो चुका है और स्वतन्त्रता के समय से आज तक निरन्तर संविधानात्मक सरकार कार्यरत है। इस प्रकार के अपवादों को छोड़कर अन्य विकासशील देशों में राजनीतिक प्रक्रियाएँ अभी भी संक्रमण की अवस्था में हैं जिससे संविधानवाद के आधार सुनिश्चित नहीं हो पाए हैं। विकासशील राजनीतिक व्यवस्थाओं की अपनी विशिष्ट समस्याएँ हैं। जिनसे उनमें संविधानवाद की अवधारणा पाश्चात्य एंव साम्यवादी अवधारणाओं से भिन्न है। विकासशील देशों के संविधानवाद और विकसित एवं प्रगतिशील देशों के संविधानवाद की भिन्नता के लिए उत्तरदायी कुछ प्रमुख आधार ये हैं-
1. पहले से ही विकसित देशों के संविधान बन चुके हैं, जबकि विकासशील देशों के संविधान अभी भी विकास की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं।
2. त्रिकासशील देशों की समस्याएँ विकसित देशों की समस्याओं से पृथक ढंग की हैं। विकासशील देशों की अनेक कठिनाइयों और विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ रहा है, अतः उनके संविधानवाद की स्पष्ट रूपरेखा अभी नहीं उभर पाई हैं।
3. विकासशील देशों की आर्थिक स्थिति निम्न अथवा कमजोर है। संविधानवाद के सिद्धान्त को प्रभावित करने वाली यह एक मुख्य बात है। इन देशों का संविधान निश्चय ही इस प्रकार का होना चाहिए कि वह आर्थिक समस्याओं और चुनौतियों का सामना कर सके। विकास की प्रक्रिया से गुजर रहे देशों के संविधानवाद के सामने यह महत्वपूर्ण चुनौती है। विकसित देशों के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं है।
4. विकासशील देशों में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता इनके संविधानवाद के मार्ग में बड़ी बाधा जबकि अमेरिका, ब्रिटेन आदि विकसित देशों में किसी प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त नहीं है।
5. विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में राष्ट्रीय एकीकरण की अधिक आवश्यकता हैं। इन देशों की विभिन्न भाषाओं, धर्मों, सम्प्रदायों और विचारधाराओं में जब तक समन्वय नहीं लाया जाएगा, तब तक उचित एवं प्रौढ़ संविधानवाद स्थापित होना कठिन है।
6. नवोदित राजनीतिक समाज प्रायः ‘बहुल समाज’ है जहाँ अनेक धर्म, संस्कृतियाँ और राष्ट्रीयता पायी जाती हैं। इनके कारण नवोदित राजनीतिक व्यवस्था पर परस्पर विरोधी दबाव पड़ते रहते हैं जिससे समाज में तनाव की परिस्थितियाँ बनी रहती हैं और फलस्वरूप सरकारों पर आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था का बोझ इतना अधिक बढ़ जाता है कि सरकारें प्रायः इसी समस्या में उलझी रह जाती हैं और संविधानवाद के मूल तत्वों को स्थायित्व नहीं मिल पाता अथवा सविधानवाद की प्रस्तावना का कोई मूल पृष्ठ नहीं रहता। नवोदित राजनीतिक समाजों पर बाह्य आक्रमण के बख़त भी कम नहीं रहते। इन विभिन्न कारणों से उनमें संविधानवाद की संस्थात्मक व्यवस्थाएँ मजबूत नहीं बन पातीं।
7. नवोदित राजनीतिक समाजों में राजनीतिक सत्ता की वैधता की समस्या भी बनी रहती है। जब एक समाज के अधिकांश लोग यह महसूस करें कि शासन-प्रक्रियाएँ और व्यवस्थाएँ उचित हैं तो सरकार को व्यवहार में वैधता प्राप्त होती है। किन्तु अधिकांश विकासशील समाजों में शासनकर्ताओं को अपनी सत्ता की वैधता के प्रति आशंका ही बनी रहती है, फलस्वरूप या तो वे स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव ही नहीं कराते और यदि कराते हैं तो प्रतिकूल परिणामों को सहज स्वीकार नहीं करते। इससे सरकार की सत्ता क्षीण होती है, वह समाज के मूल्यों को क्रियान्वित करने का साधन नहीं बन पाती है और संविधानवाद को पनपने का अवसर नहीं मिलता है।
