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केदारनाथ अग्रवाल के शिल्प-विधान की समीक्षा अथवा कवि केंदार अभिव्यक्ति सौष्ठव पर विचार कीजिए।
केदारनाथ अग्रवाल द्वारा वर्णित विषय जितने समृद्ध हैं, उनको व्यक्त करने का ढंग भी उतना ही सक्षम एवं प्रभावपूर्ण है। प्रगतिशील कविता के कवियों में अग्रणी कवि केदार ने लगभग पचास वर्षों तक कविता के भीतर और बाहर अर्थात् भाव-वस्तु और कलात्मक मूल्यों के प्रति सामंजस्य स्थापित करने का सफल उपक्रम किया है। उनके भावबोध को समझने की दिशा में उनकी अभिव्यक्ति-पद्धति ने बहुत बड़ी भूमिका का निर्वाह किया है। उनके भाषायी तेवर तथा उसके अनुषंगों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार
भाषा- जनवादी चेतना से सम्पृक्त होने के कारण केदार जी ने लोकभाषा और लोकरूपों का सार्थक प्रयोग किया है। उनकी भाषा में नयापन है। उन्होंने उसे लोकधुनों के लयात्मक प्रयोग से जीवन्त बना दिया है। सरल भाषा-शैली के माध्यम से कविता में अपनापन भर देना केदार के कवि की परम विशेषता है। कम-से-कम तथा सरल-से-सरल शब्दों में अनूठे दृश्य उपस्थित करने में कवि केदार सिद्धहस्त हैं। एक उदाहरण देखें-
आसमान की ओढ़नी ओढ़े पानी पहने/फसल छँघरिया
मैंने ऐसा दृश्य निहारा, मेरी रही न/मुझे खबरिया ।
किन्तु, भाषा की यह सहजता-सरलता सामाजिक सन्दर्भों की जटिलता सामने आते ही अपना तेवर बदल जाता है। वहाँ भाषायी तेवर हथियार के रूप में पैना हो जाता है; जैसे-
मरना है तो आज मर/कल है दूर अपार
गोली आँसू गैस की/कायम है सरकार ।
या,
जहँ लग नेता-राज है / तहँ लग बंटाधार
पूँजीपति की गोद में/खेल रही सरकार ।
पूँजीवादी शोषण एवं अत्याचार के विरुद्ध कवि केदारनाथ अग्रवाल की भाषा ओजगुण से सम्पन्न हो, ओजस्वी हो जाती है। उदाहरण के लिए एक ही कविता काफी होगी-
डंका बजा गाँव के भीतर/सब चमार हो गये इकट्ठा
एक उठा बोला दहाड़कर
हम पचास हैं मगर हाथ सौ फौलादी हैं
सौ हाथों में एका का बल बहुत बड़ा है
हम पहाड़ को भी उखाड़ कर रख सकते हैं,
जमींदार है यह अन्यायी है/कामकाज सब करवाता है
पर पैसा देता है छै ही।
यहाँ भाषा सहज-सरल तथा साधारण बोलचाल की शब्दावली से तेवर वाली असाधारण सी लगती है। युक्त होकर भी लड़ाकू
छन्द- केदार की कविताओं में प्रबन्धात्मक विस्तार नहीं है। वे मुख्यतः मुक्तक प्रतिभा एवं शैली के कवि हैं। उनके द्वारा लिखी गयी कविताएँ छोटी-छोटी हैं। वास्तव में वे छोटी-छोटी कविताओं के बहुत बड़े कवि हैं। केदार जी ने मुक्त छन्द में रचनाएँ की हैं तो गीत-छन्दों का भी प्रयोग किया है। जहाँ छन्द लयात्मक है वहाँ उनमें लोकधुनों की मिठास भरी हुई है। उदाहरण प्रस्तुत है-
हमको न मारो नजरिया/ऊँची अटरिया माँ बैठी रहो तुम
राजा की ओढ़े चुनरिया/गावौ, बजावौ, मजे माँ बितावों
ऐसी न अइहे उमरिया/राजा के हिरदय से हिरदय मिलावौ
करती रहौ रंगरलिया। /हमका पियारा है भारत हमारा
तुमका पियारा फिरंगिया / हमका न मारो नजरिया ।।
‘कहें केदार खरी-खरी’ काव्य संकलन की तो अधिकतर कविताएँ गीत और लोकधुनों की शैली में लोगों की जबान पर बस जाने वाली हैं। छन्दों की परम्परागत बँधी-बँधायी परिपाटी को तोड़कर, भावों को स्वच्छन्द रूप में वर्णित करना ‘मुक्त छन्द’ कहलाता है। केदार जी ने बहुत कविताएँ मुक्त छन्द में भी रची हैं। उदाहरण दृष्टव्य है-
यह जो/नाग दिये के नीचे / चुप बैठा है
इसने मुझको / काट लिया है
इस काटे का मंत्र / तुम्हारे चुम्बन में है
तुम चुम्बन से / मुझे जिला दो।
अप्रस्तुत-विधान- केदारनाथ अग्रवाल ने अपनी रचनाओं में बड़े सार्थक उपमान प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने उपमानों का चयन मानव-जीवन, पशु-पक्षी, प्रकृति आदि के परिवेश से किया है। उन्होंने परम्परा से काव्य में प्रयुक्त होने वाले उपमानों का प्रयोग तो किया ही है, सर्वथा नवीन उपमानों की भी सर्जना की है। उदाहरण देखें-
(1) धूप चमकती है चाँदी की साड़ी पहने
मैके में आयी बेटी की तरह मगन है (प्राकृतिक उपमान)
(2) छोटे हाथ/ सवेरा होते
लाल कमल से खिल उठते हैं। (परम्परागत उपमान)
(3) गाँव अब भी मुझको बुलाता है
रेडियो की तरह बज उठता हूँ मैं। (यांत्रिक उपमान)
