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जनसंख्या शिक्षा की प्राचीन अवधारणा
जनसंख्या शिक्षा की प्राचीन अवधारणा के अनुसार जनसंख्या का स्वरूप तत्कालीन व्यवस्थाओं पर आधारित था। जनसंख्या के इतिहास का चिन्तन करते समय हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्राचीन भारतीय परम्पराओं में भी जनसंख्या के सन्दर्भ में एक सुन्दर गृहस्थ की परिकल्पना की गयी थी। प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ उपाधि प्रदान की गयी थी और गृहस्थ आश्रम की आवश्यकता की पूर्ति के लिये बलिष्ठ (बलवान) एवं चरित्रवान पुत्रों की कामना की जाती थी। यद्यपि वेदों में वर्णित है कि सभेयो युवास्थ यजमानस्य वीरो जायतां अर्थात् इस यजमान का एक सभ्य यौवन सम्पन्न पुत्र हो । तत्कालीन समय में जनसंख्या के प्रति सभी वर्गों में अलग-अलग भावनाएँ तथा विचारधाराएँ थीं। उस समय भी नैतिक और अनैतिक धार्मिक एवं अधार्मिक विचारों का बोलबाला था। एक ओर राम के दो पुत्र थे तो दूसरी ओर रावण के एक लाख पुत्र तथा सवा लाख नातियों का उल्लेख पुराण लेखों तथा किवदन्तियों में प्रचलित है। कहा गया है-
एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती।
अर्थात् दो पुत्रों के बाद भी दशरथ पुत्र श्रीराम की स्थिति सकारात्मक है तथा लंकेश रावण के परिवार की स्थिति जनाधिक्य होने पर भी नाशवान अथवा नकारात्मक है।
निरुक्त में अधिक सन्तान वाले को महादरिद्री की संज्ञा दी गयी है, यथा-
निष्टवबत्रासश्चिदर्थिन भूरितोका वृकीदव ।
विभ्यस्यन्तो क्वाशिरे शिशिरं जीवनाय कम् ॥
ऋग्वेद में अधिक सन्तान वाले व्यक्ति को कष्टकारी जीवन जीने वाला बताया गया है तथा अधिक सन्तान पैदा करना निषिद्ध माना है, यथा-
“बहुप्रजा निऋतिमाविवेश”
श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने निम्नलिखित रूप में वर्णन किया है-
स्वायंभू मनु और सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥
दम्पति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥
अर्थात्-स्वायम्भू मनु और उनकी पत्नी सतरूपा द्वारा मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई है। मनु और सतरूपा के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद उनकी मर्यादा का गुणगान करते हैं।
प्राचीनकाल में जनसंख्या की सीमा के सन्दर्भ में अनेक भ्रान्तियाँ आज भी विद्यमान हैं तथा इस पर भी विचारधाराओं में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्धानों का कहना है कि हमारे पूर्वज जनसंख्या और वंश उत्पत्ति में बहुसंख्या के मूल्य को नकारते थे और शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शक्ति को प्राथमिकता देते थे। उस समय इस वर्ग को देवोपाधि दी गयी थी। दूसरी ओर एक ऐसा भी वर्ग था, जो अधिक सन्तान उत्पन्न करने का समर्थक था, ऐसे वर्ग को राक्षस उपाधि दी गयी थी।