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प्लेटो का शिक्षा दर्शन (Plato’s Philosophy of Education)
प्लेटो का शिक्षा दर्शन सम्बन्धी विचार उसकी दो प्रमुख कृतियों ‘रिपब्लिक’ तथा ‘लॉज’ में प्रकट हुए हैं। अन्य संवादों में भी छिटपुट विचार मिलते हैं, किन्तु उपर्युक्त दो पुस्तकों में तो शिक्षा पर विशद् विवेचन किया गया है। शिक्षा के इतिहास की दृष्टि से ‘रिपब्लिक’ शिक्षा-सम्बन्धी विचारों पर संसार में सबसे पहली पुस्तक है।
रूसो के मतानुसार “प्लेटो का रिपब्लिक राजनीति का ग्रन्थ नहीं बल्कि शिक्षा के विषय पर आज तक का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है।” प्लेटो के सामने भी समस्या थी कि लोग राजनीतिक क्षेत्रों में निजी लाभ की मंशा से ही कदम रखते थे और उसके फलस्वरूप पद प्राप्ति के लिए संघर्ष होते हैं जो बढ़ कर युद्ध का रूप धारण कर लेते हैं। उसे इस स्थिति का अन्त कर निःस्वार्थ शासन और नागरिक सामंजस्य की स्थापना अभीष्ट थी। प्लेटो ने भी अपनी नूतन समाज रचना में शिक्षा को ही सर्वश्रेष्ठ साधन माना है। उनका कहना है कि श्रेष्ठ शिक्षा सुरक्षा का सबसे बड़ा साधन होगी। यदि व्यक्तियों को अच्छी शिक्षा मिल जाए तो वे एक-दूसरे की समस्या का हल आसानी से कर सकते हैं।
‘रिपब्लिक’ में संवाद की विद्या अपनाई गई है जिसमें प्रमुख वक्ता सुकरात हैं । यह संवाद एक अवकाश प्राप्त धनी व्यापारी सेफलस के घर पर होता है। संवाद में भाग लेने वाले प्रमुख पात्र हैं— सेफुलस का पुत्र पोलेकार्कस, प्लेटो के दो अग्रज ग्लाकन और एडीमेण्टस तथा थ्रेसीमेकस नामक एक सोफिस्ट । प्लेटो ने राज्य के शासकों को संरक्षक कहा है। संरक्षकों की शिक्षा पर ‘रिपब्लिक’ में विस्तार से विचार किया गया है। बानगी लीजिए-
(सुकरात) “तो आईए। हम अपने काल्पनिक नागरिकों को शिक्षित करने में अपना समय लें।”
(एडीमेन्ट्स) हाँ, चलिए, ऐसा ही करें।
(सुकरात) तो यह शिक्षा कैसी होनी है ? शायद हम लोग लम्बे अनुभव से प्राप्त उस प्रणाली से अच्छी प्रणाली नहीं खोज पायेंगे जिसमें शरीर और मस्तिष्क के प्रशिक्षण की दो शाखाएँ हैं और मैं मानता हूँ कि हम शारीरिक प्रशिक्षण से पूर्ण मस्तिष्क के प्रशिक्षण से प्रारम्भ करेंगे।
(एडीमेन्ट्स) स्वभावतः, अवश्य।
(सुकरात) उस शीर्षक के अन्तर्गत कहानियाँ आयेंगी, इनमें दो प्रकार की कहानियाँ होंगी, है कुछ सच, कुछ काल्पनिक दोनों को आना है पर हम काल्पनिक कहानियों से प्रारम्भ करेंगे ।
(एडीमेन्ट्स) मैं समझ नहीं पा रहा।
(सुकरात) तुम नहीं समझ पा रहे हो.. कहानी – कथन प्रारम्भ हो जाना चाहिए। .. सुनो, शारीरिक प्रशिक्षण से पूर्वकाल में
(एडीमेन्ट्स) आप ठीक कह रहे हैं।
(सुकरात………. हमारा प्रथम कार्य कहानी-निर्माण का पर्यवेक्षण करना है….हम धात्रियों एवं माताओं से उन कहानियों को कहने को कहेंगे जिन्हें हम स्वीकृत करेंगे।…… सबसे बड़ा दोष यह है कि कहानी भद्दी, अनैतिक और झूठी हों जिनमें नायकों और देवताओं के युद्धों को स्वीकार नहीं किया गया हो……। हमारे राज्य में होमर महाकाव्य में वर्णित देवताओं के युद्ध को स्वीकार नहीं किया जायेगा । .. हम दोनों कवि नहीं हैं, अत: कहानी गढ़ना काम नहीं है किन्तु हमें उस रूपरेखा को स्पष्ट करना है जिनका अनुसरण रचनाकार करेंगे और उन सीमाओं का निर्धारण करना है जिनके आगे जाने की उन्हें अनुमति नहीं होगी ।………एक रचनाकार चाहे महाकाव्य, गीतिकाव्य या नाटक कुछ भी लिख रहा हो, उसे दैवी प्रकृति को सही ढंग से प्रस्तुत करना । सत्य यह है कि प्रकृति अच्छी है और इसे इसी प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए। अच्छाई या शिवम् सभी चीजों के लिए उत्तरदायी नहीं है। ……. .. यह बुराई के प्रति उत्तरदायी नहीं ।
