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सामाजिक अनुसंधान की तुलनात्मक पद्धति का समीक्षात्मक वर्णन
तुलनात्मक पद्धति में तुलना के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। अनुसंधान की यह एक प्रभावकारी पद्धति है। वैज्ञानिक अध्ययनों में तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग बहुत पुराना नहीं है किन्तु सामाजिक जीवन में (लोक जीवन में) इसका प्रयोग बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है। किसी भी विषय में तर-तम भाव का विचार ही उसका तुलनात्मक पक्ष है। ‘सुन्दर’ और ‘असुन्दर’ का भाव भी तुलनात्मक है। फिर ‘सुन्दर’ में भी तुलनात्मक भाव तब उपस्थित होता है जब उससे अधिक सुन्दर वस्तु सामने आती है। उसे हम ‘सुन्दरतर’ कहते हैं और जो सबसे अधिक सुन्दर होता है उसे ‘सुन्दरतम’ कहते हैं। इसी प्रकार धन-वैभव के सम्बन्ध में, विद्या – बुद्धि के सम्बन्ध में भी तुलना करना सामाजिक जीवन में सामान्य बात होती है। इस प्रकार तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग समाज में मोटे तौर पर जाने-अनजाने होता ही रहता है।
वैज्ञानिक तुलना- विज्ञान के क्षेत्र में जब इस तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग किया जाता है तब एक तर्क संगत ढंग से तथ्यों को एकत्र कर उनका तुलनात्मक अध्ययन किसी उद्देश्य विशेष को लेकर किया जाता है। जीन्स वर्ग के अनुसार- ‘तुलनात्मक पद्धति केवल तुलनाओं को प्रस्तुत करने की विधि नहीं है अपितु तुलनाओं के द्वारा व्याख्या करने की विधि है।’ कार्ल पियरसन की यह मान्यता है कि ‘जो भी व्यक्ति किसी भी प्रकार के तथ्यों का वर्गीकरण करता, उनके अन्तःसम्बन्धों का समझता या निर्धारित करता है, उनको क्रमबद्ध करता तथा उनके परिणामों को खोज निकालता है वह वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग करता है।’
इस प्रकार तुलनात्मक पद्धति वैज्ञानिक अध्ययन की वह विधि है जिसमें किसी निर्धारित विषय से सम्बन्धित तुलनात्मक आंकड़ें संकलित किये जाते हैं, उनका विश्लेषण किया जाता है। और उसके परिणामों से निश्चित निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
तुलनात्मक पद्धति के उपयोग में सावधानी
किसी वैज्ञानिक अध्ययन में तुलनात्मक पद्धति का उपयोग करने पर निम्नलिखित सावधानी आवश्यक होती है-
(1) अध्ययन वस्तु का प्रत्यक्ष निरीक्षण- तुलनात्मक पद्धति का अनुसरण करने पर अध्ययन वस्तु का प्रत्यक्ष निरीक्षण करना आवश्यक होता है जिससे कि विश्वसनीय सूचनायें एकत्र हो सकें और उन पर निर्भर रहा जा सके। यह सीधे तौर पर निरीक्षण द्वारा ही सम्भव हो सकता है। ऐसा करते समय यह भी स्मरण रखना चाहिये कि अनावश्यक तथ्य न एकत्र किए जाएं बल्कि वे ही तथ्य एकत्र किये जाँय जिनका तुलनात्मक अध्ययन में सीधा एवं स्पष्ट उपयोग हो।
(2) उपस्थित एवं अनुपस्थित कारको का आकलन- जिस विषय का तुलनात्मक अध्ययन करना हो उसके उपस्थित कारकों और अनुपस्थिति कारकों को नोट कर लेना चाहिये। यह नहीं होना चाहिए कि केवल उपस्थिति कारकों पर तो ध्यान दिया जाय, अनुपस्थिति कारकों की ओर ध्यान ही न दिया जाय। अनुपस्थित कारक भी तुलनात्मक अध्ययन के लिए उतने ही जरूरी है जितने कि उपस्थित कारक। इन दोनों के प्रकार के कारकों के सम्यक निरीक्षण से दो या दो से अधिक विषयों का तुलनात्मक अध्ययन सरलता से किया जा सकता है और इस प्रकार के अध्ययन से सही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इसके लिए आवश्यक यह होगा कि उनकी तुलना सही व निश्चित तौर पर हो। सही व निश्चित तुलना इस लिए कठिन होती है कि एक विषय के उपस्थित कारकों को तुलनीय विषय के उपस्थिति कारकों से मिलान किया जाता और इसी प्रकार अनुपस्थिति कारकों का भी मिलान किया जाता है। इस प्रकार सम्बन्धित पत्रों की तुलना की जाती है, जो अत्यन्त कठिन कार्य है।
(3) निष्कर्ष निकालना – तुलनात्मक अध्ययन करके उससे कुछ न कुछ निष्कर्ष निकाले जाते हैं। तुलनात्मक अध्ययन का यह सबसे कठिन अंश होता है। सारे तुलनात्मक अध्ययन का परिणाम यह निष्कर्ष ही होता है अतः निष्कर्ष निकालने में बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। गलत तुलना होने पर तो गलत निष्कर्ष निकलने की पूरी सम्भावना होती है किन्तु सही तुलना करने के बाद भी गलत निष्कर्ष निकलने की आशंका बनी रहती है। अतः बिना किसी अभिनति के, बिना किसी पक्ष-पात के, बिना किसी पूर्व धारणा के सही निष्कर्ष निकालने चाहिए।
