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महर्षि अरविन्द का दर्शन (Philosophy of Sri Aurobindo)
श्री अरविन्द वर्तमान युग के सर्वोत्कृष्ट साधन एवं भारतीय ऋषि परम्परा की हैं उज्ज्वल कड़ी हैं। उनका दर्शन उपनिषदों के दर्शन के समकक्ष है। वे उपनिषदों के भाष्यकार नहीं हैं, स्वयं उपनिषदिक सत्य के दृष्टा हैं। उनके महान् ग्रन्थ ‘लाइफ डिवाइन’ में सत्य के साक्षात्कार का वर्णन है।
श्री अरविन्द के अनुसार ब्रह्म संसार में है और संसार से परे भी है। जिसे दर्शन में ब्रह्म कहा जाता है उसे ही धर्म में ईश्वर कहना चाहिए। ईश्वर स्रष्टा, पालनकर्त्ता और संहारक है। ईश्वर सृष्टि का सार, पूर्ण, मुक्त, सनातन और सर्वात्मा है । वह परम पुरुष है और ब्रह्म निरपेक्ष सत्ता है, किन्तु अन्ततः दोनों एक हैं। ईश्वर प्रकट है, ब्रह्म अप्रकट है।
विश्व ब्रह्म की लीला है, शिव का उन्मुक्त नृत्य है, माया नहीं है। यह उस असीम शक्ति की गति का परिणाम है। संसार की सृष्टि करने वाली शक्ति चित है। यह चेतन शक्ति शुद्ध सत्ता का भाग है, अतः सर्वोच्च शक्ति गतिशील भी है और स्थिर भी । इस चेतन शक्ति को अरविन्द ने ‘माता’ कहा है। माता देवत्व है और सर्जनकर्त्ता तत्त्व है। ‘माता’ परम तत्त्व, संसार और जीवन-इन तीन शक्तियों में अवतरित होती है। अरविन्द के अनुसार मानवता, विश्वात्मा एवं परमात्मा तीनों ही परम सत्य है। यह विश्व सच्चिदानन्द की लीला है। वह परम तत्त्व अनेक में एक ही अनुभूति के लिए उस सृष्टि को बिगाड़ भी देता है और एक में अनेक की अनुभूति के लिए उसे पुनः बना देता है। यह सब वह परम शक्ति केवल ‘आनन्द’ के लिए किया करती है।
ज्ञान और अज्ञान परस्पर विरोधी नहीं हैं । अज्ञान का स्वाभाविक गन्तव्य ज्ञान ही है । अविद्या में विद्या, भोग में त्याग एवं संसार में संन्यास की उपलब्धि ज्ञान है । अज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है । सम्पूर्ण सत्ता की क्रिया भी अज्ञान नहीं है । यह उस चित् की एकांगी क्रिया है । श्री अरविन्द के अनुसार अज्ञान ज्ञान का ही एक रूप है। दुःख, पाप और कष्ट भी अनादि एवं निरपेक्ष नहीं है। ये तो हमारी बाह्य चेतना के सीमित क्षेत्र के क्षणिक हैं अनुभव हैं।
श्री अरविन्द ने विकास के सिद्धान्त पर गम्भीर विवेचन किया है। उनके अनुसार जब परम सत्ता पार्थिव सत्ता में उतरती है तो यह जगत् प्रकट होता है। यह अवरोहण है । पार्थिव सत्त जब परम की आरोहण करती है तो प्रकृति प्रकट होती है। अवरोहण का विपरीत क्रम होता है। आरोहण का क्रम इस प्रकार है-सत्, चित् शक्ति और आनन्द, अधिमानस, मानव प्राण और जड़त्व । अवरोहन का क्रम इस प्रकार है-जड़त्व, प्राण, मानस, अधिमानस, आनन्द, चित् शक्ति और सत् । विकास का क्रम विस्तार, ऊँचाई और पूर्णता की दिशाओं में चलता है। समस्त पृथ्वी का रूपान्तर विकास है। विकास का निर्देशन अन्त से होता है, आदि से नहीं । गन्तव्य । गन्तव्य का निर्धारण अन्तरस्थ सच्चिदानन्द द्वारा होता है