(एडीमेण्ड्स) बिल्कुल ठीक।
(सुकरात) सभी को अपनी वाणी और लेखनी में इस एक सिद्धान्त पर पहले सहमत होना चाहिए कि स्वर्ग सभी बातों के लिए उत्तरदायी न होकर केवल भद्र या अच्छाई के लिए उत्तरदायी है । ………. ..यदि संरक्षक एक-दूसरे के प्रति सभ्य, नम्र और मानवीय है तो समझ लेना चाहिए कि उन्हें सही शिक्षा मिली है।
(ग्लाकन) सही बात है।
‘रिपब्लिक’ पहले लिखी गयी और ‘लॉज’ बाद में। दोनों पुस्तकों को पढ़ने से यह विदित होता है कि प्लेटो के शिक्षा-सम्बन्धी विचारों में एकरूपता नहीं है। ‘रिपब्लिक’ में वह नितान्त आदर्शवादी होकर हमारे समक्ष आता है और स्पष्ट घोषणा करता है कि अज्ञानता ही सारी बुराइयों की जड़ है, किन्तु ‘लॉज’ में वह अज्ञानता को इतना बुरा नहीं मानता। ‘रिपब्लिक’ की रचना प्लेटो ने अपने यौवनकाल में की थी, ‘लॉज’ वृद्धावस्था में रची गई पुस्तक है ज्यों-ज्यों प्लेटो के विचार परिपक्व होते गये, त्यों-त्यों वह शिक्षा-सम्बन्धी विचारों में परिवर्तन करता गया । किन्तु अपने सभी संवादों में प्लेटो शिक्षा की क्षमता को स्वीकार करता है और वह समाज के कल्याण का आधार शिक्षा की क्षमता को स्वीकार करता है और वह समाज के कल्याण का आधार शिक्षा को ही बताता है।
शिक्षा का अर्थ–प्लेटो ने शिक्षा को नैतिक प्रशिक्षण की एक प्रक्रिया माना है। क्या नैतिकता की शिक्षा दी जा सकती है ? दूसरे शब्दों में, क्या सद्गुण को सिखाया जा सकता है ? इस प्रश्न ने प्राचीन यूनान के सभी प्रमुख दार्शनिकों का ध्यान आकृष्ट किया था । सुकरात ने सद्गुण को ज्ञान के रूप में देखा। उसके अनुसार ज्ञान ही सद्गुण है। प्लेटो ने सुकरात के विचारों को आगे बढ़ाते हुए ज्ञान और सद्गुण में भेद किया। प्लेटो के विचार से भेद में निम्नलिखित चार अंश सम्मिलित हैं-
1. दर्शन- सम्बन्धी ज्ञान,
2. विज्ञान,
3. ललित कला,
4. बुद्धि द्वारा निर्दोष समझी जाने वाली श्रेष्ठ तृप्ति।
सद्गुण के सम्बन्ध में विचार करते हुए प्लेटो कहता है कि प्रमुख सद्गुण चार हैं बुद्धिमत्ता, साहस, संयम और न्याय । यूनानियों की दृष्टि में अच्छा आदमी अच्छा नागरिक होता है । शिक्षा का कार्य अच्छे राष्ट्र का लिए अच्छे नागरिक तैयार करना है। राष्ट्र में कम से कम तीन वर्ग होने चाहिए—एक तो राष्ट्र के संरक्षक होना चाहिए, दूसरे, उन संरक्षकों के सहायक सैनिक होने चाहिए और संरक्षकों एवं सैनिकों के अतिरिक्त सम्पत्ति का उत्पादक वर्ग भी होना चाहिए। प्रत्येक वर्ग को अपना निश्चित कार्य करना चाहिए कि इस प्रकार की व्यवस्था हो कि प्रत्येक वर्ग अपना कार्य करे और दूसरे वर्ग को अपना कार्य करने दे । . प्लेटो ने इस व्यवस्था को ‘सामाजिक न्याय’ कहा है। सामाजिक न्याय की स्थापना जिस प्रक्रिया द्वारा की जाती है वह शिक्षा ही है। जो गुण समाज के लिए आवश्यक है, वही व्यक्ति के लिए भी आवश्यक है । प्रत्येक व्यक्ति में इन चारों गुणों का सन्तुलित विकास होना चाहिए। सामाजिक न्याय की व्याख्या करते हुए प्लेटो कहता है कि राष्ट्र के अन्य दो वर्गों को संरक्षकों के अधीन रहना चाहिए। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति में बुद्धि का शासन होना चाहिए। व्यक्ति के जीवन में यही न्याय है।
