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इल्तुतमिश: 1211-1236 ई. Iltutmish: 1211-1236 AD.
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इस प्रकार दिल्ली के सरदारों ने एक योग्य व्यक्ति को चुना। परन्तु 1210 या 1211 ई. में सिंहासन पर बैठने के पश्चात् इल्तुतमिश ने अपने को संकट पूर्ण परिस्थिति में पाया। नासिरुद्दीन कुबाचा ने सिंध में स्वतंत्रता स्थापित कर ली और ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह पंजाब पर भी अपना अधिपत्य जमाना चाहता है। ताजुद्दीन यल्दूज जो गजनी पर अधिकार किये था, अब भी मुहम्मद के भारतीय प्रदेशों पर प्रभुता का अपना पुराना दावा किये बैठा था। एक खलजी सरदार अली मर्दान ने, जो 1206 ई. में इख्तियारुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् कुतुबुद्दीन द्वारा बंगाल का शासक नियुक्त हुआ था, उसके (कुतुबुद्दीन के) मरने पर दिल्ली के प्रति अपनी राजभक्ति को ताक पर रख सुल्तान अलाउद्दीन की उपाधि धारण कर ली। यही नहीं, हिन्दू राजा और सरदार स्वतंत्रता खोकर असन्तोष से उद्विग्न थे; ग्वालियर एवं रणथम्भोर उनके शासकों द्वारा आरामशाह के कमजोर शासन-काल में लौटा लिये गये थे। दिल्ली के कुछ अमीर इल्तुतमिश के शासन के विरुद्ध अपना क्रोध प्रकट कर उसके कष्टों को और बढ़ा रहे थे।
पर नये सुल्तान ने साहस के साथ परिस्थिति का सामना किया। पहले उसने अमीरों के एक विद्रोह का दिल्ली के निकट जूद के मैदान में सफलता पूर्वक दमन किया। तत्पश्चात् उसने दिल्ली राज्य के विभिन्न भागों एवं बदायूँ, अवध, बनारस तथा शिवालिक आदि उसके अधीन राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया। उसने प्रतिद्वन्द्वियों के महत्त्वाकांक्षा से भरे मनसूबे भी विफल कर दिये गये।। 1214 ई. में ताजुद्दीन यल्दौज को ख्वारज्म के शाह सुल्तान मुहम्मद ने गजनी से मार भगाया। ताजुद्दीन यल्दौजू लाहौर भाग गया और थानेश्वर तक पंजाब जीत लिया। उसने स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने तथा इल्तुतमिश पर भी अपना अधिकार स्थापित करने की चेष्टा की। इसे इल्तुतमिश सहन नहीं कर सका। वह शीघ्र अपने प्रतिद्वन्द्वी की ओर बढ़ा तथा उसने 1216 ई. की जनवरी में तराइन के निकट लड़ाई में उसे पराजित किया। यल्दूज बन्दी बनाकर बदायूँ भेज दिया गया। नासिरुद्दीन कुबाचा को, जो इस बीच में लाहौर तक बढ़ आया था, 1217 ई. में इल्तुतमिश ने उसे नगर से निकाल भगाया। 1228 ई. की फरवरी में वह पूर्णतः वशीभूत कर लिया गया तथा उसके अचानक सिन्धु में डूब जाने के कारण सिंध दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया।
लगभग एक वर्ष बाद बगदाद के खलीफ़ा अल-मुस्तन्सर बिल्लाह ने उसे सम्मान का जामा एवं विशिष्ट अधिकार पत्र दिया, जिससे उसके द्वारा जीते गये सभी देश एवं सागर पर सुल्ताने-आजम (महान् सुल्तान) की हैसियत से उसको अधिकार दे दिया गया। इससे इल्तुतमिश की सत्ता को नया बल प्राप्त हुआ तथा उसे मुस्लिम संसार में एक दर्जा मिल गया। दिल्ली की सल्तनत पर खिलाफत का काल्पनिक अधिकार हो गया और भारत की भौगोलिक सीमाओं के बाहर, किन्तु अनिश्चित फिर भी वास्तविक इस्लामी भाईचारे के अधीन, खिलाफत की चरम सत्ता को कानूनी रूप मिला। सिक्कों पर इल्तुतमिश ने अपना उल्लेख खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में करवाया। टॉमस का कथन है कि उसके सिक्कों के साथ दिल्ली के पठानों के चाँदी के सिक्कों का यथार्थ रूप में प्रचलन आरम्भ होता है। इस तरह उसे दिल्ली का प्रथम वैधानिक सुल्तान कहा जाता है।