परम सत्ता जगत् की रचना एक मध्यस्थ तत्त्व के माध्यम से करती है। यह तत्त्व मानस नहीं हो सकता। इस तत्त्व को श्री अरविन्द ने अतिमानस कहा है। इसे ही वे सत्य-वृत्ति भी कहते हैं। यह एक प्रकार की रचनात्मक वृत्ति है जिसे सत्य चेतना भी कहा गया है। मानस के लिए जो अप्राप्य है वह अतिमानस के लिए सुलभ है। मानस सीमित है। उसमें तर्क व बुद्धि की प्रधानता है किन्तु तर्क द्वारा परम तत्त्व का अनुभव नहीं हो सकता। अतः मानस के दोषों को अतिमानस द्वारा दूर किया जा सकता है।
मानस और अतिमानस के बीच की कड़ी अधिमानस है। अधिमानस अज्ञान का प्रथम क्षेत्र है। अपने अनुभव में यह सार्वभौम है और अनेक भेदों का सामंजस्यपूर्ण अनुभव में पिरो देने का यह कार्य करता है। मानस का परस्पर भेद दिखाई पड़ता है, अधिमानस को पूरक तत्त्व दिखाई पड़ता है अतिमानस के आविर्भाव में मानव प्राणी दिव्य प्राणी में परिवर्तित हो जायेंगे, तब दिव्य जाति में दिव्य चेतना अनेक रूपों में कार्य करेगी दिव्य व्यक्ति आध्यात्मिक आरोहण के साथ सुख-दुःख में समान भाव वाला हो जायेगा।
पृथ्वी पर दिव्य जीवन की स्थापना करने के लिए पूर्ण योग आवश्यक है। दिव्य जीवन में प्रेम, सहानुभूति एवं प्रत्यक्ष पूर्ण ज्ञान कार्य करता है। सभी का लक्ष्य योग है। पूर्ण योग की क्रिया जीवात्मा के अधिमानस, विश्वात्मा एवं परमात्मा में प्रवेश का साधन है। पूर्ण योग का उद्देश्य रूपान्तर की सिद्धि है। श्री अरविन्द के शब्दों में, “जिस योग की साधना हम करते हैं वह केवल हमारे लिए ही नहीं, प्रत्युत भावना के लिए है। उसका उद्देश्य है इस जगत में भगवान की इच्छा को कार्यान्वित करना, एक आध्यात्मिक रूपान्तर का साधन करना और मनुष्य जाति के मनोमय, प्राणमय और अन्नमय जीवन में दिव्य प्रगति और दिव्य जीवन को उतार लाना उसका उद्देश्य, मानव सत्ता की मुक्ति और रूपान्तर सिद्ध करना है।” इस योग के लिए आत्म-समर्पण, दिव्य शक्ति की क्रिया को अपने अन्दर देखना तथा सभी वस्तुओं को भगवान के रूप में देखना आवश्यक है। इन तीनों प्रक्रियाओं के अतिरिक्त अधिमानस में आरोहणार्थ विभिन्न चक्रों पर विजय पाना आवश्यक है।
श्री अरविन्द की दार्शनिक विचारधारा वेदों, गीता तथा स्वतन्त्र मौलिक चिन्तन पर आधारित है।
दर्शन की प्रणाली विचार या तर्क नहीं होती हैं बल्कि दृष्टि होती है। इसीलिये प्राचीन समय से भारत के सत्यान्वेषी पुरुषों को ऋषि या द्रष्टा की संज्ञा दी जाती है।
श्री अरविन्द के दर्शन का मूल मंत्र है समन्वय । उनका दर्शन किसी मत या सम्प्रदाय की स्थापना नहीं करता, क्योंकि वह किसी का खण्डन नहीं करता। उनके दर्शन में हम सब दर्शनों का समावेश देखते हैं। यहाँ तक कि भौतिकवाद और नास्तिकवाद को भी उन्होंने तिरस्कृत नहीं किया । ज्ञान, भक्ति, कर्म का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, , द्वैत और अद्वैत का समन्वय, जड़वाद और आध्यात्मवाद का समन्वय, विज्ञान और आध्यात्म का समन्वय हम उनके सम्पूर्ण विचारों में यत्र-तत्र देखते हैं ।
