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असमानता से क्या आशय है?
समाज में प्रचलित तथा व्याप्त असमानताओं को परिभाषित करते हुए समाज शास्त्रियों का कथन है कि मनुष्य में दो प्रकार की असमानताएँ हैं-पहली प्राकृतिक तथा दूसरी सामाजिक। प्राकृतिक असमानताएँ मनुष्य की उम्र, लिंग (स्त्री, पुरुष) और व्यक्तित्व सम्बन्धी नैसर्गिक शारीरिक गुणों के कारण हैं, जबकि सामाजिक असमानताएँ उसके सामाजिक स्तर, व्यवसाय, जाति, धर्म और सम्प्रदाय के कारण हैं। स्वामी विवेकानन्द का कथन है कि “हम सभी इस संसार में अपनी-अपनी असमान प्रतिभाएँ लेकर आते हैं। हममें से कोई महान् होता है तो कोई छोटा, ये हमारे जन्म से भी पूर्व निर्धारित प्रारब्ध या स्थितियाँ हैं, जिनसे हम छुटकारा नहीं पा सकते।” प्राकृतिक असमानताओं को तो स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन सामाजिक असमानताओं को नहीं क्योंकि वे स्वाभाविक नहीं हैं। प्राकृतिक असमानताओं की क्षतिपूर्ति समाज द्वारा की जा सकती है परन्तु जो असमानताएँ समाज में मनुष्यों द्वारा गढ़ी गयी हैं, उन्हें चेष्टापूर्वक धीरे-धीरे समाप्त या कम किया जा सकता है। यही सामाजिक असमानता ‘ शैक्षिक अवसरों की समानता’ के महत्त्व को दर्शाता है। ‘असमानता’ चाहे वह प्राकृतिक हो या सामाजिक स्वभावत: शैक्षिक अवसरों से सम्बन्धित प्रश्नों को जन्म देती है।
शैक्षिक अवसरों की असमानता के कारक (Factors of unequality of educational opportunities)
सक्रिय एवं सफल समता सम्वर्धन प्रयासों के लिये शैक्षिक असमानता के कारकों का अध्ययन आवश्यक है। इनका उल्लेख निम्नलिखित प्रकार से किया गया है-
(1) पारिवारिक परिवेशों के भिन्न-भिन्न होने के कारण भारी विषमताएँ उत्पन्न होती हैं। ग्रामों के परिवार या नगरों की गन्दी बस्तियों में निवास करने वाले तथा अशिक्षित माता-पिता की सन्तानों को शिक्षा प्राप्त करने का वह अवसर नहीं प्राप्त होता, जो उच्च शिक्षा प्राप्त माता-पिता के साथ रहने वाली सन्तानों को मिलता है।
(2) जिन स्थानों पर प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय की शिक्षा देने वाली संस्थाएँ नहीं हैं, वहाँ के बालकों को वैसा अवसर नहीं प्राप्त हो पाता जैसा उन बालकों को प्राप्त होता है, जिनके निवास स्थानों के निकट ये संस्थाएँ होती हैं।
(3) भारतवर्ष में जनसंख्या का अधिकांश भाग निर्धन है और अपेक्षाकृत अल्पांश ही धनवान हैं। शिक्षा संस्थाओं के निकट रहते हुए भी निर्धन परिवारों के बालकों को वह अवसर नहीं मिलता, जो सम्पन्न परिवारों के बालकों को मिलता है।
(4) शिक्षा का विषम कारण यह भी है कि विद्यालयों और महाविद्यालयों के अपने अलग-अलग शिक्षा के स्तर होते हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि जब ग्रामीण क्षेत्र के किशोर-किशोरियाँ नगरों के विद्यालयों या महाविद्यालयों में प्रवेश लेते हैं तो उन्हें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
(5) वर्तमान में देश के विभिन्न भागों में शिक्षा के विकास के सम्बन्ध में अधिक अन्तर पाया जाता है। उसी प्रकार किसी राज्य के एक जनपद (जिले) और दूसरे जनपद का शिक्षा-विकास एक जैसा नहीं होता।
(6) समाज के उन्नत वर्गों और पिछड़े वर्गों – अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के मध्य शिक्षा के विकास में बहुत अन्तर पाया जाता है।
(7) शिक्षा सम्बन्धी विभिन्न क्षेत्रों में तथा स्तरों पर बालिकाओं और बालकों की शिक्षा में बहुत अन्तर पाया जाता है।