अनुक्रम (Contents)
फ्रोबेल का परिचय (Introduction of Froebel)
फ्रेडरिक विलियम, ऑगस्ट फ्रोबेल का जन्म जर्मनी में 21 अप्रैल, सन् 1782 ई० में हुआ था। फ्रोबेल का बाल्यकाल बड़ा उपेक्षामय बीता । उसकी माता का 9 माह की आयु में ही देहान्त हो गया और उसके पिता ने उसकी सदैव उपेक्षा की । बहुत शीघ्र ही पिता के उपेक्षामय सम्बन्धों का स्थान विमाता के भावनाहीन घृणामय सम्बन्धों ने ले लिया । उसके पिता ने जो कि एक पादरी थे शीघ्र ही दूसरा विवाह कर लिया। उसके पिता पादरी होने के कारण सदैव अपने काम में व्यस्त रहा करते। इससे एक लाभ भी था कि फ्रोबेल के घर का वातावरण धार्मिक हो गया और सम्भवतः यहीं पर उसके जीवन पर धर्म की छाप पड़ती चली गयी।
फ्रोबेल का बचपन बड़ा कष्टमय बीता। घर के वातावरण की विमुखता ने उसे आत्मनिष्ठ भी बना दिया था। फलतः उसने प्रकृति की गोद में शरण ली । प्रारम्भ से ही इसी का फल यह भी हुआ कि उसे अन्तर्दर्शन की भी आदत बन गयी। जड़ प्रकृति में भी उसे अपना स्वरूप दिखाई पड़ने लगा। यही अनुभव आगे चलकर उसके ” अनेकता में एकता’ के सिद्धान्त का रूप बनता है।
सन् 1799 ई० में फ्रोबेल अपने भाई से मिलने के लिए जेना-विश्वविद्यालय में पहुँचा । विश्वविद्यालय के बौद्धिक एवं साहित्यिक वातावरण में उसे कुछ रुचि जगी। अतः उसने अपना नाम भी वहाँ लिखा लिया। किन्तु उस अति बौद्धिक दार्शनिक वातावरण में वह उस ‘एकता’ को नहीं पा सका, अभाव के कारण एवं 30 शिलिंग के ऋण भार के कारण उसे नौ सप्ताह का कारावास भी झेलना पड़ा। वह पुनः घर लौट आया, यहाँ से उसे कृषि कार्य सीखने भेजा गया, किन्तु पिता के बीमार होने के कारण उसे वापस आना पड़ा। सन् 1802 में उसके पिता का देहावसान हो गया।
पिता के देहान्त हो जाने के बाद उसे पूर्णतः आत्मनिर्भर होना पड़ा। आगामी साढ़े तीन वर्षों तक फ्रोबेल जर्मनी में भटकता फिरता रहा। इसी काल में वह फ्रेंकफर्ट में शिल्प सीखने गया, परन्तु शिल्प न सीखकर और ग्रूनर से निमन्त्रण पाकर वह एक नार्मल स्कूल में ड्राइंग (Drawing) का अध्यापक हो गया। यह काम उसे अपनी रुचि के अनुकूल लगा ।
सन् 1807 ई० से सन् 1810 तक उसने अपने दायित्व में तीन बच्चों का शिक्षण किया। इसी बीच सन् 1808 में वह पेस्टालॉजी की शिक्षा व्यवस्था को देखने के लिए वरडेन पहुँचा जहाँ उसने विद्यार्थी और शिक्षक दोनों के रूप में कार्य किया ।
फ्रोबेल का शैक्षिक विचार
फ्रोबेल ने स्कूल फ्रोबेल के शिक्षा सम्बन्धी विचारों को समाज में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त है। उनका विश्वास था कि जिस प्रकार एक वृक्ष के बीज में सम्पूर्ण वृक्ष छिपा होता है उसी प्रकार एक से देते बालक में पूर्ण व्यक्ति छिपा रहता है। बालक की उपमा एक वृक्ष हुए की उपमा बाग से दी है तथा शिक्षक की उपमा उस बाग के माली से दी है। जिस प्रकार माली की देख-रेख में, उचित वातावरण मिलने पर बीज बढ़कर वृक्ष बन जाता है ठीक उसी प्रकार शिक्षक द्वारा विद्यालय में उचित वातावरण उत्पन्न करने पर बालक की आन्तरिक शक्तियों का विकास