नवीन काल में प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक शापनहार ने प्लेटो की इस सूची का विरोध किया है। वह कहता है कि बुद्धिमता और साहस जीवन के लिए आवश्यक तो हैं, किन्तु इन्हें सद्गुण का पद नहीं दिया जा सकता। बहुत से बुद्धिमान एवं साहसी व्यक्ति अपनी बुद्धि अथवा साहस का दुरुपयोग करते हैं। संयम का पथ भी निश्चित नहीं है। जो पथ मेरे लिए संयम का है, वह अत्यधिक शीत-प्रधान टुण्ड्रावासी के लिए संयम का पथ नहीं हो सकता।
कुछ भी हो, प्लेटो स्पष्ट रूप से कहता है कि बुद्धिमता, साहस, संयम एवं न्याय मौलिक सद्गुण हैं एवं इनमें प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया ही शिक्षा है। अपनी अन्तिम पुस्तक ‘राजनियम’ (लॉज) में कहता है “शिक्षा से मेरा अभिप्राय उस प्रशिक्षण से है जो शिशुओं में उचित आदतों के निर्माण के द्वारा सद्गुणों को उत्पन्न करता है । इस प्रशिक्षण से हमें यह योग्यता प्राप्त हो जाती है कि हम उस वस्तु से सदा घृणा करें, जिससे हमें घृणा करनी चाहिए और उस वस्तु से प्रेम करें, जिससे वास्तव में प्रेम करना चाहिए। मेरी दृष्टि में इसके प्रशिक्षण को ठीक ही शिक्षा कहा है।’
प्लेटो के अनुसार संयम तथा साहस का विकास अभ्यास से होता है। ये दोनों गुण आदतजन्य है। प्रारम्भिक जीवन के उचित नियन्त्रण से ही आदत तथा अभ्यास सम्भव है। आदत एवं अभ्यास के ही आधार पर वाद बुद्धि-तत्त्व विकसित होता है। इसी बुद्धि तत्त्व पर बुद्धिमत्ता एवं न्याय के सद्गुण आधारित हैं। शिक्षा के द्वारा इन्हीं सद्गुणों का विकास किया जाता है।
शिक्षा के कार्य तथा उद्देश्य- प्लेटो का कहना है कि शिक्षा समूचे दृष्टिकोण बदलकर बुराई की जड़ को दूर की करने की चेष्टा है। इसके अनुसार शिक्षा से अर्थ है आत्मा को उस परिवेश में ले जाना जो उसके विकास की हर अवस्था में उसके उन्नयन में सबसे अनुकूल हो। प्लेटो व अन्य यूनानियों की धारणा है कि शिक्षा व्यक्ति में सामाजिक चेतना लाती है व उसे समाज की सब माँगों को पूरा करना सिखाती है। शिक्षा सामाजिक नीति परायणता का पथ प्रशस्त करती है। इसलिए प्लेटो के राज्य में शिक्षा मंत्री के पद को सबसे ऊँचा माना गया था । प्लेटो का कहना है कि यदि व्यक्ति समुचित शिक्षा व प्रतिभा से सम्पन्न हो तो वह प्राणी जगत में सबसे सभ्य व दिव्य बन जाता है और यदि उसका शिक्षण उचि रीति का नहीं है तो वह सारे प्राणियों में अधिक निम्न स्तर का हो जाता है।
प्लेटो ने शिक्षा को समूची सृष्टि की प्रक्रिया का एक आवश्यक कार्य माना है। शिक्षा की असीम शक्ति को प्लेटो स्वीकार करता है। प्लेटो के अनुसार शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. शिक्षा का प्रथम प्रयोजन राज्य की एकता की रक्षा करना है । सोफिस्टों ने यूनान में व्यक्तिवाद को प्रमुखता दी थी। प्लेटो ने व्यक्ति एवं राज्य के सम्बन्ध का सुन्दर दार्शनिक विवेचन किया और स्पष्ट किया कि व्यक्ति राज्य के लिए है। इकाई का अस्तित्व पूर्ण के लिए होता है। राज्य की स्थिति पूर्णता की है। अतः व्यक्ति को राज्य की वेदी पर अपने स्वार्थों को निछावर करने को तैयार रहना चाहिए। अतः शिक्षा का यह प्रमुख कार्य है कि वह बालकों में सहयोग की भावना उत्पन्न करे, समुदाय के प्रति विश्वास जागेगा एवं भ्रातृत्व के भाव का विकास करे। इससे यह विदित होता है कि प्लेटो एथेन्स से अधिक स्पार्टा की ओर झुका हुआ था, किन्तु प्लेटो के समाजवाद में शिव निहित था तथा बुद्धि-तत्त्व प्रमुख था, जबकि स्पार्टा के समाजवाद में इनका अभाव था।