इसी बीच 1226 ई. में इल्तुतमिश ने रणथम्भोर को पुनः प्राप्त कर लिया तथा एक वर्ष बाद उसने शिवालिक पर्वत में स्थित मंडावर को जीत लिया। 1230-1231 ई. के जाड़े में बंगाल के खल्ज़ी मलिक पूर्णत: अधीन कर लिये गये तथा अलाउद्दीन लखनौती का शासक नियुक्त हुआ। ग्वालियर को, जो कुतुबुद्दीन की मृत्यु के पश्चात् पुनः स्वतंत्र हो गया था, 1232 ई. के अंत में सुल्तान ने वहाँ के हिन्दू राजा मंगलदेव से पुन: छीन लिया। सुल्तान ने 1234 ई. में मालवा के राज्य पर आक्रमण कर भिलसा के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने उज्जैन की प्रसिद्ध नगरी पर चढ़ाई कर दी। उसे अधिकृत कर लूट लिया। विख्यात विक्रमादित्य की एक प्रतिमा दिल्ली लाई गयी। इल्तुतमिश का अन्तिम आक्रमण बनियान पर हुआ, लेकिन राह में उसे ऐसा भयंकर रोग हुआ कि वह डोली में दिल्ली वापस लाया गया। यह रोग घातक सिद्ध हुआ तथा छब्बीस वर्ष राज्य करने के पश्चात् 29 अप्रैल, 1236 ई. को उसकी मृत्यु हो गयी।
इल्तुतमिश के शासन-काल में ही 1221 ई. में सर्वप्रथम मंगोल अपने प्रसिद्ध नेता चंगेज़ खाँ के अधीन सिन्धु-तट पर उपस्थित हुए। चंगेज का जन्म 1155 ई. में हुआ था तथा उसका मूल नाम तेमूजिन था। वह केवल विजेता ही नहीं था। प्रारम्भिक काल में प्रतिकूल परिस्थितियों में ही उसका प्रशिक्षण हुआ था। इससे वह धैर्य, साहस और आत्मविश्वास-जैसे गुणों से सम्पन्न हो गया, जिनके कारण उसने एक साम्राज्य में मध्य एशिया की असभ्य जातियों का संगठन किया तथा नियम एवं संस्थाएँ बनायीं जो उसकी मृत्यु के बाद भी कई पीढ़ियों तक चली। उसने विद्युद्वेग से मध्य एवं पश्चिम एशिया के देशों को रौंद डाला और जब उसने ख्वारज़्म अथवा खीवा के अन्तिम शाह जलालुद्दीन मंगबर्नी पर आक्रमण किया, तब वह (जलालुद्दीन मंगबर्नी) पंजाब भाग आया तथा उसने इल्तुतमिश के राज्य में शरण ली। दिल्ली के सुल्तान ने अपने इस बिना बुलाये अतिथि की प्रार्थना अस्वीकार कर दी। मंगबनी खोकरों से जा मिला तथा मुलतान के नासिरुद्दीन कुबाचा को पराजित कर सिन्ध एवं उत्तरी गुजरात को लुटा और फारस चला गया। मंगोल भी लौट गए। इस तरह भारत एक भयानक संकट से बच गया। परन्तु अगले युगों में दिल्ली के सुल्तान मंगोल आक्रमणों के भय से व्याकुल रहे।
मंगोल मध्य एशिया के स्टेपीज में रहने वाले जनजातीय लोग थे। इन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से पहले बौद्ध धर्म स्वीकार किया था और बौद्ध धर्म की समनिष्ठ शाखा में विश्वास करते थे। 1206 ई. में इस प्रदेश में मंगोलजनजाति की एक सभा (करुलताई) हुई जिसमें तेमूजिन (चंगेज खां) को नेता चुना गया। मंगोलों की प्रशासनिक और सैनिक व्यवस्था एक दूसरे से जुड़ी हुई थी। सैनिक टुकड़ियों का विभाजन 10 से 10 हजार के बीच था। 10 हजार सैनिकों की टुकड़ी मिनगान कहलाती थी। उससे ऊपर की टुकड़ी तुआन होती थी। माना जाता है कि प्रशासनिक एवं सैनिक व्यवस्था के संचालन के लिए चंगेज खां ने गार्डों की टुकड़ियों को नियुक्त किया था।
