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सूरदास का प्रेम-वर्णन
‘गोपी या गोपियाँ” किसको कहा जाता था ? यह एक व्यक्तिगत या सामूहिक नाम है, यह प्रश्न सर्वप्रथम विचारणीय है। डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा ने इस विषय में विचार व्यक्त करते हुए है.”यों तो जाति और पेशे के विचार से ब्रज की समस्त नारियाँ गोपियाँ हैं, परन्तु इस शब्द लिखा का प्रयोग अधिकतर उन किशोर कुमारियों और नवोढ़ाओं के लिए होता है, जिनका हृदय काम द्वारा उद्वेलित होता है और जो कृष्ण के प्रति प्रेमिका का भाव रखती हैं। अवस्था, परिस्थिति और भाव-प्रवणता की दृष्टि से वे समान हैं और कवि ने गोपियों को सामूहिक रूप में चित्रित किया है, कुछ नामोल्लेख भी किए हैं।”
इस विचार से यह ज्ञात होता है कि गोपियों का चरित्र एक सामूहिक चरित्र है, व्यक्तिगत नहीं। वास्तविकता यह है कि गोपियाँ एक वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसके विपरीत चरित्र चित्रण केवल एक व्यक्ति तक ही सीमित होता है, लेकिन यह सारी की सारी गोपी नामधारी स्त्रियाँ कला की दृष्टि से, क्रीड़ा की दृष्टि से और सौन्दर्य की दृष्टि से परस्पर समान हैं। ये सभी गोपियाँ काम-पीड़िता हैं और विरह-व्यथिता हैं, इसलिए इनका चरित्र चित्रण भी किया जा सकता है।
डॉ० मुन्शीराम शर्मा का अभिमत है कि गोपियाँ आचार्यों का ही अवतार हैं- “सूरसागर प्रधान रूप से हरिलीला का काव्य है। हरिलीला गोकुल की गोपियों की लीला है। राधा और कृष्ण भी गोपी गोप हैं। राधा वृषभानु की पुत्री हैं और कृष्ण को यशोदा तथा नन्द अपना सुपुत्र ही समझते हैं। कृष्ण ने स्वयं अपने मुख से कहा है-
बहुरि अधर्मी होहिं नृप, जग अधर्म बढ़ि जाइ ।
तब विधि, पृथ्वी सुर सकल, विनय करै मोहि आइ ।।
मथुरा मंडल भरत खंड, निज धाम हमारौ ।
धरौ तहाँ मैं गोप-वेष, सो पंथ निहारौ।।
x x x
भोर भयौ जब पृथ्वी पर, तब हरि लियौ अवतार ।
वेद रिचा है गोपिका, हरि संग कियो विहार ।।
ब्रज में श्रीकृष्ण गोप रूप में ही अवतरित हुए हैं। कृष्ण यदि ईश्वर हैं तो गोपियों को क्या माना जाए, यह एक प्रश्न है ? गोपियाँ श्रीकृष्ण की शक्ति हैं। शक्ति जिससे आश्रय पाती हैं, उससे कभी अलग नहीं होतीं। इसलिए गोपियाँ और कृष्ण अनन्य हैं। उनमें एक अंगी है। दूसरा उसका अवयव है, एक गुणी है तो दूसरा गुण है। इसीलिए सूर ने लिखा है-
गोपी ग्वाल कान्ह दुई नाहीं ये कहुं नेक न न्यारे ।
तथा
एके देह बिहार करि राखे ग्वाल मुरारि ।।
अभिप्राय यह है कि गोप-गोपी और श्रीकृष्ण ये दो पृथक-पृथक नहीं हैं, इनमें परस्पर कोई अन्तर नहीं है। वे अद्वैत, अविछिन्न और अविभाज्य हैं। यदि इन्हें आध्यात्मिक दृष्टि से निहार कर देखा जाए तो कृष्ण आत्मा हैं और गोपियाँ उस आत्मत्व की वृत्तियाँ हैं। यही कारण है कि, सूर ने इन गोपियों को स्वामिनी के रूप में देखा है-
सूर की स्वामिनी नारि ब्रजभामिनी ।।
सूर-साहित्य का अवलोकन करने पर ऐसा लगता है कि आरम्भ में बाल-कृष्ण के सौन्दर्य पर वे मोहित होती हैं और जैसे ही वह यशोदा नन्दन को आँगन में खेलते हुए देखती हैं, वैसे ही अपनी सुधि-बुधि खो बैठती हैं-