2. शिक्षा का द्वितीय उद्देश्य नागरिकता के गुणों का विकास करना है। अच्छे राष्ट्र के निर्माण के लिए अच्छे नागरिकों की आवश्यकता होती है। अतः अच्छे नागरिक के गुणों का विकास करना शिक्षा का एक मुख्य कार्य है। इस दिशा में कार्य करने के लिए युवकों में संयम, साहस एवं सौनिक कुशलता प्रदान करना चाहिए ।
3. सुकरात ने कहा था कि सद्गुण के विकास के लिए ज्ञान आवश्यक है, प्लेटो ने बुद्धिमता को सद्गुण का पद दिया है। प्लेटो के अनुसार विवेक ही सामाजिक व्यवस्था की नींव है। यह विवेक प्रत्येक शिशु में सुप्तावस्था में विद्यमान रहता है । अतः शिक्षा का एक यह भी उद्देश्य है कि इस गुप्त विवेक को जाग्रत किया जाय। विवेक से ही जीवन नियन्त्रित हो सकता है। जब तक विवेक जाग्रत न हो जाय तब तक शिशु को बड़ों के ही नियन्त्रण में रखा जाय ।
4. शिक्षा के चौथे उद्देश्य के रूप में सत्यम्, शिवम् एवं सुन्दरम् के प्रति आस्था उत्पन्न करना है। जन्म के समय शिशु इन्द्रियों का दास होता है। धीरे-धीरे उसमें सत्यं शिवं एवं सुन्दरं के प्रति प्रेम उत्पन्न करना चाहिए ।
5. प्लेटो के अनुसार जीवन में अनेकानेक विरोधी तत्त्व विद्यमान रहते हैं। इन विरोधी तत्त्वों को पहचानना एवं इनमें सन्तुलन स्थापित करना शिक्षा का एक प्रमुख कार्य है।
6. शिक्षा को अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण भी करना है। अच्छा व्यक्तित्व सन्तुलित होता है तथा वह ‘स्व’ के नियन्त्रण में रहता है। स्वनियन्त्रित व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों के अनुकूल आचरण करने की योग्यता रखता है। सामंजन की यह योग्यता शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है।
7. प्लेटो सामाजिक वर्गों का पक्षपाती था। उसके अनुसार समाज में तीन वर्ग मुख्य हैं। एक वर्ग संरक्षकों का है, दूसरा सैनिकों का तथा तीसरा व्यवसायियों का । यूनानी समाज में उस समय दास-प्रथा प्रचलित थी और यूनान में अनेक दास विद्यमान थे। प्लेटो ने इन दासों की स्थिति को यथावत् स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार प्राचीन भारतीय समाज की भाँति प्लेटो भी चार वर्णों में विश्वास करता था। भारतीय एवं प्लेटो की विचारधाराओं के इस अद्भुत साम्य के विषय में कुछ लोगों का कहना है कि प्लेटो भारत आया था और उसके विचारों पर भारतीय वर्ण व्यवस्था की छाप पड़ी थी। प्लेटो के अनुसार शिक्षा का कार्य प्रत्येक व्यक्ति को इस योग्य बनाना है कि वह अपने अनुकूल सामाजिक वर्ग का सक्षम सदस्य बन सके।
8. शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य मानव शिशु को मानव बनाना है। उसमें मानवता के गुणों का विकास करना है।
पाठ्यक्रम — प्लेटो ने पाठ्यक्रम की रूपरेखा निर्धारित करने में बालक की क्रियाओं का ध्यान रखा है। पाश्चात्य शिक्षा के इतिहास में प्लेटो ही प्रथम व्यक्ति था जिसने पाठ्यक्रम पर कुछ व्यवस्थित विचार प्रकट किये।
प्लेटो के अनुसार जीवन के प्रथम 10 वर्षों में छात्रों को अंकगणित, रेखागणित, संगीत तथा नक्षत्र विद्या की कुछ बातें सिखानी चाहिए। अंकगणित तथा रेखागणित आदि का अध्ययन गिनती करना सीखने के लिए ही नहीं वरन् इन विषयों में निहित शाश्वत् सम्बन्धों को जानने के लिए करना चाहिए।