इल्तुतमिश दिल्ली की प्रारंभिक तुर्की सल्तनत का, जो 1290 ई. तक कायम रही, सर्वश्रेष्ठ शासक माना जा सकता है, जो उचित ही है। उसे ही भारत के नव-स्थापित मुस्लिम राज्य को भंग होने से बचने तथा कुतुबुद्दीन के द्वारा जीते गए प्रदेशों को एक शक्तिशाली एवं ठोस राज्य के रूप में संगठित करने का श्रेय प्राप्त है। यह राज्य उसकी मृत्यु के समय कतिपय बहरी प्रान्तों को छोड़कर सारे हिंदुस्तान (उत्तर भारत) में फैला था। इल्तुतमिश एक निर्भीक योद्धा था। उसने अपने शत्रुओं को दृढ़ता से पराजित किया तथा अपने जीवन के अन्तिम वर्ष तक सैनिक विजयों में व्यस्त रहा। साथ-साथ वह मनुष्य के रूप में देदीप्यमान गुणों से सम्पन्न था। कला एवं विद्या का पोषक भी था। दिल्ली की प्रसिद्ध कुतुबमीनार को सुल्तान ने 1231-1232 ई. में पूरा करवाया। यह उसकी महत्ता का अमर प्रमाण है। इस मीनार का नाम दिल्ली के प्रथम तुर्की सुल्तान के नाम पर नहीं था, जैसा की कुछ लेखकों का अनुचित विचार है; बल्कि वह बगदाद के नजदीक उष नामक स्थान के निवासी खवाजा कुतुबुद्दीन के नाम पर है, जो रहने के लिए हिंदुस्तान (उत्तर भारत) आये थे और जिनका इल्तुतमिश तथा अन्य लोग काफी सम्मान एवं सत्कार करते थे। कृतज्ञता के कारण कारण ही इल्तुतमिश ने अपने पोषकों-सुल्तान कुतुबुद्दीन एवं सुल्तान मुइजुद्दीन-के नाम इस पर अंकित कर दिये थे। सुल्तान की आज्ञा से एक शानदार मस्जिद भी बनी। वह अत्यन्त धर्मनिष्ठ था तथा नमाज पढ़ने में बड़ा तत्पर रहा करता था।
मिनहाजुस्सिराज लिखता है कि ऐसा गुणवान, दयालु हृदय तथा विद्वानों एवं धर्मोपदेशकों का आदर करने वाला सुल्तान कभी सिंहासन पर नहीं बैठा है। कुछ तत्कालीन अभिलेखों में उसे ईश्वर की भूमि का संरक्षक, ईश्वर के सेवकों का सहायक आदि कहा गया है।
तुर्क विजय- लगभग उत्तरी भारत में बहुत सारे क्षेत्रों में तुर्की साम्राज्य स्थापित हो चुका था। गोरी के समय ही बख्तियार खिलजी ने बंगाल को जीत लिया था। उस समय बंगाल पर लक्ष्मण सेन शासन करता था और उसकी राजधानी नदिया थी। माना जाता है कि बख्तियार खिलजी घोडे के व्यापारी के वेश में गया और बंगाल पर अचानक धावा बोल दिया। लक्ष्मण सेन अपनी राजधानी छोड़कर भाग गया और फिर नदिया पर बख्तियार खिलजी का नियंत्रण हो गया। बख्तियार खिलजी लखनौती से शासन करता रहा। दूसरी तरफ लक्ष्मण सेन सोनारगाँव के कुछ क्षेत्रों पर कब्जा बनाये रहा। माना जाता है कि अपने बंगाल अभियान के मध्य ही खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को नष्ट कर दिया और बौद्ध भिक्षुकों की हत्या की। अंत में बख्तियार खिलजी असम के माघ शासक से संघर्ष करता हुआ मारा गया। तुर्की विजय के कई कारण बताए जाते है। हसन निजामी और मिनहाज-उस-सिराज इसे दैवी कृपा मानते है। फक्र ए मुदव्विर इसके पीछे सैनिक कारकों को उत्तरदायी मानते है। महत्त्वपूर्ण कारक थे, तुर्कों की अश्वारोही सेना और राजपूतों की सामंतवादी पद्धति।
यदुनाथ सरकार अपना अलग मत रखते है। इसने तुर्कों, पठानो एवं अरबों के विजय के निम्नलिखित कारण माने हैं-
1. इस्लामी व्यवस्था में जातीय समानता की भावना।
2. मुसलमानों का नियतिवादी होना एवं अल्लाह के नाम पर युद्ध करना।
3. कुरान में मदिरा पान पर मनाही थी इसलिए मुसलमान सैनिक मदिरापान से परहेज रखते हैं।