करके उसे सफल मानव बनाया जा सकता है। बालक में अपने पूर्ण विकास की सम्भावनाएँ निहित होती हैं। शिक्षा का यह दायित्व है कि वह बालक को ऐसा अनुकूल वातावरण प्राप्त करने दें जिससे बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों का सम्पूर्ण विकास स्वयं कर सकें। फ्रोबेल के शिक्षा दर्शन में समाज को बहुत ही अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ‘रूसो’ ने समाज से दूर प्रकृति की गोद में शिक्षा की व्यवस्था की है लेकिन ‘फ्रोबेल’ ने सामाजिक आधार को आवश्यक बताया है ।
बालक के विकास में बाल्यावस्था का महत्वपूर्ण योगदान है। अतः बचपन की शिक्षा बालक के विकास में अहम् भूमिका रखती है अतः बचपन से ही शिक्षा द्वारा बच्चे में उत्तम विचार तथा भावनाएँ जागृत की जानी चाहिए तथा उसके अन्दर छिपे गुणों का स्वाभविक विकास किया जाना चाहिए। फ्रोबेल के अनुसार- “बालक जो कुछ भी होगा वह उसके भीतर है, चाहे उसका कितना कम संकेत हमें क्यों न मिले।”
उनके अनुसार बालक का विकास तो स्वतः होता है। विद्यालय, अध्यापक का कार्य केवल उचित वातावरण प्रदान करना होता है। बालक के विकास में बाहरी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए क्योंकि ऐसा होने से उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है। उनके अनुसार मनुष्य का स्वभाव बड़ा सृजनशील है। मनुष्य किसी-न-किसी रूप में अपने को अभिव्यक्त करना चाहता है और यह अभिव्यक्ति स्वयं चालित क्रिया के माध्यम से तथा आत्म प्रेरित होती रहती है।
फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य
फ्रोबेल सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता और पालन करने वाला एकमात्र ईश्वर को मानता था। उसे ईश्वर की शक्ति पर अटूट विश्वास था। वह ईश्वर की प्रकृति और मानव चेतना में अपने आपको व्यक्त करता है। अतः शिक्षा का उद्देश्य बालक के स्वयं में समाहित इस ‘ईश्वरीय शक्ति’ का बोध कराना होना चाहिए। शिक्षा के माध्यम से ही बालक को इस योग्य बनाया जा सकता है कि वह प्रकृति को, ईश्वर को तथा अपने आपको पहचान सके । संसार की समस्त वस्तुओं में विभिन्नता होते हुए भी एकता विद्यमान (निहित) है। ये सभी वस्तुएँ अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार विकसित होती हुई (एकता) ईश्वर की ओर बढ़ रही हैं। शिक्षा का उद्देश्य बालक को इस योग्य बनाना है कि वह अनेकता में एकता के दर्शन कर सके। विकास की प्रक्रिया आन्तरिक होती है, इसलिए बालक को स्वाभाविक विकास के लिए उचित एवं पूर्ण अवसर प्रदान किए जाएँ ।
फ्रोबेल के अनुसार पाठ्यक्रम
फ्रोबेल ने पाठ्यक्रम में धर्म तथा धार्मिक निर्देशन, प्रकृति अध्ययन, गणित, भाषा, कला तथा हस्त व्यवसाय आदि विषयों को मुख्य स्थान दिया और बताया कि पाठ्यक्रम के सभी विषयों में एकता का सम्बन्ध होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि किसी कारणवश पाठ्यक्रम के विषय में सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकेगा तो शिक्षा के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