माध्यमिक स्तर के छात्रों के लिए कविता, गणित, खेल-कूद, कसरत, सैनिक प्रशिक्षण, शिष्टाचार, संगीत तथा धर्मशास्त्र आदि की शिक्षा का विधान होना चाहिए। प्लेटो के विचार में तत्कालीन यूनानी समाज में खेल-कूद की शिक्षा अनुपयुक्त हो गई थी । प्लेटो के अनुसार खेल-कूद की शिक्षा का उद्देश्य प्रतियोगिताओं में भाग लेना न होकर मनोरंजन तथा शारीरिक गठन की प्राप्ति होना चाहिए। इससे आत्मा का उन्नयन भी सम्भव है।
प्लेटो के शिक्षा-क्रम में कसरत, नृत्य तथा खेल-कूद का स्थान बड़ा ऊँचा था । ये तीनों ऐसी शिक्षा में पहले से ही विद्यमान थे। प्लेटो ने भी इन्हें उपयुक्त समझा कसरत तथा खेल-कूद से शारीरिक सौन्दर्य बढ़ता है। किन्तु कसरत तथा खेल-कूद आत्मा को भी प्रभावित करते हैं। संगीत और कसरत का यदि संयोग कर दिया जाय तो व्यक्तित्व का चतुर्मुखी विकास होता है। कसरत विहीन संगीतज्ञ कायर होगा, जबकि संगीत विहीन कसरती पहलवान आक्रामक पशु हो जायेगा। प्लेटो ने नृत्य की शिक्षा पर भी बल दिया है। नृत्य को उसने कसरत का ही एक अंग माना है । नृत्य युद्धकाल और शान्तिकाल दोनों के लिए उपयोगी है।
प्लेटो ने काव्य तथा साहित्य की शिक्षा पर भी बल दिया है। काव्य को उसने बौद्धिक जीवन का मूल स्रोत माना है। गणित का भी वह समर्थक था । आदर्श प्रत्यय ईश्वर की प्राप्ति के लिए तर्क आवश्यक है । इसका ज्ञान हमें गणित से प्राप्त होता है। गणित व्यावहारिक, सैनिक, राजनीतिक तथा कलात्मक जीवन के लिए आवश्यक है।
प्लेटो के पाठ्यक्रम में दर्शन (Dialectic) का स्थान सर्वप्रमुख था । इसका अध्ययन उच्च श्रेणी के विद्यार्थी करें—ऐसा उसका प्रस्ताव था । उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में नीतिशास्त्र, दर्शन, मनोविज्ञान, अध्यात्मशास्त्र, प्रशासन, कानून की शिक्षा को स्थान मिलना चाहिए । प्लेटो ने ‘डाइलेक्टिक’ शब्द का प्रयोग वस्तुतः इन सभी विषयों के सम्मिलित ज्ञान के लिए किया है । डाइलेक्टिक में ये सभी विषय सम्मिलित हैं। ‘डाइलेक्टिक’ का अध्ययन सत्य की खोज के लिए होता है।
शिक्षा के विभिन्न स्तर — प्लेटो ने मानव के शारीरिक एवं मानसिक विकास के आधार पर भिन्न प्रकार की शिक्षा का समर्थन किया है। प्लेटो के अनुसार विभिन्न स्तरों के लिए निम्नलिखित ढंग से शिक्षा होनी चाहिए-
1. शैशव-काल- जन्म से 3 वर्ष तक की अवधि शैशव-काल है। इस काल में उसे पुष्टिकारक भोजन मिलना चाहिए। उसका लालन-पालन ठीक से होना चाहिए।
2. नर्सरी – यह समय 3 से 6 वर्ष की अवस्था का है। इस काल में शिक्षा प्रारम्भ कर देनी चाहिए । शिक्षा की दृष्टि से यह काल बड़ा महत्त्वपूर्ण है। इस काल में खेल-कूद, परियों की कहानियों और सामान्य मनोरंजन की शिक्षा देनी चाहिए ।
3. प्रारम्भिक विद्यालय का स्तर – बालकों की स्कूली शिक्षा इसी स्तर से प्रारम्भ होनी चाहिए। यह स्तर 6 वर्ष की आयु से 13 वर्ष की आयु तक की है। बालक तथा बालिकाओं की शिक्षा अलग-अलग होगी। ये छात्र राज्य द्वारा संचालित शिविरों में रखे जाने चाहिए। इस अवस्था में शिक्षा के दो कार्य हैं—एक तो बालकों व बालिकाओं की अनियन्त्रित क्रियाओं को नियन्त्रित करना, दूसरे, उनमें सामंजस्य स्थापित करना । इसके लिए संगीत, नृत्य तथा काव्य की शिक्षा दी जानी चाहिए ।
