अनुक्रम (Contents)
सूरदास का वियोग वर्णन मार्मिक है
आचार्य शुक्ल के अनुसार- सूरदास के ‘सूरसागर’ का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है जिसमें वचनवक्रता अत्यन्त मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालम्भ काव्य कहीं नहीं मिलता। इसमें एक ओर प्रेमानुभूति की अत्यन्ता है तो दूसरी ओर उक्ति-वैचित्र्य द्वारा रसानुभूति कराने का प्रयत्न । वास्तविकता तो यह है कि सूर ने अपने भ्रमरगीत में सहृदयता, भावुकता, चतुरता वाग्विदग्धता का समावेश करके सरसतम बनाने का प्रयत्न किया है। वहाँ सूर ने अपनी वाणी को गोपियों की वाणी में मिलाकर विरह व्यथा का रूप देकर भक्ति और प्रेम की रक्षा के लिए उद्धव के ज्ञानयोग को ललकारा है। यहाँ उनकी वाग्विदग्धता का पृथक्-पृथक् विवेचन प्रस्तुत करेंगे ।
भ्रमरगीत में सहृदयता (भावुकता) या हृदयस्पर्शिता
सूर सहृदय और भावुक कवि हैं। संयोग शृंगार के अन्तर्गत उन्होंने अनेक भावमय एवं श्लाघ्य प्रसंगों की अवतरणा की है परन्तु भावुकता के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण उनके भ्रमरगीत प्रसंग के अन्तर्गत देखने को मिलते हैं। भ्रमरगीत में सर्वाधिक चित्रण गोपियों का है। गोपियाँ अत्यन्त भावुक और भोली हैं। इसी भावुकता के वशीभूत हो वे कृष्ण से प्रेम कर बैठीं और अब उनके विरह में दिन-रात आँसू बहाती हैं। उनकी भावुकता का सर्वाधिक पुष्ट प्रमाण हमें तब मिलता है, जब वे उद्धव के रथ को झाँई-माई की तरह से देखती हैं, यह सुनते ही कि कोई कृष्ण सरीखा आ रहा है, घर के सारे काम-काज छोड़कर दौड़ पड़ती हैं-
जो जैसे-तैसे उठि धाई, छाँड़ि सकल गृह काम ।
पुलक राम गदगद तेही छिन शोभित अंग अभिराम ॥
अपने प्रिय के दर्शनों की आशा-उल्लास, उछाह और आतुरी में घर-द्वार की सुधि-बुधि भूल जाती है और जिस हालत में थीं वैसे ही भाग उटती हैं, परन्तु उन्हें पता चला कि ये कृष्ण नहीं, कृष्ण-सखा हैं तो सारी आतुरी हिरन हो उमंग मूर्च्छा में परिवर्तित हो गयी-
जबहिं कह्यौ ये स्याम नहीं ।
परीं मुरछि धरनी बजबाला, जो जहँ रही सु तहीं।
परन्तु जैसे ही कुछ स्वस्थ हुई उनका हृदय पिघल गया । कृष्ण न आये, उनके सखा उद्भव प्रिय का संदेश लेकर आये । स्त्रियों के लिए प्रिय का संदेशवाहक प्रिय के समान ही होता है, इसलिए उनको-
निरखत ऊधौ कौं सुख पायौ ।
सुंदर सुलज सुबंस देखियत, यातैं स्याम पठायौ ।
भावुकतामय आवेग की स्थिति तो तब आती है जब गोपियाँ कृष्ण की पत्रिका को ही कृष्ण मानकर बार-बार हृदय से लगाती हैं। प्रबल भावोद्रेक में आँसुओं के निकलने से कृष्ण की वह पाती भीग जाती है, अक्षर मिट जाते हैं परन्तु गोपियाँ उसमें कृष्णालिंगन का सुख अनुभव करती हैं-