फ्रोबेल का सिद्धान्त
फ्राबेल ने निम्नलिखित सिद्धान्तों पर बल दिया-
1. आत्म क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Self- Activity)
फ्रोबेल बालक के व्यक्तित्व का स्वतन्त्र विकास करना चाहता था अतः उसने आत्म क्रिया पर बल दिया । आत्म- क्रिया से फ्रोबेल का तात्पर्य उस क्रिया से था जिसे बालक स्वयं अपनी रुचि के अनुसार करें। फ्रोबेल ने बताया कि आत्म-क्रिया द्वारा बालक स्वतन्त्रतापूर्वक क्रियाशील रहते हुए विभिन्न प्रकार की समस्याओं को सुलझाता है, वातावरण के साथ अनुकूलन करता है तथ संसार की विभिन्न वस्तुओं में ईश्वरीय एकता का अनुभव करने लगता है। इस प्रकार आत्म-क्रिया से बालक के व्यक्तित्व के विकास में हर प्रकार का सहयोग मिलता है।
2. खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त (Principle of Learning by Play)
फ्रोबेल के अनुसार बालक की शिक्षा के लिए खेल को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए। इसका कारण उन्होंने यह बताया कि बालक की रुचि खेल में अत्यधिक होती है। यदि उसकी शिक्षा की व्यवस्था खेल के आधार पर की जायेगी तो उसे खेल-खेल में ही नाना प्रकार के अनुभव सरलता से ही प्राप्त हो जाएँगे। संक्षेप में, फ्रोबेल के अनुसार बालक की आत्म-क्रिया खेल द्वारा विकसित होती है जिससे उसके व्यक्तित्व का विकास स्वाभाविक रूप से होता रहता है इस प्रकार बालक के विकास में खेलों के महत्त्व को स्वीकार करते हुए अपनी किन्डरगार्टन प्रणाली में खेलों द्वारा शिक्षा देने का पूरा विधान प्रस्तुत किया है।
3. सामाजिकता का सिद्धान्त (Principle of Sociality)
जर्मन शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल का विश्वास था कि बालक समाज में रहता है अतः उन्होंने बालक के विकास के लिए समाज को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। बालक की आत्म-क्रिया के लिए समाज से अच्छा और कोई स्थान नहीं है। इस दृष्टि से उन्होंने सामूहिक खेलों पर बल दिया। जब बालक सामूहिक रूप से कार्य करते हैं तब उन्हें आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त होते हैं तथा परस्पर प्रेम, सहयोग, सहानुभूति आदि आवश्यक सामाजिक गुणों का विकास सरलतापूर्वक होता रहता है।
4. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त (Principle of Freedom)
फ्रोबेल की यह अवधारणा थी कि बालक के विकास के लिए उसे उचित स्वतन्त्रता प्रदान की जाए। अतः उसने इस बात पर बल दिया कि बालक के विकास में शिक्षक का किसी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप न हो, अपितु वह केवल एक सक्रिय निरीक्षक के रूप में कार्य करें । स्वतन्त्र और सुरुचिपूर्ण वातावरण में बालक के आत्म क्रिया द्वारा विकास को प्रोत्साहन मिलता है। परिणामस्वरूप उसके व्यक्तित्व का प्रगतिशील एवं स्वाभाविक विकास होता है ।
फ्रोबेल के अनुसार अनुशासन