4. माध्यमिक शिक्षा- यह काल 13 से 16 वर्ष की अवधि का है। ‘रिपब्लिक’ के अनुसार प्रारम्भिक स्तर पर ही अक्षर ज्ञान प्रारम्भ कर देना चाहिए, किन्तु ‘राजनियम’ (लॉज) के अनुसार अक्षरों की शिक्षा को 13 वर्ष की अवस्था पर प्रारम्भ करना चाहिए। 13 से 16 वर्ष की अवस्था में गायन एवं वादन पर बल देना चाहिए, धार्मिक श्लोकों का गायन, कविता-पाठ तथा गणित के सिद्धान्तों की शिक्षा इस स्तर पर विशेष महत्त्व रखता है।
5. जिमनैस्टिक काल— यह काल 16 से 20 वर्ष की अवस्था का काल है। यह काल दो भागों में विभक्त रहना चाहिए-
(क) 16-18 वर्ष की अवस्था का काल और
(ख) 18-20 वर्ष की आयु का समय
पहली अवधि से शरीर को सबल बनाने के लिए भाँति-भाँति के शारीरिक व्यायाम करने चाहिए। यह सैनिक प्रशिक्षण की पृष्टभूमि है और आगे की अवधि अर्थात् 18-20 वर्ष की अवधि पूरी तरह से सैनिक प्रशिक्षण में लगानी चाहिए। दूसरी अवधि में छात्रों को घुड़सवारी, शस्त्र-संचालन, सैन्य संचालन, व्यूह रचना आदि की शिक्षा मिलनी चाहिए।
6. उच्च शिक्षा — उच्च शिक्षा की अवधि 20 से 30 वर्ष की अवस्था तक होगी। इस शिक्षा को ग्रहण करने की पात्रता सिद्ध करना प्रत्येक छात्र के लिए आवश्यक है। 20 वर्ष की अवस्था में छात्रों के ज्ञान की जाँच होनी चाहिए। जाँच में जो छात्र उत्तीर्ण हों, वे ही उच्च शिक्षा के अधिकारी समझे जाएँ। इस काल में युवकों को अंकगणित, रेखागणित, संगीत, नक्षत्र-विद्या आदि वैज्ञानिक विषयों का ज्ञान कराना चाहिए। इस काल में युवकों में विज्ञान को व्यवस्थित करने की क्षमता प्रदान करनी है।
7. उच्चतम शिक्षा – 30 वर्ष की अवस्था में पुनः चुनाव होगा । 30 वर्ष की अवस्था में उच्च शिक्षा प्राप्त युवकों की परीक्षा ली जायेगी और उत्तीर्ण युवक 5 वर्ष तक अग्रिम अध्ययन करेंगे। जो युवक अनुर्तीण हो जायेंगे, वे शासन में कनिष्ठ अधिकारी होंगे । उत्तीर्ण युवक 5 वर्ष तक ‘डाइलेक्टिक’ का अध्ययन करेंगे। ‘डाइलेक्टिक’ के अध्ययन से युवक सच्चे ज्ञान को प्राप्त करेंगे और वे सत्य का दर्शन करने में समर्थ होंगे। सत्य के ज्ञान से युवकों में सद्गुण उत्पन्न होगा। 35 वर्ष की आयु में ये ‘फिलासफर’ (दार्शनिक) अर्थात् ज्ञान-प्रेमी हो जायेंगे । अब ये दार्शनिक 35 वर्ष की अवस्था में समाज में लौटेंगे और समाज के हितों के संरक्षक बनेंगे। 15 वर्ष तक ये दार्शनिक समाज के संरक्षक के रूप में प्रशिक्षित होंगे और उन्हें व्यावहारिक अनुभव प्राप्त होगा। 50 वर्ष की अवस्था में वे पदमुक्त हो सकते हैं और पद से निवृत्त होने के पश्चात् वे अपना जीवन चिन्तन, मनन एवं ध्यान में लगायेंगे तथा शिवम् का जीवन व्यतीत करेंगे।
शिक्षण-विधि (Method of Teaching)— जहाँ तक शिक्षण विधि का प्रश्न है, प्लेटो ने अपने गुरु सुकरात की विधि को ही स्वीकृत किया । यह विधि वार्तालाप की अथवा विधि में विषय के अनेक पक्ष स्पष्ट हो जाते हैं और भाग लेने वाले व्यक्तियों को डाइलेक्टिक की विधि थी । प्लेटो ने वार्तालाप की विधि को ही सर्वश्रेष्ठ माना । वस्तुतः इस आत्माभिव्यक्ति का अवसर मिल जाता है । इस विधि का एक उदाहरण लीजिए| वार्तालाप या संवाद या डाइलेक्टिक शिक्षण-विधि का एक उदाहरण लीजिए-
(शिक्षक) पुरुष और स्त्री संरक्षकों के सभी कार्य समान होंगे इन संरक्षकों में से कोई भी निजी तौर पर अपना घर नहीं बसाएगा। सभी की पत्नियाँ और बच्चे समान होंगे और किसी भी माता-पिता को अपने बच्चों का या बच्चे को माता-पिता का ज्ञान नहीं होगा।