निरखत अंक स्याम सुंदर के बारहिं बार लगावति छाती ।
लोचन जल कागद मसि मिलिकै है गयी स्याम स्याम की पाती ॥
उद्धव के ज्ञानयोग को सुनकर भावुकता के आवेश में कभी वे गाली-गलौज पर उत्तर आती हैं। उद्धव को ‘धुर ही ते खोटौ खायौं है लिए फिरत सिर भारी’ कहकर बचपन का ही बदमाश बताती हैं तो कभी उन पर सदय होकर अपनी निर्ममता पर पश्चाताप करती हैं-‘विलगी मत मानो ऊधौ प्यारे । या विलगि मत मानो हमारी बात’ आदि कथनों में यही ध्वनित होता है। कभी उनका दैन्य भाव भी प्रबल रूप से उभर आता है-
(क) ऊधौ हम हैं तुम्हारी दासी ।
(ख) ऊधौ हम अंजान मति भोरी।
इस प्रकार विविध भावों का आवेगयुक्त प्रकटीकरण गोपियों के वचनों और क्रिया कलापों के द्वारा भ्रमरगीत में होता है-
संदेशौ देवकी सौं कहियौ ।
हौं तो धाइ तिहारे सुत की, कृपा करत ही रहियौ ॥
जदपि टेव तुम जानतिं उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै ।
प्रात होत मेरे लाल लड़ैतैं, माखन रोटी भावै ॥
तेल उबटनौ अरु तातौ जल, ताहि देखि भजि जाते ।
जोइ जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम क्रम करि कै न्हाते ॥
भ्रमरगीत में वाग्विदग्धता या वचनवक्रता
आचार्य शुक्ल के अनुसार, वचन की जो वक्रता भाव प्रेरित करती है वही आवश्यक होती है। सूरदास में जितनी सहृदयता और भावुकता है प्रायः उतनी ही चतुरता, वाग्विदग्धता भी है किसी बात के जाने कितने टेढ़े-मेढ़े ढंग उन्हें मालूम थे । सूर की गोपियाँ अत्यन्त भावुक, भोली और अनजान हैं। बात-बात में रो पड़ना उनका स्वभाव है फिर भी वे बड़ी ही वाक्पटु हैं। उन्होंने योग सिद्धान्त का उत्तर दार्शनिक विवेचना से न देकर व्यंग, उपहास, कटूक्ति और भावप्रेरित वक्रताओं से दिया है।
डॉ० मनमोहन गौतम ने भ्रमरगीत के वचन-चातुर्य को निम्न भागों में विभाजित किया है- (1) विनोद, (2) उपहास, (3) व्याज निंदा, (4) कटूक्ति, (5) उपालम्भ ।
(1) विनोद- गोपियों ने उद्धव के उपदेश का मखौल उड़ाया है। उनकी बातों पर उन्हीं को मूर्ख बनाया है। वे कृष्ण पर भी फब्ती कसती हैं और उद्धव को भी उल्लू गाँठती हैं-
ऊधौ ! जान्यौ ज्ञान तिहारौ ।
जाने कहाँ राजगति लीला अंत अहरि विचारौ ।
उद्धव के बोलते ही जाने पर वे उन्हें गड़बड़ाने के लिए कहती है-
उद्धव जाइ बहुरि सुनि आयौ कहा कह्यौ है नंद कुमार।
जब उद्धव किसी तरह बंद नहीं होते तो वे कहती हैं- लगता है, यहाँ कृष्ण ने तुम्हें नहीं तुम बीच में आकर टपक गये हो । कैसा मधुर विनोद है। जब वे उद्धव से पूछती हैं भेजा, कि आपको हमारी सौगन्ध, सच-सच बताना जब तुम्हें कृष्ण ने यहाँ भेजा था तब मुस्कराये तो ने नहीं थे, यदि हाँ तो तुम्हें उल्लू बनाने भेजा है। गोपियों द्वारा उद्धव से कहे गये कुछ विनोदात्मक वाक्य-