फ्रोबेल ने दमनात्मक अनुशासन का विरोध करते हुए इस बात पर बल दिया कि बालकों को आत्म-क्रिया करने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए जिससे वे स्वतः ही अनुशासन में रहना सीख जाएँ। दूसरे शब्दों में, फ्रोबेल ने बालकों के साथ प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने पर बल दिया तथा हर प्रकार के वस्तु का विरोध करते हुए केवल आत्म- क्रिया तथा आत्म-नियन्त्रण द्वारा उन्हें स्वयं ही अनुशासित रहने का विचार प्रस्तुत किया । फ्रोबेल बालक के स्वाभाविक विकास पर विश्वास करता था ।
किन्डरगार्टन पद्धति (Kindergarton Method)
फ्रोबेल ने अपने दार्शनिक विचारों को कार्य रूप में परिणत करने के लिए जर्मनी में ‘ब्लेकनबर्ग’ नामक स्थान पर छोटे बालकों के लिए स्कूल खोला जिसे ‘किन्डरगार्टन’ नाम की संज्ञा दी गयी। जर्मन भाषा में ‘किन्डरगार्टन’ का अर्थ है-बालकों का बाग। यह वह स्थान है जहाँ बाल-रूपी पौधे विकसित होते हैं। फ्रोबेल ने विद्यालय को बाग, शिक्षक की माली तथा बालक को पौधे की उपमा दी है। माली पौधे के विकास में मात्र सहायक होता है, पौधे का विकास तो बीज की आन्तरिक शक्ति पर निर्भर करता है। उसी प्रकार शिशु का विकास उसकी आन्तरिक शक्तियों के आधार पर होता है। शिक्षक का कार्य केवल सहायक का होता है। ‘किन्डरगार्टन’ का वातावरण स्वतन्त्रता, खेल एवं आनन्दपूर्ण होता है। इसमें व्यक्ति को आत्माभिव्यक्ति के अवसर तथा उत्साहपूर्ण वातावरण प्राप्त होता है।
किन्डरगार्टन पद्धति के मूल में यह सिद्धान्त है कि बच्चों की आन्तरिक शक्तियों के स्वाभाविक विकास में सहायता दी जाए। इसके लिए शिक्षकों को यह आवश्यक है कि वे बच्चों की रुचियों से परिचित हों। स्वक्रिया मन का प्रधान गुण है इसकी अभिव्यक्ति खेल में स्वाभाविक रूप में होती है अतः शिशु का विकास खेल के माध्यम से होना उपयुक्त है।
खेल में बालक की अनेक मूल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति होती है अतः उसे आन्तरिक सन्तोष प्राप्त होता है। यही कारण है कि ‘किन्डरगार्टन’ में बालक की शिक्षा प्रदान करने का एक मात्र साधन खेल ही रखा गया है।
‘किन्डरगार्टन’ में पुस्तकों का कोई स्थान नहीं है। इस स्कूल में आत्म-क्रिया, स्वतन्त्रता, सामाजिकता तथा खेल आदि सिद्धान्तों के आधार पर बालकों की शिक्षा व्यवस्था है। इसमें केवल आत्माभिव्यक्ति को मुख्य स्थान दिया गया है जो गीत, गति तथा रचना के द्वारा कराई जाती है। किन्डरगार्टन में बालकों को मातृ खेल एवं शिशु, संगीत, उपहार तथा कार्य एवं व्यापार के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाती है। यहाँ मातृखेल तथा शिशु संगीत की एक छोटी-सी पुस्तक है जिसमें लगभग पचास गीत हैं। ये गीत शिशु और उसकी माता से सम्बन्ध स्थापित करके उसकी ज्ञानेन्द्रियों के विकास तथा नैतिक विकास में सहायक होते हैं। फ्रोबेल ने बालक के विकास के अनुसार कुल बीस (20) उपहारों का प्रबन्ध किया परन्तु उनमें छ: प्रमुख हैं जो बेलनाकार, गोला तथा घन के रूप हैं। जब बालकों की विचार शक्ति इन उपहारों द्वारा विकसित हो जाती है तो उन्हें आत्म-क्रिया अथवा आत्माभिव्यक्ति के लिए कागज का काटना, लकड़ी की वस्तुएँ बनाना, चित्र बनाना, माला गूँथना, सीना-पिरोना तथा चटाई बनाना एवं नृत्य-वादन आदि अनेक प्रकार के कार्य किए जाते हैं।