ब्रिटिश इतिहासकारों का मत- (तुर्क-विजय के संदर्भ में) एलिफिस्टन महोदय का कहना है कि तुर्की सेना में ऑक्सस एवं सिन्धु नदी के बीच बसने वाले जनजातीय लोग थे, ये लोग काफी लड़ाकू थे। इसी वजह से तुर्की सेना ज्यादा सक्षम थी। दूसरी तरफ स्मिथ एवं लेनपूल का कहना है कि तुर्की ठण्डे प्रदेश में बसने वाले मांसाहारी लोग थे इसलिए वे भारतीयों की तुलना में अधिक ताकतवर थे। बहुत सारे इतिहासकारों ने सैनिक कारकों को ज्यादा महत्त्व दिया है किन्तु सैनिक दृष्टि से भारतीय कम सक्षम नहीं थे। यह सही है कि तुर्की सेना में घोडे पर सवार तीरंदाज थे तो भारतीय सेना में भी गज सेना थी। अत: सैनिक दृष्टि से भारतीय राज्य पिछड़े हुए नहीं थे। मूल कमजोरी संगठनात्मक व्यवस्था में थी। मुसलमानों में जातीय समानता थी जबकि भारतीय समाज जाति के अधर पर विभाजित था। सैनिक कार्य केवल क्षत्रियों का पेशा था। अलबेरुनी के अनुसार जिस समय विदेशी आक्रमण होता था उस समय दस प्रतिशत जनसँख्या ही युद्ध में भाग लेती थी और 90 प्रतिशत जनसँख्या इससे अलग रहती थी। यही कारण है कि विदेशी आक्रमण के समय भारतीय राज्य ताश के पत्तों की तरह ढह जाते थे। तुर्कों की इक्ता प्रणाली भारतीय सामन्तवादी पद्धति से ज्यादा विकसित थी। इक्ता प्रणाली के अधीन नियुक्त सैनिक, सामंतों के सैनिकों की तुलना में युद्ध मैदान में अधिक समय तक रहते थे।
इल्तुतमिश(1211-36 ई0)
- यह इल्वरी तुर्क था, पिता ईलम खांन ने बचपन में ही दास के रुप में बेंच दिया था। अंतत: इसे ऐबक ने गोरी की अनुमति से 1 लाख जीतल में दिल्ली में जमालुद्दीन से खरीदा था।
- ऐबक ने इल्तुतमिश को बदांयू का इक्तादार नियुक्त किया एवं अपनी पुत्री की शादी भी इससे कर दी।
- इसे दासता से मुक्ति 1205-06 ई0 में ही मिल गयी थी जब गोरी के आदेश पर ऐबक नें जो कि गोरी का दास था, ने दास मुक्ति का प्रपत्र तैयार कराया था।
- इल्तुतमिश अमीरो द्वारा चुना गया दिल्ली का पहला शासक था कुछ इतिहास कार इसे अपहर्ता भी मानते है। 1211 ई0 में इसनें सल्तनत की राजधानी लाहौर से दिल्ली बनायी।
- 1215 ई0 में थाणेश्वर के निकट तराईन के मैदान में एल्दूज को पराजित किया और बंदी बनाकर बदायूं भेज दिया। जहां इसकी हत्या कर दी गई। 1217 ई0 में इल्तुतमिश ने कुवाचा को चिनाब नदी के तट पर स्थित मंसूरा के निकट पराजित किया और पंजाब के बाहर खदेड़ दिया।
- 1221 ई0 में मंगोल आक्रमण का खतरा उत्पन्न हो गया क्योंकि मंगोलो ने ख्वारिज्न राज्य का अंत कर दिया गया।जिससे ख्वारिज्म राजकुमार मागवानी भाग कर भारत आया और पीछा करते हुए चंगेज खाँ भी भारत आया।
- मांगवर्नी अपने दूत अईनुल मुल्क को साहायता के लिए इल्तुतमिश ने पास भैजा। इसने बहाने से मना कर दिया जिससे मंगोल का खतरा टल गया।
- 1224ई0 में मांगवर्ती वापस चला गया तथा मंगोल भी वापस चले गये लेकिन पंजाब में रुकने के कारण कुवाचा की शक्ति का ह्रास हो गया।
- 1228 ई0 में इल्तुतमिश ने कावाचा पर पुन: आक्रमण कर दिया। कुवाचा सिंध नदी पार करते समय उसी में डूब कर मर गया और इल्तुतमिश का सिंध पर अधिकार हो गया।
- 1226 ई0 में रणथम्मोर एवं 1227 ई0 में मन्दौर के किलों पर अधिकार कर लिया।
- ऐबक की म्रत्यु के बाद बंगाल स्वतंत्र हो गया तथा अलीमर्दान की म्रत्यु के बाद ख्वाजा हमासुद्दीन नामक सरदार नें गयासुदीन की उपाधि धारण कर कर बंगाल की सत्ता संभाली।
