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चंदेल मूर्तिकला | चन्देलों के मन्दिर वास्तुकला | खजुराहो मूर्तिकला
चंदेल (Chandel) मूर्तिकला की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
अथवा
खजुराहो मूर्तिकला के बारे में आप क्या जानते हैं?
अथवा
चन्देलों के मन्दिर वास्तुकला के बारे में आप क्या जानते हैं?
चंदेल मूर्तिकला | चन्देलों के मन्दिर वास्तुकला | खजुराहो मूर्तिकला – गुप्तोत्तरकालीन मूर्तिकला का प्रमुख क्षेत्र खजुराहो है। खजुराहो मध्य प्रदेश के छतरपुर में स्थित है। यह चंदेल राजाओं की कर्मभूमि रहा है । यहाँ 30 मंदिरों का समूह विद्यमान है जो अपनी वास्तुकला तथा शिल्प विधान की दृष्टि से विश्वविख्यात है। यहाँ के मंदिरों की भीतरी और बाहरी दीवारों में बहुत सी मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं।
खजुराहो की मूर्तियों में गुप्तकालीन मंदिरों की प्रायः सभी विशेषतायें दिखाई देती हैं तथापि इनमें जिन घटनाओं के विशाल चित्रांकन हैं वह इस काल की निजी विशेषता के सूचक हैं। इन दृश्यों में गति तथा अभिनय स्पष्ट है। यही कारण है कि इसे मूर्तिकला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण माना गया है। यहाँ कई ऐसे रिलीफ चित्र हैं जिनमें प्रेम और शृंगार संबंधी भावों की अतिशय अभिव्यक्ति है। उन्हें सर्वप्रथम कन्नौज के प्रतिहार कलाकारों के द्वारा बनाया गया, बाद में तान्त्रिक शिव की उपासना के भावों को व्यक्त किया गया। इसी कारण यहाँ की मूर्तियों में तन्त्रवाद का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। 64 योगिनी का मन्दिर इस श्रेणी का श्रेष्ठ उदाहरण है। यह मैथुन और मद्य संबंधी कर्मकाण्डों से भरा हुआ है। यहाँ की मूर्तियाँ इस सिद्धान्त पर उकेरी गयी हैं कि मोक्ष का साधन योग और भोग है।
खजुराहो की मूर्तियों को उनकी बाह्य रूपरेखा के आधार पर निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
1. प्रथम वर्ग की वे मूर्तियाँ हैं जो मन्दिर के गर्भगृह में पूजा हेतु स्थापित हैं । इन मूर्तियों का निर्माण चारों ओर तराश कर किया गया है। ये प्राय: स्थानक मुद्रा में बनाई गई हैं। इन मूर्तियों का शिल्पविधान ठीक उसी तरह से है जैसा इस काल के प्रतिमा शास्त्रीय ग्रन्थों में वर्णन मिलता है। ये मूर्तियाँ शास्त्रीय सिद्धान्तों के ही आधार पर ढाली गई हैं। इनमें कलाकार ने अलंकरण का प्रयोग किया है जो उनकी कल्पनाशीलता का परिचायक है । कहीं-कहीं कलाकारों ने सौन्दर्य के वशीभूत होकर प्रतिमाशास्त्रीय सिद्धान्तों का अतिक्रमण भी कर दिया है जैसे मुख्य मूर्तियों का अंकन तथा उसी के समीप पार्श्व में अन्य देवताओं का अंकन कलाकार ने अपनी स्वेच्छा से ही किया है। सभी मूर्तियाँ यौवन और पवित्र शान्ति का प्रतीक हैं।