किन्डरगार्टन पद्धति के गुण (Merits of Kindergarton Method)
1. शिशु केन्द्रित शिक्षा- किन्डरगार्टन की शिक्षण-पद्धति में शिक्षा का केन्द्र बिन्दु शिशु है । इसमें शिक्षा में अन्य क्रियाएँ व साधन वही अपनाये जाते हैं जो शिशु के विकास में सहायक होते हैं। इसमें व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान में रखा जाता है तथा शिशु के व्यक्तित्व के प्रति आदर भाव होता है।
2. शिशु की मूल प्रवृत्तियों तथा आन्तरिक शक्तियों के विकास पर ध्यान तथा खेल विधि से शिक्षण- फ्रोबेल ने शिशु की मूल प्रवृत्तियों के विकास तथा आन्तरिक शक्तियों के वर्द्धन पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार शिशु की प्रकृति का अध्ययन किया जाए और उसी के अनुरूप उसकी शिक्षा की व्यवस्था की जाए। इन सभी सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर फ्रोबेल ने खेल द्वारा शिक्षा की व्यवस्था की ।
3. अच्छे गुणों का विकास- इस शैक्षिक पद्धति से बच्चों में स्वावलम्बन, आत्मविश्वास, श्रमणशीलता, सहयोग एवं सामाजिकता आदि गुणों का विकास होता है। इसके साथ ही उनमें कल्पना, निरीक्षण, ध्यान, चिन्तन आदि मानसिक शक्तियों का विकास होता है। इस प्रणाली का आधार दर्शन एवं अध्यात्म है अतः इसमें बच्चों को मानवीय मूल्यों और ईश्वरीय सत्ता का स्वाभाविक ज्ञान प्राप्त होता है।
4. शिक्षा की परम्परागत प्रणाली में सुधार- इस पद्धति से विश्व के अधिकतर देश प्रभावित हुए और किण्डरगार्टन विद्यालयों की भरमार हो गई। आधुनिक शिक्षा शास्त्रियों ने भी स्वीकार किया कि शिशु की प्रारम्भिक शिक्षा सुन्दर एवं स्वच्छ, स्वस्थ्य वातावरण में होनी चाहिए। यह प्रणाली परम्परागत दकियानूस परम्परा में सुधार की पक्षपाती है।
5. प्राकृतिक निरीक्षण तथा बागवानी- ‘किन्डरगार्टन’ पद्धति से पहले प्राकृतिक निरीक्षण और बागवानी को विद्यालय पाठ्यक्रम में कोई स्थान नहीं दिया जाता था। फ्रोबेल ने इसे आवश्यक तथा अनिवार्य समझकर किन्डरगार्टन का अभिन्न अंग बना लिया तथा इस महत्त्वपूर्ण दर्जा दिया। फ्रोबेल का विश्वास था कि प्रकृति निरीक्षण द्वारा बच्चों को ईश्वर के निकट लाया जा सकता है तथा बच्चों में विचार शक्ति, निरीक्षण शक्ति तथा विवेक शक्ति का विकास सम्भव हो पाता है। प्रकृति निरीक्षण के द्वारा बालकों को विश्व को समझने में मदद मिल सकती है।
6. मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर आधारित – आनन्दपूर्ण, रुचिपूर्ण एवं स्वतन्त्र वातावरण में खेल के माध्यम से बच्चों को शिक्षा देना मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के अनुकूल है । इस पद्धति में दमनात्मक अनुशासन या शारीरिक दण्ड को केन्द्र में स्थान नहीं प्राप्त है। क्योंकि इन कारणों से शिशु का स्वाभाविक विकास बाधित हो सकता है। अतः यहाँ मनोविज्ञान के सिद्धान्तों को शिक्षा का आधार बनाया गया है जिस कारण व्यक्तित्व का स्वाभाविक विकास होता है।