(क) आयौ घोष बड़ौ ब्यौपारी ।
(ख) आए जोग सिखावन पाँड़े ।
(2) उपहास- डॉ० मनमोहन गौतम का विचार है कि विनोद की अपेक्षा उपहास में विपक्षी को तुच्छ सिद्ध करने की भावना अधिक होती है। उनमें हास्य अधिक स्पष्ट एवं विकृत होता है। स्वयं निंदा करते हुए विपक्षी को निंदित ठहराना उसका लक्ष्य होता है। गोपियाँ उद्धव और कृष्ण का उपहास एक साथ इन शब्दों में उड़ाती हैं-
विलगि जनि मानो ऊधौ प्यारे ।
वह मथुरा काजर की कोठारी जोहि आवत ते कारे ।
तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे मधुप भँवारे ।
इस पर उद्धव कुछ नाराज हो गये तो चट से मक्खन लगाने लगीं-
मधुकर भली करी अब आए ।
सुनकर उद्धव की जान में जान आयी परन्तु गोपियों ने उनके आने का मखौल उड़ाया-
ये बातें कहि कहि या दुःख में ब्रज के लोग हँसाये ।
गोपियों के उपहास का सबसे बड़ा विषय कुब्जा का कूबड़ है। वे बार-बार उद्धव से यही प्रश्न करती हैं-
जेहि छिन करत कलोल संग रति गिरधर अपनी चाढ़ ।
काटत है परजंक ताहि छिन केधौं खोदत गाढ़ |
(3) व्याज निंदा- प्रशंसा के द्वारा निंदा का प्रयोग शिष्ट उपालम्भ में सर्वाधिक होता है। गोपियाँ अपने व्यंग वाणी को कुनैन शब्दों की चासानी में लपेटकर देती हैं-
मधुबन सब कृतज्ञ धरमीले ।
अति उदार परहित डालत है बोलत बचन सुसीले ॥
इसी प्रकार उद्धव और अक्रूर पर व्यंग व्याज निंदा के माध्यम से गोपियों ने निम्नलिखित पंक्तियों में किया है-
सखी री मथुरा में है हंस ।
(4) कटूक्ति- कटूक्ति के तीर अत्यन्त विषैले और पैने होते हैं जो चुभते ही जलन उत्पन्न करते हैं । गोपियाँ कृष्ण के संबंध में कटूक्ति का प्रयोग बेधड़क करती हैं- कुछ उदाहरण देखिये-
(क) जाने कहाँ राजगति लीला अंत अहीर विचारौ ।
(ख) दिना चार ते पहरन सीखे पट पीताम्बर तनियाँ ।
सूरदास अ तजी कामरी अब हरि भये चिकनियाँ ।
(ग) सुनियत मुरली देखि लजात ।
कुब्जा की कूबड़ और वह स्वयं गोपियों की कटूक्तियों के सबसे बड़े लक्ष्य रहे हैं। कुब्जा की सात पुश्तों को बखानते हुए उद्धव से कहती हैं-
कुटिल कुचील जनम की टेढ़ी, सुंदर कर घर आनी ।
X X X
दाख छुहारा छाँड़ि अमृत-फल बिषकीरा विष खात ॥
(5) उपालम्भ- प्रियपात्र की निष्ठुरता के प्रति मनः स्थिति क्षोभ उद्घाटन के लिए उसे उपालम्भ दिया जाता है क्योंकि वियोग की स्थिति में प्रेमी अपने सहचर या सहचरी से मिलने के लिए व्याकुल हो जाता है और आत्मदशा निवेदन के माध्यम से संदेश सम्प्रेषण के हैं बहाने वह शिकायत करता है। गोपियों के वाग्वैदग्ध्य का एक रूप उपालम्भ के अन्तर्गत भी देखने को मिलता है। वे कृष्ण के अन्यायों से खीझकर और आत्मदशा निवेदन में मार्मिक उपालम्भ देती हैं-
(क) प्रीति करि दीन्ही गरेँ छुरी । .