मुख्य गर्भगृह में जो मूर्तियाँ स्थापित हैं वे प्रायः शैव, वैष्णव और जैन धर्म से संबंधित हैं। शिव सौम्य तथा रौद्र दोनों ही रूपों में प्राप्त होते हैं । विष्णु की मूर्तियाँ तीन रूपों में मिलती हैं-शयन, आसन और स्थानक । विष्णु की एक मूर्ति योगासन मुद्रा में है। इसमें वह सम्पूर्ण विश्व की शक्ति का उपदेश देते हुए प्रदर्शित हैं । इसके अतिरिक्त विष्णु के विभिन्न अवतारों का भी अंकन है । इसमें मत्स्य अवतार, वामन अवतार और वाराह अवतार विशेष रूप से दर्शनीय हैं। एक अन्य उल्लेखनीय मूर्ति परशुराम की है जिसे शक्ति के साथ प्रदर्शित किया गया है। जैन धर्म से संबंधित मूर्तियों में पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ हैं। पार्श्वनाथ को विभिन्न मुद्राओं में जैसे स्थानक मुद्रा और आसन मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है, सभी मूर्तियों का निर्माण समान आस्था के साथ किया गया है जो कलाकारों तथा जनसाधारण की धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है।
2. द्वितीय वर्ग में वे मूर्तियाँ आती हैं जिनमें मुख्य देवता को उनके परिवार के साथ प्रदर्शित किया गया है। इनमें देवता तथा उसके परिवार की मूर्तियाँ प्रायः सम्मुख दर्शन के सिद्धान्त पर बनी हैं। इनमें त्रिपार्श्वदर्शी मूर्तियाँ भी मिलती हैं। इन मूर्तियों में प्रतिमा शास्त्रीय लक्षण नहीं मिलते हैं। यही कारण है कि कलाकारों की स्वच्छन्दता इसमें दिखाई देती है। सूर्य, ब्रह्मा, सरस्वती, बैकुन्ठी, नारसिंही, गजलक्ष्मी, सिंहवाहिनी शंख, चक्र तथा पद्म पुरुष आदि की मूर्तियाँ इसी कोटि की हैं। प्राय: देवताओं को उनकी शक्ति के साथ आलिंगन मुद्रा में दिखाया गया है। शिव-पार्वती, राम-सीता, बलराम-रेवती, गणेश-विघ्नेश्वरी, काम-रति, गन्धर्व-नाग की मुद्राओं को बहुत ही आकर्षक भाव-भंगिमाओं में उकेरा गया है।
मंदिर में गर्भगृह का जो प्रवेश द्वार है उसी पर मुख्य देवता के लांछन की लघु आकृतियाँ बनी हैं। प्रवेश द्वार के ऊपर नवग्रह तथा लक्ष्मी की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । कन्डरिया महादेव मंदिर में नृत्य करती हुई सप्त मातृका की मनमोहक आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।
3. तृतीय वर्ग में अप्सराओं और सुर-सुन्दरियों की मूर्तियों का निरूपण है। ये शान्त भाव में प्रदर्शित हैं जिनमें एक अद्भुत आकर्षण है । ये घोर भौतिकवादी तथा शृंगारपूर्ण मुद्राओं में अंकित हैं। इन मूर्ति पट्टों में कापालिक एवं कौलमार्गियों की विभिन्न तांत्रिक क्रियाएँ भी अंकित हैं। इनका रूप और आकार ठीक वैसा है जैसा भवभूति के मालती माधव तथा राजशेखर के कर्पूर मंजरी में अंकित हैं।
4. चतुर्थ वर्ग की वे मूर्तियाँ हैं जो लौकिक जीवन से संबंधित हैं। इनमें युद्ध, आखेट, गुरु-शिष्य, मिथुन आदि मूर्तियों के विभिन्न दृश्यांकन हैं । संख्या की दृष्टि से मिथुन मूर्तियाँ सर्वाधिक हैं जो विभिन्न लौकिक मुद्राओं में उकेरी गयी हैं। इनके विषय हैं भोग-विलास, आलिंगन, हास-परिहास आदि। इन मूर्तियों में स्त्री-पुरुषों के सांसारिक संबंधों का विभिन्न रूपों में अंकन है। कुछ मूर्तियाँ ऐसी भी हैं जिन्हें सामान्य दर्शकों की भाषा में अश्लील मूर्तियाँ कहा जा सकता है।
5. इस वर्ग में मानवेतर मूर्तियों का उल्लेख किया जा सकता है। इनमें विशेष उल्लेखनीय सर्प, ब्याल की मूर्तियाँ हैं । अनेक ऐसे कल्पित पशुओं का अंकन है जो सामान्यतः यथार्थ जगत मैं अनुपलब्ध हैं । इन मूर्तियों को दन्तकथाओं के आधार पर ही कलाकारों ने गढ़ा है। यह निश्चित रूप से कलाकारों की कल्पना शक्ति का ही प्रतीक है।
खजुराहो मूर्तिकला के प्रमुख उदाहरण
1. कन्डरिया महादेव मन्दिर-