7. ज्ञानेन्द्रियों के शिक्षण की व्यवस्था- फ्रोबेल इस बात पर विश्वास करता था कि अधिकतर बच्चे आरम्भ में दृष्टि तथा स्पर्श द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर उन्होंने विभिन्न प्रकार के उपहारों की व्यवस्था ‘किन्डरगार्टन’ में की। आधुनिक शिक्षा पद्धति में ज्ञानेन्द्रियों, व्यावहारिक क्रियाशीलनों एवं वास्तविक अनुभव को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है।
8. व्यावसायिक विकास- इस प्रणाली में हाथ के कार्यों को महत्त्व दिया गया है। कागज, लकड़ी, कटाई, सिलाई तथा बुनाई के काम को बच्चे खेल-खेल में सहजता से सीख लेते हैं। इस तरह अपने भावी जीवन के लिए वे व्यावसायिक रूप से स्वतः ही प्रशिक्षित हो जाते हैं।
9. विद्यालय आकर्षण का केन्द्र- किन्डरगार्टन स्कूलों में बच्चों को बैठने के लिए उचित भवन तथा फर्नीचर होता है, खेलने के लिए उचित सामग्री व स्थान होता है, उनकी अपनी क्रियात्मक प्रवृत्ति के प्रकाशन के लिए अनेक प्रकार के उपहार और व्यापार होते हैं, मातृतुल्य अध्यापिकाएँ होती हैं, किसी प्रकार का कोई भय नहीं होता, परिणामतः वे बच्चों के लिए आकर्षण का केन्द्र होते हैं।
10. सौन्दर्य भावना का विकास— इस प्रणाली में बच्चों को प्रकृति निरीक्षण कराया जाता है, बच्चे बागवानी करते हैं तथा गीत गाते हैं। इन सभी क्रियाओं को करते रहने से उनकी सौन्दर्य भावना का विकास होता है।
किन्डरगार्टन पद्धति के दोष
यह प्रणाली एक सफल एवं अच्छी प्रणाली है परन्तु दोषों से मुक्त नहीं है, इसमें गुणों के साथ-साथ कुछ दोष भी हैं जो निम्नलिखित हैं-
1. पूर्ण स्वतन्त्रता का अभाव- वस्तुतः यह प्रणाली स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों पर आधारित है परन्तु व्यवहारिक रूप में बच्चों को स्कूल की समय सारिणी के अनुसार कार्य करना होता है फिर वे उपहार तथा व्यापारों से इस प्रकार बाँध दिए जाते हैं कि वे इसके अतिरिक्त कुछ और सोच ही नहीं पाते हैं। वे अपनी इस दुनियाँ में ही बँधकर रह जाते हैं।
2. खेल उपहारों एवं व्यापारों की अधिकता— विद्यालय के कार्यों को खेल भावना से करना एक अलग बात है और खेलों को खेलने में जो कुछ सीखा जा सके वह सीखना अलग बात है। फ्रोबेल ने अपनी इस प्रणाली के लिए आवश्यकता से अत्यधिक उपहारों का निर्माण एवं व्यापारों का चयन किया है। अधिकता अरुचि पैदा करती है। कुछ उपहार तो बड़े अटपटे हैं। फिर आधुनिक युग में जो कि इलेक्ट्रॉनिक युग कहा जाता है, बच्चों को कोई उनमें रुचि नहीं होती हैं।
3. ज्ञान व क्रियाओं में एकीकरण का अभाव – इस प्रणाली में ज्ञान एवं क्रियाओं को एक इकाई के रूप में बाँधने का कोई प्रयत्न नहीं किया जाता । परिणामतः विभिन्न पाठ्य विषयों एवं क्रियाओं में सह-सम्बन्ध नहीं हो पाता है।
4. खेल, गीत अरुचिकर- फ्रोबेल ने जिन खेल, गीतों का निर्माण किन्डरगार्टन के लिए किया है, उनमें ताल और लय का अभाव है, अतः उन्हें बच्चे न तो स्मरण कर पाते हैं और न ही उन्हें गा पाते हैं । गीत सम्बन्धी चित्र भी भद्दे हैं जो शिशुओं में अरुचि पैदा करते हैं ।