(छात्र) लोगों को यह समझाना कठिन होगा कि यह एक सम्भव और अच्छी योजना है।
(शिक्षक) मैं सोचता हूँ कि जहाँ तक इसके अच्छे होने का प्रश्न है समान पलियों और बच्चों के प्रचुर लाभ से कोई इन्कार नहीं करेगा, यदि यह किया जा सके। केवल इस प्रश्न का विवाद हो सकता है कि यह सम्भव भी है या नहीं।
(छात्र) दोनों बातों पर बड़ा विवाद हो सकता है।
(शिक्षक) आपका मतलब है कि मैं दो मोर्चों पर आक्रमण झेलूँ । मैं एक से पलायन करने की आशा कर रहा था, यदि आप सहमत होते कि यह अच्छी योजना है, तब मुझे केवल यह पता लगाना पड़ता कि यह सम्भव है कि नहीं ।
(छात्र) नहीं, हम यह सुनियोजित चाल समझ गये हैं। आपको दानों बातों का प्रतिवाद करना है ।
(शिक्षक) अच्छा, मुझे अपनी कायरता का दण्ड देना है। लेकिन मुझ पर एक कृपा करिए। मुझे कल्पना करने दीजिए इस समय हम आपकी आज्ञा से यह मान ले रहे हैं कि यह सम्भव है और यह पूछेंगे कि शासकगण इसे व्यवहार में कैसे लायेंगे। यदि आप दूसरे प्रश्न को स्थगित करने की अनुमति दें तो आपकी सहायता से स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा ।
(छात्र) बहुत अच्छा; हमें कोई आपत्ति नहीं है । ‘रिपब्लिक’ में इसी प्रकार यह संवाद चलता है और निष्कर्ष निकाला जाता है कि यह योजना अच्छी और सम्भव है।
शैक्षिक प्रशासन (Educational Administration)- प्लेटो के समय में एथेन्स की शिक्षा परिवार द्वारा प्रबन्धित थी। जबकि स्पार्टा में शिक्षा पर राज्य का नियन्त्रण था। एथेन्स की उस समय अवनति हो रही थी और प्लेटो ने इस अवनति का कारण शैक्षिक प्रशासन को भी बताया। प्लेटो ने शिक्षा को राज्य का अनिवार्य कर्त्तव्य माना है। एथेन्स पर स्पाट । ने विजय प्राप्त की एथेन्स की हार से व्यथित प्लेटो ने कहा- शिक्षा पूर्णतः राज्य के नियन्त्रण में होनी चाहिए। सभी बच्चे राज्य की सम्पत्ति हैं, किसी परिवार की नहीं । अतः जन्म के समय शिशुओं को उनके माता-पिता से अलग करके राज्य द्वारा नियन्त्रित किसी शिशुशाला में रखा जाय और बालकों एवं बालिकाओं को सार्वजनिक सरकारी स्कूलों में शिक्षा दी जाय । राज्य के सभी बच्चे शिक्षा प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हैं, केवल प्रतिभाशाली बालक ही शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा के व्यय का सारा भार राज्य पर होगा।
स्त्री-शिक्षा (Women Education)— प्लेटो ने स्त्री के महत्त्व को स्वीकार करते हुए बताया है कि पुरुष और स्त्री में कोई मौलिक भेद नहीं है। जो कार्य पुरुष कर सकते हैं, वे कार्य स्त्रियाँ भी कर सकती हैं यह बात दूसरी है कि पुरुष अधिक बलवान होते हैं और स्त्रियों से कुछ शक्तिशाली पड़ते हैं। पर ये भेद गुण का न होकर मात्रा का है। अतः स्त्रियों और पुरुषों को एक-सी शिक्षा मिलनी चाहिए। खेल-कूद, व्यायाम, घुड़सवारी, सैन्य-संचालन आदि की शिक्षा केवल पुरुषों को ही नहीं, वरन् स्त्रियों को भी मिलनी चाहिए।