खजुराहो के मंदिरों में यह मंदिर विशालतम एवं सर्वोत्तम है। शिव के सम्मान में समर्पित यह मंदिर कैलाश पर्वत का ही प्रतिरूप प्रतीत होता है। इस मंदिर में लगभग 900 मूर्तियाँ हैं जो पूर्णत: जीवंत रूप में प्रदर्शित हैं । ये मूर्तियाँ इतने सशक्त ढंग से बनी हैं कि प्रस्तर खण्डों को भी जीवन्त कर दिया। इनमें निर्दोष आनुपातिक सौंदर्य स्पष्ट दिखाई देता है।
2. पार्श्वनाथ मंदिर-
जैन मंदिरों में यह पवित्रतम मंदिर है, इनमें मूर्तियों का इतना आधिक्य है कि वास्तुकला और मूर्तिकला में कोई अनुपात नहीं दिखाई देता । इसे हम समकालीन कलाकारों द्वारा अपनाया गया नवीन प्रयोग मान सकते हैं।
3. चतुर्भुज मंदिर-
यह वैष्णव मंदिर का पवित्र उदाहरण है। इस मंदिर का गर्भगृह प्रदक्षिणापथ से आवृत्त है। इसकी उल्लेखनीय विशेषता है पिरामिड के आकार का शिखर जो सम्भवत: कहीं और नहीं दिखाई देता है।
खजुराहो चन्देल राजाओं की राजधानी थी। दुर्गम पर्वतों में स्थित होने के कारण ही यह मुस्लिम आक्रान्ताओं से सुरक्षित थी। यहाँ से ऐसे अनेक अभिलेख मिले हैं जिनकी तिथि 900-1000 ई0 के बीच है, किन्तु इन अभिलेखों में इन मंदिरों का कोई उल्लेख नहीं है। इसी कारण इन मंदिरों की तिथियाँ विवादास्पद हैं। अनुमानत: इन मंदिरों का निर्माण धंग अथवा विद्याधर के काल में हुआ। स्मिथ का मत है कि इनका निर्माण चन्देल शासकों के आदेशानुसार हुआ है। पर्सी ब्राउन का विचार है कि चंदेल शासकों ने मात्र इसे आश्रय दिया था, जब कि कलाकारों ने पूर्व प्रचलित वास्तु शैली की ही परंपरा के अनुसार पराकाष्ठा प्रदान की। यहाँ शैव, वैष्णव तथा जैन तीनों धर्मों से संबंधित मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं । यह चंदेलों की धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। फर्गुसन का विचार है कि ये मंदिर उस समय बने होंगे जब चन्देल राज्य में पूर्ण साम्प्रदायिक सामंजस्य रहा होगा। प्रतिद्वन्द्विता मात्र कलात्मक अभिव्यक्ति में रही होगी कि कौन कलाकार सर्वोत्तम कलाकृति प्रस्तुत करे।
निष्कर्ष
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि खजुराहो गुप्तोत्तरकालीन मूर्तिकार का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है? यहाँ की मूर्तियाँ अपने सौंदर्य तथा विषय की विविधता के लिए प्रख्यात है। सांस्कृतिक दृष्टि से इन मूर्तियों में राजपूतयुगीन विलासिता, सामन्तवादिता तथा तंत्रवाद का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है, साथ ही मूर्तिकला तथा वास्तुकला में अनोखा सामंजस्य भी दिखाई देता है। जिस तरह आभूषण विहीन देहयष्टि में सौंदर्य नहीं दिखाई देता ठीक उसी तरह मूर्तियों के बिना मंदिरों का भी कोई महत्व नहीं होता है । खजुराहो का महत्व यहाँ इस बात में है कि मंदिर और मूर्तियाँ अब दोनों ही अपने अक्षुण्ण रूप में विद्यमान हैं । यह मुस्लिम आक्रान्ताओं की पहुँच से परे रहीं। यही कारण है कि पूर्व मध्यकालीन भारतीय कला के विकास का अध्ययन करने में ये सहायक सिद्ध हुई, इनके द्वारा मूर्ति शिल्प के विकास पर अच्छा प्रकाश डाला जा सकता है। यह भारतीय मूर्तिकला के इतिहास का सुनहरा अध्याय तथा चन्देल राजाओं की सांस्कृतिक धरोहर है।
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