प्रमुख भारतीय दर्शन हैं— न्याय वैशेषिक, सांख्य योग, पूर्व मीमांसा व उत्तर मीमांसा। उत्तर मीमांसा को वेदान्त दर्शन भी कहते हैं। दार्शनिक के रूप में यद्यपि श्री अरविन्द को वेदान्त के ‘लीलावाद’ का प्रतिपादक माना जाता है परन्तु वह अपने सिद्धान्त को भारतीय तंत्र के निकट मानते हैं। श्री अरविन्द का प्रधान दार्शनिक ग्रन्थ ‘दिव्य जीवन’ (लाइफ डिवाइन ) है।
ज्ञान- शास्त्र तथा नीति शास्त्र के विषय में श्री अरविन्द के विचार अन्य दार्शनिकों से भिन्न हैं। श्री अरविन्द ज्ञेयवादी कहे जाते हैं अर्थात् उनका कथन है कि ईश्वर को जाना जा सकता है और प्राप्त किया जा सकता है। वासुदेव ही परम सत्य नहीं है परन्तु उसके बिना मनुष्य की मुक्ति सम्भव नहीं है परन्तु श्री अरविन्द इस भौतिक जगत के त्याग के विरोधी हैं। जीते जी न तो भौतिक जगत् का त्याग सम्भव है और न इसका प्रयास ही करना चाहिये । भौतिक जगत् भी ईश का आवास तथा स्वयं ब्रह्म ही है । इसको त्यागने की आवश्यकता भी नहीं है। इस प्रकार यहाँ हम श्री अरविन्द को एक यथार्थवादी के रूप में देखते हैं और प्राचीन युग के उन विचारकों में अंतर पाते हैं जिन्होंने संसार से भागने का उपदेश दिया था।
श्री अरविन्द के योग को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। एक तो ब्रह्म की प्राप्ति तथा सत्य का साक्षात्कार जैसा कि भारतीय परम्परा का सदा से लक्ष्य रहा है। दूसरा भाग पहले से अधिक कठिन है | यह है दिव्य प्रकाश के द्वारा जड़, जगत, शरीर, प्राण तथा मन का रूपान्तर । यह इतिहास में श्री अरविन्द का नितांत मौलिक योगदान माना जाता है । सत्य के दर्शन मात्र से हमारा दुःख दूर नहीं हो सकता। हमें इस सत्य को स्थायी बनाना होगा जिससे कि हमारी सहज प्रकृति बन सके। इसी अर्थ में उन्होंने लिखा है-
” मेरा योग ब्रह्म साक्षात्कार से समाप्त नहीं होता बल्कि प्रारम्भ होता है ।” यहीं पर उनका अतिमानस का सिद्धान्त आता है। वर्तमान युग का मनुष्य साधारण चेतना की स्थिति में रहता है जो कि सत्य को केवल आंशिक रूप में ही ग्रहण कर सकती है कुछ योगियों ने इस सीमा का अतिक्रमण भी किया है। परन्तु सर्वसाधारण की समस्या जहाँ की तहाँ रही। अतिमानस ही सत्य को ग्रहण करता है।
श्री अरविन्द मानते थे कि भागवत चेतना द्वारा जड़ तत्त्वों को यदि बदल दिया जाये तो सत्य केवल कुछ क्षणों का अनुभव न रहकर एक स्थायी वृत्ति बन जाये और उसका अनुभव थोड़े से व्यक्ति ही नहीं, वरन् सर्वसाधारण भी कर सकें। यह रूपान्तर ही मानव को दुःख से स्थायी छुटकारा दिला सकता है और दिव्य जीवन के आनन्द का अनुभव करा सकता है।