प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में पुरुषों और नारियों की समानता पर विस्तार से विचार किया है। सुकरात और ग्लाकन के मध्य विस्तार से संवाद होता है। निष्कर्ष ये निकाला जाता है कि जो अन्तोगत्वा, सामाजिक मामलों के प्रबन्ध से सम्बद्ध कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो केवल पुरुष या केवल स्त्री से सम्बद्ध हो। दोनों में यत्र-तत्र प्राकृतिक देन पाई जाती है और प्रत्येक कार्य को दोनों स्त्री और पुरुष सम्भवतः कर सकते हैं। यद्यपि सभी दृष्टियों से नारी दुर्बल होती हैं। ……. एक स्त्री में चिकित्सा और संगीत की प्राकृतिक प्रतिभा हो सकती है, तो दूसरी में सम्भवतः यह न हो ।……..क्या यह सोचना सही नहीं है कि स्त्री योद्धा या खिलाड़ी हो सकती है ?…… और फिर एक ज्ञान से प्रेम कर सकती है तो दूसरी इससे घृणा कर सकती है……… अतः इस प्रकार की उपयुक्त स्त्री को संरक्षक के दायित्वों को निभाने में पुरुषों के साथ अवश्य चुना जाना चाहिए।”
व्यावसायिक एवं प्राविधिकी शिक्षा (Vocational and Technical Education)- प्लेटो ने व्यावसायिक एवं प्राविधिक शिक्षा को कोई महत्त्व नहीं दिया । प्लेटो की दृष्टि से धौलोक की ओर थी, अतः उसकी दृष्टि में चिन्तन के विषय ही अधिक महत्त्वपूर्ण थे। हाथ के काम की ओर उस समय यूनान के प्रत्येक विचारक उदासीन थे। प्लेटो भी इस ओर से उदासीन था । वह समझता था कि भद्र पुरुष के लिए हाथ का कार्य निन्दनीय है। अतः उसने लॉज में यहाँ तक कह डाला था कि यदि कोई नागरिक अध्ययन के अतिरिक्त किसी अन्य कला की ओर उन्मुख होता है तो उसे दण्ड दिया जाय।
दासों की शिक्षा (Education of Slaves) – प्राचीन यूनान में दासों की संख्या बहुत अधिक थी और उनके अस्तित्व को प्लेटो ने स्वीकार किया था। प्लेटो ने दासों को नागरिक नहीं माना। उसके अनुसार दास राज्य के नागरिक नहीं हो सकते और न वे राज्य के किसी सार्वजनिक कार्य में भाग ले सकते हैं। अतः प्लेटो ने दासों को शिक्षा से भी विमुख रखा । दासों के लिए उसने कहा कि उन्हें अपने परिवार का पेशा अपनाना चाहिए और घरेलू कामों में ही लगे रहना चाहिए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्लेटो ने शिक्षा पर बड़े विस्तार से विचार किया है। उसके व्यक्तित्व में यूनान की विद्वता का चरमोत्कर्ष मिलता है । स्थूल और सूक्ष्म का जिस सुन्दर ढंग से उसने समन्वय किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उसने शिक्षा का जो रूप प्रस्तुत किया, वह आदर्शवादी शिक्षा का प्रमुखतम रूप है।
प्लेटो की शिक्षा-योजना में कुछ दोष भी समझ पड़ते हैं। उसके आलोचकों ने जिन बातों के लिए उसकी आलोचना की है, उनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं-
1. प्लेटो का मनोविज्ञान का ज्ञान दोषपूर्ण था। उसने व्यक्तित्व को तीन वर्गों में रखा, जो आधुनिक खोजों के विपरीत है।
2. उसके सिद्धान्त प्रजातन्त्रात्मक सिद्धान्तों से मेल नहीं खाते।
3. उसने दास प्रथा के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं कहा, उलटे उसने इसे मान्यता प्रदान की।
4. उसने व्यसायिक एवं प्राविधिक शिक्षा की उपेक्षा की।
5. उसने अपने सिद्धान्तों के व्यावहारिक पक्ष की ओर कम ध्यान दिया।
इन दोषों के होते हुए भी प्लेटो के सिद्धान्त उच्च कोटि के थे। वह प्रथम व्यक्ति था जिसने शिक्षा पर विधिवत् विचार किया और शिक्षा की एक योजना प्रस्तुत की। उसका आदर्शवाद कोरा सिद्धान्त नहीं है । उदार शिक्षा की रूपरेखा निश्चित करने में आज भी लोग प्लेटो के सिद्धान्तों का आश्रय लेते हैं। उसने स्त्री-शिक्षा के विषय में जो विचार व्यक्त किये, वे विचार आज दो हजार तीन सौ वर्ष बाद भी नवीन लगते हैं। उसके सिद्धान्तों में जीवन के शाश्वत मूल्यों की झलक मिलती है।