5. आध्यात्मिक विकास पर अधिक बल- इस प्रणाली में बच्चों के आध्यात्मिक विकास पर अपेक्षाकृत अधिक बल दिया है। ईश प्रार्थना के बाद धर्म एवं नीति पर चर्चा आवश्यक है। छोटे-छोटे बच्चे भला ये सब क्या समझेंगे। 27 घन अथवा 27 आयताकार ठोसों से एक घन का निर्माण कराकर अनेकत्व में एकत्व के सम्प्रत्यय को स्पष्ट करने का प्रयास भी हस्यास्पद है।
फ्रोबेल के शैक्षिक चिन्तन का मूल्यांकन
फ्रोबेल ने मुख्य रूप से 4 वर्ष से 8 वर्ष तक के बालकों की शिक्षा के सम्बन्ध में विचार व्यक्त किए हैं। इसी क्षेत्र में उन्होंने कार्य किया है। शिक्षा जगत में किन्डरगार्टन पद्धति उन्हीं की देन है अतः उसी के आधार पर हम उनके शैक्षिक चिन्तन एवं शिक्षा जगत को उनकी देन का मूल्यांकन करेंगे
शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)— फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा बालक की अन्तर्निहित शक्तियों को बाहर निकालती है, इसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियों का विकास किया जाता है, उनकी बुद्धि तथा इन्द्रियों का विकास किया जाता है। फ्रोबेल के ही शब्दों में” शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों को बाहर की ओर प्रकट करता है।” स्पष्ट है कि फ्रोबेल ने शिक्षा को एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है और मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों को बाहर प्रकट करने के साधन के रूप में स्वीकार किया है। इस सन्दर्भ में पहली बात तो यह है कि इन्होंने इस प्रक्रिया के स्वरूप को स्पष्ट नहीं किया है और दूसरी बात यह है कि सब कुछ अन्दर अन्दर से बाहर निकालने की बात भी पूर्णतया सत्य नहीं लगती। क्योंकि मनुष्य सीखने की शक्ति है, परन्तु मनुष्य सीखता तो वही है जो उसे सिखाया जाता है और सीखने वाली बातें बाहर हैं।
शिक्षक (Teacher)- फ्रोबेल के अनुसार शिक्षक एक माली है, शिक्षक रूपी माली का कार्य विद्यालय रूपी बाग के विद्यार्थी रूपी पड़-पौधों की देखभाल करना है, उनका उचित विकास करना है । फ्रोबेल का विश्वास था कि महिला शिक्षक शिशुओं की उचित देखभाल कर सकती है इसलिए शिशु विद्यालयों में महिलाओं को ही नियुक्त किया जाना चाहिए। फ्रोबेल महिला शिक्षिकाओं से यह अपेक्षा करते थे कि ये बच्चों के साथ मातृ-तुल्य व्यवहार करें, पीटना तो दूर, ये शिक्षिकाएँ बालक को डाँटे फटकारें भी नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि महिला शिक्षिकाएँ उन्हें किसी प्रकार का दण्ड न दें तथा माता के समान स्नेह दें।