जब तैं आँगन खेलत देख्यो मैं जसुदा कौ पूत री ।
तब तैं गृह सौं नातौ टूट्यौ, जैसे काचौं सूत री ।
अति बिसाल बारिज-दल लोचन, राजति-काजल रखे री ।
इच्छा सौं मकरन्द लेत मनु अलि गोलक के वेष री ।।
थोड़ा और सयाने होने पर कृष्ण नटखट, विनोदी और वाक्पटु हो जाते हैं, तब गोपियों को कृष्ण रिझाने लगते हैं, अर्थात बड़े होने पर वे ‘माखन चोर’ हो जाते हैं। माखन चोरी के माध्यम से श्रीकृष्ण जो क्रीड़ाएँ करते हैं और जिस चतुराई से पेश आते हैं उसे गोपियाँ अपेक्षाकृत अधिक पसन्द करती हैं। गोपियों के हृदय में स्थित स्नेह-प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। उनके हृदय में कामना या काम (इच्छा) जागती है। इस कामना की जागृति के कारण उनकी यह अभिलाषा होती है कि कृष्ण उनके घर में आकर माखन चुराते तो अच्छा रहता-
ब्रज घर-घर प्रगटी यह बात।
दधि माखन चोरी करि लै हरि, ग्वाल सखा सँग खात ।।
ब्रज बनिता यह सुनि मन हरिषित, सदन हमारे आवैं ।
माखन खात अचानक पावैं, भुज धरि उरहि छुवावैं ।।
मनही मन अभिलाष करति सब हृदय धरति यह ध्यान ।
यही नहीं वे श्रीकृष्ण को अपने आलिंगनपाश में आबद्ध करने को उत्सुक हैं-
चली ब्रज घर-घरनि यह बात।
नंदसुत सँग सखा लीन्हें, चोरि माखन खात।।
X X X
कोउ कहति मैं देख पाऊ, भरि धरौं अँकवारि ।
कोई कहति, मैं बाँधि राखों, को सकै निरबारि।।
ऐसी दशा में गोपियों का प्रेम श्रीकृष्ण के प्रति अत्यधिक सुदृढ़, तीव्रता और गम्भीर स्थिति में पहुँच जाता है। गोपियाँ सर्वश्रेष्ठ प्रेमिकायें हैं, जो अपने प्रिय श्रीकृष्ण के लिए अपने पिता, माता, भाई, पुत्र और पति सबकी प्रगाढ़ मोह-माया को तोड़ देती हैं। प्रेम ही उनके जीवन का महामन्त्र है। निश्चय ही वे ऐसी प्रेम-रूपा हैं जो समस्त लोक-लाज और मर्यादा का बन्धन तोड़ देती हैं। गोपियों के नेत्र श्रीकृष्ण-दर्शन के लिए लालायित हैं। उनके श्रवण कृष्ण के मधुर शब्दों को सुनने के लिए आतुर और उनकी जिह्वायें श्याम श्याम की रट लगाये रहती हैं-
पलक ओट नहिं होत कन्हाई ।
चर गुरुजन बहुते विधि त्रासत, लाज करावत लाज न आई।
नैन जहाँ दरसनि हरि अटकै, स्त्रवन थके सुनि वचन सुहाई।
रसना और नहीं कछु भाषति, स्याम-स्याम रट इहै लगाई ।।
चित चंचल संगहि संग डोलत लोक-लजा मरजाद मिटाई।
मन हरि लियौ सूर- प्रभु तबहीं, तन बपुरे को कहा बसाई ।।
सारी गोपियाँ सौन्दर्य और सुषमा की अवतार हैं। ये गोपियाँ बाह्य अलंकरण से अलंकृत होकर और भी मोहक और आकर्षक बन जाती हैं। सूर ने अपने पदों में उनकी सौन्दर्य और सुषमा का चित्रण किया है। वह सौन्दर्य वर्णन का प्रतिमान है-
बनी-ब्रज-नारि सोभा भारि ।
पगनि जेहरि लाल लहँगा, अंग पंच-रंग सारि ।।
किंकिनी कटि, धनित कंकन, कर चुरी झनकार ।
हृदय चौकी चमकि बैठी, सुभग मोतिन हार।
पनघट-लीला, दान-लीला, बसन्त, फाग, रासलीला के अवसर पर गोपियाँ अपनी प्रगल्भता, चंचलता और मुखरता को लेकर सामने आती हैं। कृष्ण के प्रति वे इतनी अनुरक्त हैं कि ‘आरज-पथ’ और ‘गृह व्यवहार’ को त्यागने में देर नहीं लगाती हैं-
जबहि वन मुरली स्त्रवन परी ।