(4) अध्ययन का प्रतिवेदन प्रस्तुत करना- तुलनात्मक पद्धति में अनेक निष्कर्ष संख्यात्मक रूप में निकलते हैं। यदि उन्हें उसी रूप में प्रस्तुत कर दिया जाय तो सारी बात स्पष्ट नहीं हो पाती। अतः यह आवश्यक होता है कि निष्कर्षो को भलीभांति स्पष्ट करने के लिए तुलनात्मक अध्ययन की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जाय इससे पाठक तुलनात्मक अध्ययन की दिशा इससे निकाले गये निष्कर्ष और उनके परिणाम के प्रभाव को समझ सकेंगे। इस प्रकार सही एवं निश्चित तुलनात्मक अध्ययन के लिए अनुसंधानकर्ता को उपर्युक्त प्रकार की सावधानी बरतनी चाहिए।
अनुसंधानकर्ता को कठिनाइयाँ
वैसे तो तुलनात्मक पद्धति का अध्ययन बहुत सरल प्रतीत होता है किन्तु वास्तव में यह बहुत कठिन पद्धति है। इस पद्धति से निकाले गये आँकड़ों या विवरणों से सहसा कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। एक ही वर्ग, समुदाय या परस्थितियों का अध्ययन करने पर उसके निष्कर्ष अलग-अलग निकल आते हैं। क्योंकि उनके पीछे अन्य अनेक कारक कार्य करते हैं। फिर जहाँ यह स्थिति हो कि अलग-अलग देश-काल एवं परिस्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन करा हो वहाँ सुनिश्चित निष्कर्ष निकालना कितना कठिन है यह सहज ही समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए (मैक्सिको अमेरिका) के एक गाँव और भारत के एक गाँव के कृषकों का समान पस्थितियों में अध्ययन किया गया किन्तु फिर भी अनेक ऐसे कारक सामने आए जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव डाल रहे थे। उदाहरण के लिए भारत के गाँव में जाति प्रथा के आधार पर वर्गीकरण कृषकों को प्रभावित करता था जबकि मैक्सिको में इस प्रकार का कोई कारक प्रभावी नहीं था।
यद्यपि तुलनात्मक अध्ययन में समानताओं और असमानताओं दोनों की तुलना की जाती है किन्तु समग्र रूप में सभी तथ्यों की तुलना कर पाना सम्भव नहीं है। तुलनात्मक पद्धति में मोटे तौर पर अनुसंधानकर्ता को निम्नलिखित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
1. तुलनात्मक पद्धति में प्राक्कल्पना का अभाव – तुलनात्मक पद्धति में प्राककल्पना (Hypothesis) का निर्माण नहीं किया जाता जबकि प्रत्येक वैज्ञानिक अध्ययन में पहले प्राक्कल्पना का निर्माण किया जाता है जिससे अनुसंधान कार्य को एक दिशा में मोड़ा जाता है और सुनिश्चित निष्कर्ष आसानी से निकल आते है। प्राक्कल्पना के अभाव में तुलनात्मक पद्धति का अध्ययन उन सभी लाभों से वंचित रह जाता है।
2. अध्ययन की इकाइयों में बाहरी एवं भीतरी अन्तर- तुलनात्मक पद्धति में अध्ययन की इकाइयों के बाहरी एवं भीतरी अंतर का बड़ा प्रभाव पड़ता है और सही निष्कर्ष निकालना कठिन हो जाता है। मैलिनोवस्की ने इसे स्पष्ट करते हुये कहा कि यद्यपि बाहरी तौर पर दो समाज की दो संस्थायें एक समान प्रतीत होती है किन्तु उनमें आन्तरिक अन्तर बहुत होता है और ऐसी स्थिति में निश्चित एवं यथार्थ निष्कर्ष निकालना कठिन होता है।
3. तुलनीय इकाइयों को पारिभाषिक करना सम्भव नहीं- तुलनात्मक पद्धति में जिन इकाइयों की तुलना की जाती है उनको पारिभाषित करना कठिन होता है इसलिए उनसे किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने में कठिनाई होती है। तुलनात्मक पद्धति में यह प्रयास किया जाता है कि जिन इकाइयों का अध्ययन किया जाता है वे सरल, सीधी-सादी एक समान तथा छोटी से छोटी हों । जितनी ही छोटी इकाई होगी उतना ही अधिक सुनिश्चित निष्कर्ष निकलेगा। बड़ी इकाइयों में तो बहुत से आन्तरिक एवं बाह्य कारक अपना प्रभाव डालेंगे और शुद्ध तथा सुनिश्चित निकालने में कठिनाई उपस्थिति करेंगे। तुलनीय इकाई की जितनी ही सुनिश्चित सीमायें होंगी उतना ही सही निष्कर्ष निकलेगा।
4. सही व्याख्या में कठिनाई तुलनात्मक पद्धति में एक छोटी सी इकाई का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है और निष्कर्ष निकाले जाते हैं। अब इसी प्रकार निकाले गये निष्कर्षों को पूरे समाज या वर्ग समूह पर या व्यवस्था पर लागू मान लेना ठीक नहीं होगा। ‘आत्महत्या’ या अपराधी मनोवृत्ति के बारे में इसी प्रकार छोटे-छोटे अध्ययनों द्वारा निष्कर्ष निकाले गये किन्तु जब उन्हें पूरे वर्ग या समाज पर लागू करने का प्रयास किया गया तो उन निष्कर्षो को सन्दिग्ध पाया गया। इस प्रकार तुलनात्मक पद्धति द्वारा सही एवं वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालना कठिन हो जाता है।
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