शिक्षार्थी (Students)- फ्रोबेल शिशु को शिक्षा के केन्द्र-बिन्दु के रूप में देखते थे ये शिशुओं को पूरी शिक्षा का विधान उनकी योग्यता क्षमता, रुचि और आवश्यकतानुसार करने पर बल देते थे । फ्रोबेल की यह बात तो पूरी तरह से सही है कि शिशुओं की शिक्षा उनकी आवश्यकतानुसार, योग्यता, क्षमता तथा रुचि को ध्यान में रखकर देनी चाहिए। इसके साथ-साथ बच्चों को पूर्ण स्वतन्त्रता तथा उन्मुक्त वातावरण देना चाहिए परन्तु हमें यह नहीं भूलना नहीं चाहिए कि मनुष्य मूलतः एक पशु समान है अतः शिशुओं को उनके मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार से समाज सम्मत व्यवहार की ओर अग्रसर करने के लिए बालकों की आवश्यकताओं तथा रुचियों के साथ-साथ समाज की आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं को भी बालक के समक्ष रखना चाहिए।
विद्यालय (School)- फ्रोबेल का स्पष्ट मत था कि विद्यालय आकर्षण के केन्द्र होने चाहिए। उन्होंने शिशु विद्यालयों को ‘किन्डरगार्टन’ की संज्ञा दी है जहाँ शिक्षक रूपी माली बच्चा रूपी पेड़-पौधों की देखभाल करते हैं और उनके स्वाभाविक विकास में सहायक होते हैं। इन्होंने ‘किन्डरगार्टन’ स्कूलों में बच्चों को बैठने के लिए उचित भवन और फर्नीचर, खेलने के लिए उचित सामग्री व स्थान, क्रियात्मक प्रवृत्ति के प्रकाशन के लिए अनेक उपहार व व्यापार का होना आवश्यक बताया है, मातृ-तुल्य शिक्षिकाओं का होना आवश्यक बताया है । फ्रोबेल के इन विचारों से कोई भी असहमत नहीं होगा परन्तु अति किसी भी चीज की बुरी होती है।
किन्डरगार्टन में जिन साधनों का होना आवश्यक बताया गया है वे इतने अधिक हैं कि उनके प्रयोग में बच्चों को आकर्षण के स्थान पर विकर्षण होने लगता है। किसी भी विचार अथवा क्रिया को उसी सीमा तक अपनाना चाहिए जहाँ तक उसका आकर्षण बना रहे तथा वह लाभकर सिद्ध होता रहे।
अनुशासन (Discipline)- इनका तर्क था कि किसी भी प्रकार के बन्धन से आत्मानुशासन की भावना विकसित नहीं की जा सकती। इसके लिए स्वतन्त्र वातावरण चाहिए, पर यह स्वतन्त्रता आत्म नियन्त्रित होनी चाहिए। फ्रोबेल आन्तरिक अनुशासन को महत्त्व देते थे । ये बालक को सीमित और नियमाकूल स्वतन्त्रता देने के पक्ष में हैं। आज के शिक्षाविद् तो स्वतन्त्रता और अनुशासन को एक ही क्रिया के दो पक्ष मानते हैं।
इनका जीवन दर्शन और शैक्षिक चिन्तन मूल रूप से इनके अनुभव और संस्कारों पर आधारित है। इन्होंने बच्चों की शिक्षा को जिन सिद्धान्तों पर आधारित करने की बात कही है उनसे आज के अधिकांश शिक्षाविद् सहमत हैं । यही कारण है कि संसार के लगभग सभी देशों में ‘किन्डरगार्टन’ प्रणाली के सिद्धान्तों को स्वीकार करत हुए किन्डरगार्टन स्कूल स्थापित किए तथा उसमें प्रयोग की जाने वाली सामग्री (कहानियों, खेलों, मातृ ‘खेलों एवं शिशुगीतों, उपहारों और व्यापारों) को अपने तरीके से विकसित करते हुए अपने-अपने तरीके से उनका प्रयोग कर रहे हैं।
संसार के समस्त देशों में किन्डरगार्टन प्रणाली के शिशु विद्यालयों का होना और उनमें खेल विधि द्वारा शिक्षा प्रदान करना फ्रोबेल की महानता को सिद्ध करता है । शिशुओं के दैवी स्वरूप को पहचानने वाले इस शिशु विशेषज्ञ का पूरा संसार चिर ऋणी रहेगा और खेल विधि के आविष्कारक के रूप में ये सदैव याद रहेंगे। शिशु शिक्षा के क्षेत्र में उनका इतना अधिक योगदान है कि वे शिशु जगत के मसीहा के रूप मे जाने जाते हैं।