(4) भेड़िये-सा/ भयंकर हो गया
यथार्थ / न कोई बचाव / न कोई सुझाव (पशु-जगत् से उपमान)
प्रतीक-विधान- मानव प्रतीक-सृष्टा प्राणी है। केदार का कवि भी प्रतीक सृष्टा उन्होंने अपनी कविताओं में अनेकानेक परम्परागत तथा अभिनव प्रतीकों की सृष्टि की है। उन्होंने सूदखोर सेठों तथा पूँजीवादी शोषकों के लिए ‘पत्थर’ और ‘डॉगर’ शब्द का प्रतीक चुना है। श्रमशील मनुष्य ‘लोहा’ के रूप में प्रतीक रूप में उपस्थित है। उनके काव्य में वर्षा, बादल, नदी, धूप, सूर्य, गिरगिट, गधा आदि सभी प्रतीक के रूप में प्रयुक्त हैं। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैं-
(1) ये कामचोर/आरामतलब
मोटे तोंदियल, भारी-भरकम
हट्टे-कट्टे सब डाँगर ऊँघा करते हैं।
(2) मैंने उनको, जब-जब देखा, लोहा देखा।
(3) कहता है केदार कड़क कर/बजें छमाछम ढोल
अब तो गिरगिट घर पर काँपे/ खुले गधों की पोल
यह शासन हो गया मखौल ।
(4) आग लगाकर चीन जगा है/सूर हर इंसान बना है।
बिम्ब-विधान- जीवन के किसी भी रूप को, किसी भी अनुभव को बिम्ब-रूप में प्रस्तुत करना कविता का प्रमुख व्यापार है। बिम्ब के द्वारा रचनाकार भाव-विचार, गुण-व्यापार, घटना, वस्तु आदि को आकार देता है। अनेकानेक सूक्ष्म अनुभूतियों और मानस क्रियाओं को प्रत्यक्ष करता है। वास्तव में बिम्ब अप्रस्तुत वस्तु या भाव की मानसिक या काल्पनिक रूपरचना है। बिम्बधर्मी रचना करना प्रत्येक सफल कवि का प्रथम गुण है। कवि केदानाथ अग्रवाल भी अपनी कविता में अपने कथ्य को अधिकतर बिम्बों के सहारे ही प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने तरह-तरह के बिम्बों सृजन किया है। उनकी काव्य-दृष्टि में दृश्य-बिम्ब, रस-बिम्ब, शब्द-बिम्ब, गन्ध-बिम्ब तथा स्पर्श-बिम्ब सभी का समावेश है। दो- एक उदाहरण प्रस्तुत हैं
(1) आदमी का बेटा/गरमी की धूप में भाँजता है फावड़ा
हड्डी की देह को तोड़ता है/खूब गहराई से धरती को खोदता है
काँखता है, हाँफता है, मिट्टी को ढोता है।
गन्दी आबादी के नाले को पाटता है।
(2) सुबह का सूरज/रात का अँधेरा काटता है।
ओस के आँसू/आग को जीभ से चाटता है।
(3) आरपार चौड़े खेतों में चारों ओर दिशाएँ घेरे
लाखों की अगणित संख्या में/ ऊँचा गेहूँ डटा खड़ा है
हिम्मतवाली लाल फौज-सा/मर मिटने को घूम रहा है
अंतिम बलिदानों से अपने/सबल किसानों को करता है।
अलंकार-विधान- केदानाथ अग्रवाल ने लिखा है कि, “अब हिन्दी की कविता न रस की प्यासी है, न अलंकार की इच्छुक है और न संगीत की, न तुकांत की भूखी है।” उनके इस सिद्धान्त अभिमत के बावजूद केदार जी की कविता न रस-शून्य है, न संगीत रहित है और न ही अलंकारमुक्त है। इसलिए कि ये सारे तत्त्व तो कविता के प्राण हैं। ये कवि के चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने कविता में आते ही रहते हैं। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में भी अलंकारों का समुचित प्रयोग हुआ है। उदाहरण प्रस्तुत हैं
(1) धीरे-धीरे पैर धरा धरती पर किरनों ने। (अनुप्रास अलंकार)
(2) वह समाज के त्रस्त क्षेत्र का मस्त महाजन
गौरव के गोबर-गणेश-सा मारे आसान
नारिकेल-से सिर पर बाँधे धर्म मुरैठा
ग्रामवधूटी की गौरी-गोदी पर बैठा । ( उपमा अलंकार)
(3) काटो काटो काटो करबी/मारो मारो मारी हंसिया
पाटो पाटो धरती । ( पुररुक्ति प्रकाश अलंकार)
कवि केदार की रचनाओं में यमक, श्लेष, असंगति, अन्योक्ति, मीलित, तद्गुण आदि अलंकारों की उपस्थिति देखी जा सकती है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि केदारनाथ अग्रवाल की अभिव्यक्ति क्षमता बड़ी प्रखर है। उन्होंने अपनी कविताओं में भावानुरूप ही शिल्प का विधान किया है। रस, अलंकार, प्रतीक, बिम्ब, अप्रस्तुत, छन्द सभी दृष्टियों से उनकी कविता प्रभावपूर्ण और मूल्यवान है।
- केदारनाथ अग्रवाल का जीवन परिचय, रचनाएँ, तथा भाषा-शैली
- महादेवी वर्मा के गीतों की विशेषताएँ बताइए।
- वेदना की कवयित्री के रूप में महादेवी वर्मा के काव्य की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए ।
- महादेवी वर्मा की काव्यगत विशेषताएँ- भावपक्षीय विशेषताएँ तथा कलापक्षीय विशेषताएँ
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