- बंगाल में दो अभियान के बाद (पहला इल्तुतमिश के द्वारा दूसरा नासिरुद्दीन महमूद द्वारा) 1225 ई0 में नासिरुद्दीन बंगाल का शासक बना। 1229ई0 में बीमारी के कारण इसकी म्रत्यु हो गयी।इसके बाद खिलजी सरकार बल्का ने विद्रोह कर दीया। इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को दबाकर मलिक जानी को अपनी अधिनता में बंगाल का शासक बना दिया।
- 18 फरवरी 1229ई0 में बगदाद के खलीफा अल मुस्तंस्वि विल्राह ने खिलहत(विशेष पोशाक) एवं मान पत्र भेजकर सुल्तान के पद की मान्यता दी। इस प्रकार खलीफा के द्वारा मान्यता प्राप्त पहला सुल्तान इल्तुतमिश हुआ।
- इसी समय उसने चांदी का टका 175 ग्रेन एवं तांबें का जीतल नामक सिक्कों को जारी किया। टका एवं जीतल का अनुपात 1:48 थे। इसके कुछ सिक्को पर शिव के वाहन नन्दी एवं घुड़सवार अंकित मिलते है।
- 1231 ई0 में ग्वालियर अभियान किया यहां के शासक वर्म देव या मंगल देव ने इसकी अधिनता स्वीकार कर ली। इस अभियान पर जाते समय अपनी अनुपस्थितिमें शासन संचालन के लिए रजिया को नियुक्त किया। इसने सफलता पुर्वक 6माह तक शासन किया।
- इसी कारण अभियान से वापस आने के बाद रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। एवं चांदी के टके में अपने साथ साथ रजिया का नाम भी अंकित कराया।
- 1233-34ई0 में इल्तुतमिश ने मालवा पर अक्रमण कर दिया ।
- इसी समय दोआब में कन्नौज , बदांयू,बनारस,अवध आदि के विद्रोही सरदारों को अपने अधीन किया। अवध के स्थानीय नेता ने तुर्की सेना को अत्याधिक क्षति पहुचाई।इसकी म्रत्यु के दोआब में शान्ति स्थापित हो सकी।
- इसका अन्तिम अभियान वामियान के विरुध्द हुआ इसी अभियान के दौरान यह बीमार हुआ और 29 अप्रैल 1236ई0 को सिंध में म्रत्यु हो गय़ी।
- इल्तुतमिश ने भारत में इक्ता प्रथा प्रारम्भ की जबकि इक्ता प्रथा का जनक मु0गोरी को माना जाता है।
- इल्तुतमिश ने 40 बड़े इक्तादार नियुक्त किये थे जिन्हें “तुर्कान-ए-चहलगामी” या चालीस दल कहते थे।
- इक्ता की परिभाषा निजामुल-मुल्क तूसी की पुस्तक सियासत नामा से ली गयी है।
- इसने दिल्ली में न्याय व्यवस्था अपनायी एवं काजी का पद बनाया जिस पर पहली नियुक्ति मिनहास-उस-सिराज की हुई। इब्नबतुता ने इसके न्याय व्यवस्था की प्रशंसा करता था।इल्तुतमिश के महल के बाहर दो शेर भी बंने थे जिनके गले में घंटिया बंधी थी।जिन्हें बजाकर कोई भी फरियादी न्याय की मांग सुल्तान से कर सकता था।
- इल्तुतमिश ने ही वजीर के पद बनाया जिस पर पहली नियुक्ति निजामुल मुल्क जुनैदी की हुई वजीर के कार्यों में सामान्य प्रशासन, सैन्य व्यवस्था एवं राजस्व व्यवस्था आती थी, इसने कुतुबमीनार का कार्य पूरा कराया एवं अपने बड़े पुत्र नसिरुद्दीन का मकबरा सुल्तान गढ़ी के नाम से बनवाया।इसे दिल्ली सल्तनत का पहला मकबरा माना जाता है।
- बदांयू में हौज-ए-शम्शी नामक तालाब एवं शम्शी ईदगाह बनवाया।दिल्ली में एक मदरसा-ए-नासिरी के नाम से बनवाया एवं शिक्षा की नींव डाली।कुछ समकालीन विवरणों में इसे ‘अल्लाह के इलाकों का रक्षक एवं ईश्वर के सेवको का साहायक कहा जाता है’
- RP Tripathi के अनुसार ” यह दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक था।” निजामी ने इसका समर्थन किया।
- हबीबुल्ला के अनुसार ’सल्तनत का रुपरेखा ऐबक ने बनाई एवं इल्तुतमिश इसका पहला वास्तविक शासक हआ। ’
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