8. नवोदित राजनीतिक समाजों में राजनीतिक संरचना विकल्पों के चुनाव की समस्या बहुत गम्भीर है। राजनीतिक विकास के संस्थात्मक मार्ग सुनिश्चित न होने के कारण वहाँ संविधानवाद की स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाती हैं।
9. नवोदित राजनीतिक समाजों में आधुनिकीकरण की समस्या भी एक विकट समस्या है। प्राचीन और नवीन मूल्यों के संघर्ष, अनिश्चितता और भ्रम व्याप्त हैं जो कि संविधानवाद के मार्ग में एक बड़ी बाधा है। वार्ड एवं मैक्रिडिस ने लिखा है कि “परम्परागतता वाले लोग और आधुनिकीकरण करने वाले अभिजन तथा वैचारिक आन्दोलन परस्पर एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं जो किसी भी प्रकार के नये मतैक्य पर पहुँचने में असमर्थ हैं।”
10. नवोदित राजनीतिक समाज अधिकतर संघर्षरत समाज हैं जिनमें सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय और सामंजस्य की समस्या बनी रहती है। लगभग सभी समूह एक-दूसरे के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं। ऐसी अवस्था में संविधानवाद के मूल आधार जम नहीं पाते, स्पष्ट नहीं हो पाते।
स्पष्ट है कि नवोदित विकासशील समाजों को अपनी विशिष्ट समस्याएँ और आवश्यकताएँ संविधानवाद की अवधारणा को अस्पष्टता और अनिश्चितता की अवस्था में ला पटकती है और सुदृढ़ संविधानवादी आधार स्थापित नहीं होने देतीं पर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि विकासशील देशों में संविधानवाद का सर्वथा अभाव है। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में संविधानवाद सुप्रतिष्ठित हो चुका है और इस क्षेत्र में हमारा नवोदित राष्ट्र किसी भी अग्रणी लोकतान्त्रिक राष्ट्र से कम नहीं है। सामान्यतः विकासशील देशों में संविधानवाद के कुछ पहलू अथवा लक्षण स्पष्ट होने लगे हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-
1. नवोदित विकासशील राजनीतिक समाजों में संविधानवाद मिश्रित प्रकृति का है। कुछ देश पाश्चात्य व सोवियत विचारधाराओं को मिलाने का प्रयत्न कर रहे हैं। वे स्वतन्त्रता, समानता एवं समाजवाद को योजनाबद्ध ढंग से लाने के लिए प्रयत्नशील हैं। भारत में मिश्रित संविधानवाद बङे आदर्श रूप में विकसित हुआ है। यहाँ मौलिक अधिकारों की व्यवस्था और साथ ही उन पर उचित प्रतिबन्धों की व्यवस्था इसका प्रतीक है।
2. अनेक विकासशील देश अनुभव करते हैं कि पाश्चात्य संविधानवाद उनके अनुरूप नहीं है। इस बारे में पाश्चात्य लोगों का कहना है कि ये विकासशील देश स्वतंत्रता एवं समानता के विचार को नहीं समझते और इसी कारण पाश्चात्य संविधानवाद को नहीं अपना रहे हैं। फिर भी पाश्चात्य नेता यह स्वीकार करते हैं कि विकासशील देशों के सामने कुछ ऐसी समस्याएँ हैं जिनका कोई हल पाश्चात्य संविधानवाद के पास नहीं है, अतः उन्हें अपना संविधानवाद स्वयं बनाना चाहिए।
3. विकासशील राजनीतिक समाजों में कुल मिलाकर, संविधानवाद निर्माण और प्रवाह के दौर में है। साथ ही अनेक राजनीतिक व्यवस्थाओं में वह अब भी दिशा रहित स्थिति में है। कभी उदार लोकतान्त्रिक आदर्शों की ओर झुकाव होता है, तो कभी साम्यवादी विचारों में निष्ठा बढ़ने लगती है। कुछ राजनीतिक व्यवस्थाओं में नवीन आदर्शों की खोज चल रही है।
जैसा कि रीगिन्स ने लिखा है “राज्य नए हैं और राजनीतिक खेल के नियम प्रवाह में हैं, में अतः संविधानवाद अभी तक सुस्थिर नहीं हो सका है। “
स्पष्ट है कि विकासशील और विकसित दोनों देशों के संविधानवाद की पृष्ठभूमि में उनकी अपनी-अपनी समस्याएँ काम कर रही हैं किन्तु यह अवश्य सत्य है कि दोनों ही संविधान की मूल्य अभिभूत व्याख्या (Value Ridden Interpretation) में विश्वास रखते हैं।
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