चकित भँई गोप कन्या सब, काम-धाम बिसरी ।।
कुल मर्जाद बेद की आज्ञा, नैकहुँ नहीं डरी ।
स्याम-सिन्धु, सरिता- ललना-गन, जल की डरनि डरीं ।।
अंग- मरदन करिवै कौं लागी, उबटन तेल धरीं ।
जो जिहि भाँति चली सौं तैसेहि, निसि बन कौ जु खरी ।।
सुत-पति नेह, भवन-जन-संका, लज्जा नाहिं करी ।
सूरदास-प्रभु मन हरि लीन्हौं, नागर नवल हरी ।।
एक वियोग ही प्रेम का सच्चा निकष है। इस निकष पर भी गोपियाँ खरी उतरती हैं। कृष्ण जब ब्रज में थे तो उनसे संयुक्त होकर समस्त सुखों को लूटा पूरी तरह से गोपियों ने और उन्हीं गोपियों पर जब कृष्ण मथुरा चले गये तो वियोग का पर्वत फाट पड़ा और तब कृष्ण संयोग सुख का लाभ लूटने वाली गोपियों को वियोग-व्याधि के रूप में संयोग सुख का पूरमपूर मूल्य भी चुकाना पड़ा। यदि इनके संयोग सुख में इतनी सघनता और स्फीतता न होती तो इनका वियोग इतना सघन और स्फीत न होता। मगर वियोग के इस निकष पर ये गोपियाँ परम खरी उतरीं। उनकी विरह-वेदना भ्रमरगीत के बहाने इस कदर और इतनी उमड़ी है कि उसका कोई जवाब नहीं है। उदाहरण के लिए सूर का यह प्रसिद्ध पद देखा जा सकता है-
प्रीति करि दीन्हीं गरे छुरी।
जैसे बधिक चुगाइ कपट कन, पाछै करत बुरी।।
X X X
प्रीति पतंग करी पावक सौ, आपै प्रान दह्यौ ।।
निसि दिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस रितु हम पर, जब तैं स्याम सिधारे।।
गोपियों की प्रेम विषयक अनन्यता के विषय में डॉ० ब्रजेश्वर वर्मा का यह अभिमत सर्वथा युक्तिसंगत ही है-
“गोपियाँ तो अनन्य प्रेम की स्वयं ही ज्वलंत उदाहरण हैं। उनके अनन्य प्रेम की विशेषता यह है कि वे कृष्ण के अलौकिक व्यक्तित्व के कारण उनसे प्रेम नहीं करतीं, वरन् उनका प्रेम कृष्ण की रूप- माधुरी पर अवलम्बित है। यहीं नहीं, वे स्पष्ट रूप से कृष्ण के अलौकिक व्यक्तित्व की अवहेलना करती हैं। अनन्य भाव की चरम परिणति यही है, जिसमें प्रेमी किसी प्रलोभन के वश में प्रेम नहीं करता वरन् हृदय के सच्चे अनुराग की स्वाभाविक प्रवृत्ति से विवश होकर उसे प्रेम पात्र पर सर्वस्व निछावर करना पड़ता है।”
कृष्ण के गमन के पश्चात गोपियों का सारा जीवन वियोग भाराक्रान्त है। अन्त में, उन्हें कुरुक्षेत्र में, कृष्ण के दर्शन होते हैं। सूर ने गोपियों की पूरी संख्या १६ सहस्त्र मानी है, जिनमें से ललिता, चन्द्रावली, श्यामा और विशाखा आदि अनेकानेक गोपियों के नामों का उल्लेख सूरसागर में किया गया है-
मुरली ध्वनि करी वलवीर ।
गड़ सोलह सहस हरि पैं छाड़ि सुत पति नेह।।
एक पद में तो सूर ने गोपियों के अनेक नामों की गिनती करायी हैं-
स्यामा, , कामा, चतुरा, नवला, प्रमुदा, सुमुदा नारी।
सुषमा, शीला, अवधा, नन्दा, बून्दा, यमुना सारी ।
कमला, तारा, विमल, चन्द्रा, चन्द्रावलि सुकुमारी ।
अमला, अवला, कंजा, मुकुतारु, हीरा, नीला, प्यारी ।
सुमना, बहुला, चंपा, जुहिला, ज्ञाना, भाना, भाउ ।
प्रेमा, दामा, रूपा, हंसा, रँगा, हरषा, जाउ ।।
दुर्वा, रम्भा, कृस्ना, ध्याना, मैना, नैना, रूप ।
रत्ना, कुसुमा, मोहा, करुना, ललना, लोभानूप ।।
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