(ख) तिहारी प्रीति किधौं तरवारि ।
(ग) मधुकर काके मीत भए ।
वाग्वैदग्ध्य के लिए सूर ने दृष्टान्त पद्धत का भी प्रयोग किया है। प्रतिपक्षी के विरुद्ध चुन चुनकर ऐसे दृष्टान्त उपस्थित करना जो लोकानुभव पर आधारित है-
गोकुल सबै गोपाल उपासी ।
अपनी सीतलताहि न छाँड़त यद्यपि है ससि राहु गरासी ॥
ऊधौ तुम हो अति बड़भागी ।
X X X
पुनइनि पात रहत जल भीतर ता रस देह न दागी ॥
कुब्जा प्रसंग सूर की वार्गवदग्धता में कुब्जा प्रसंग अत्यधिक सहायक सिद्ध हुआ है। कहाँ कुब्जा का लोकोत्तर रूप और कहाँ कुबड़ी दासी । अतः सूर ने इस प्रसंग को लेकर कई कथन पद्धतियों का अविष्कार किया है। दासी और शठ कृष्ण को किसी भी प्रकार नीचा देखना गोपियों के लिए हर्ष का विषय हैं। प्रेममयी गोपियों के साथ विश्वासघात करने जैसे कुकर्म के परिणामस्वरूप कृष्ण को कुब्जा मिली, अच्छा ही हुआ। जिस कृष्ण ने सबका हृदय चुरा लिया था? उसी चालाक का हृदय कुब्जा ने चुरा लिया? कितना मूर्ख बनाया कृष्ण को।
यह सुनकर गोपियों को कुछ-कुछ सांत्वना मिलती है
(क) जीवन मुख देखे को नीकौ ।
(ख) बरु वै कब्जा भलो कियो ।
गोपियाँ ‘कब्जा’ से वस्तुत प्रसन्न नहीं थीं परन्तु ‘शठ’ कृष्ण का ‘पतन’ देखकर उन्हें प्रसन्नता हुई है। प्रतिपक्षियों में मुख्य प्रतिपक्षी को नीचा दिखाने में यदि किसी अन्य प्रतिपक्षी की प्रशंसा भी करनी पड़े तो कोई हानि नहीं। गोपियाँ तरह-तरह की बातें गढ़ लेने में बहुत कुशल हैं। गोपियों की यह ‘झूठ’ ‘उक्ति-वैचित्र्य को और भी बढ़ा देती है। वे कहती हैं कि कृष्ण से
हमारा परिचय नहीं है तब वे ‘गोपीनाथ’ क्यों कहलाते हैं?
काहे कौं गोपीनाथ कहावत ।
सपने कौ पहिचानि मानि जिय, हमहिं कलंक लगावत ॥
कहीं-कहीं गोपियों द्वारा ‘मिथ्या का सृजन’ संभावनाओं पर आधारित किया है जो काव्य में नूतन भंगिमा उत्पन्न कर देता है-
उधौ ! जाहु तुम्हॅ हम जाने ।
स्याम तुम्ह ह्याँ नाहि पठाये, तुम हो बीच भुलाने ॥
साच कहौ तुमको अपनी सौं बूझति बाद निदाने ।
सूर स्याम जब तुम्हें पठाये तक नेकहु मुसुकाने ॥
उद्धव की ‘जड़ता’ देखकर उसके प्रति गोपियों का आश्चर्य प्रकट करके सूर ने पात्र व परिस्थिति के विपरीत प्रवचन की व्यर्थता को खूब प्रमाणित किया है-
मोको एक अचम्भो आवत यामं ये कह पावत ।
भ्रमरगीत में वचनवक्रता का एक कारण यह है कि गोपियाँ सामूहिक रूप से अपने पक्ष की श्रेष्ठता के प्रति आश्वस्त हैं अतः वे नर्क का पथ न अपनाकर उद्धव को द्रवित करने में अधिक रुचि लेती हैं। उपालम्भ और विद्रूपीकरण इन दो पद्धतियों द्वारा सूर ने भ्रमरगीत की उक्तियों को अधिक मार्मिक बनाया है-
मधुकर ! भली करी तुम आए ।
वै बातें कहि कहि या दुख मैं, ब्रज के लोग हँसाए॥
इसलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने वाग्वैदग्ध्य की प्रशंसा करते हुए ठीक ही लिखा है
“सूर को वचन की चतुराई और शब्दों की क्रीड़ा का पूरा शौक था। बीच-बीच में आये कूटपद इस बात के प्रमाण हैं। सूर की प्रकृति कुछ क्रीड़ाशील थी । उन्हें कुछ खेल-तमाशे का भी शौक था।”
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