श्री अरविन्द का योग सत्य साक्षात्कार एवं रूपान्तर की व्यावहारिक प्रणाली है। इस प्रणाली में व्यायाम, भोजन, विश्राम आदि के अपने नियम हैं। मादक द्रव्यों का त्याग आवश्यक बताया है । ब्रह्मचर्य योग की आवश्यक शर्त है। भोजन एवं विश्राम पर्याप्त तथा युक्त होना चाहिये। ध्यान, प्रार्थना, स्वाध्याय और जप का उसमें स्थान है परन्तु उसका मूल मन्त्र है— (समर्पण) अपने आपको भगवान के हाथों में सौंप देना यह प्रधान क्रिया है। यह योग व्यक्ति तथा समाज के लिये नहीं बल्कि भगवान के लिये है।
महर्षि अरविन्द की दार्शनिक विचारधारा के अध्ययन में हम उन्हें एक आदर्शवादी कह सकते हैं। उनकी विचारधारा आदर्शवाद के क्षेत्र में आती है क्योंकि वह ईश्वर को ही समस्त सृष्टि का कर्ता मानते हैं, दूसरी ओर महर्षि अरविन्द यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं। वह जगत् को सत्य मानते हैं और मानव के आचरणों और सामाजिक जीवन को सुधारने का प्रयत्न करते हैं। उन्होंने भौतिकवाद को भी तिरस्कृत नहीं किया है। स्वामी अरविन्द का दर्शन प्रयोजनवाद का भी समर्थन करता है। वह वर्तमान अवस्था से सन्तुष्ट नहीं थे । वे सारे संसार में रामराज्य की स्थापना करना चाहते थे और मनुष्य को इस स्थिति में पहुँचाना चाहते थे जहाँ किसी के किसी प्रकार का कष्ट न हो।
अन्य सिद्धान्त (Other Principles) – सामाजिक विकास के चक्र में श्री अरविन्द ने चार सोपान बताये हैं। प्रथम सोपान प्रतीकात्मक है। प्रतीकात्मक युग में प्रतीकों के पीछे छिपी प्राकृतिक शक्ति की उपासना की गयी । समाजशास्त्री इस युग को टोटमवादी युग कहता है। मनोविज्ञान की दृष्टि से यह मूल प्रवृत्ति का युग था । श्री अरविन्द वैदिक युग को प्रतीकात्मक युग मानते हैं और कहते हैं कि उस युग में मानव सत्य के अधिक निकट था। दूसरा युग प्रकारात्मक युग था जिसमें मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक प्रकारों को महत्त्व दिया गया और व्यक्ति एवं समाज के जीवन का आधार बना। गीता का धर्म इसी युग का था और वर्णाश्रम धर्म की भी इसी में व्यवस्था की गई। तीसरा युग रूढ़िवादी युग आया। इसका आधार आर्थिक श्रम विभाजन बना। वर्ण जाति में बदल गई। तीसरा युग व्यक्तिवादी युग है जिसमें आत्मा रूढ़िवादी समाज के विरुद्ध विद्रोह करती है । व्यक्तिवादी युग में बुद्धि का शासन होता है और सभी परम्पराओं पर प्रश्न चिन्ह लगते हैं । इसी युग में विज्ञान की प्रगति हुई किन्तु आज वैज्ञानिक समाज में व्यक्ति का दम घुटने लगा है । अतः श्री अरविन्द सच्चे आत्मनिष्ठ व्यक्तिवाद की स्थापना को जीवन का लक्ष्य बताते हैं। साम्यवाद व फासिज्म में समष्टिवाद तो है पर व्यक्ति को स्वतन्त्रता नहीं है। अतः यह युग धीरे-धीरे आत्मनिष्ठ युग की ओर बढ़ रहा है।
जिस प्रकार व्यक्ति में आत्मा है वैसे ही समाज और राष्ट्र में एक समूह आत्मा है जो सामाजिक जीवन में प्रकट होती है। श्री अरविन्द के अनुसार आधुनिक जनतन्त्र में व्यक्तिवाद को स्थान दिया गया है जनतंत्र ने मानव को कुछ नहीं दिया । जनतंत्र की असफलता वर्ग-संघर्ष पैदा होता है जनतंत्र का आधार बौद्धिक है किन्तु बुद्धि, विवेक ओर विज्ञान से जीवन आगे नहीं बढ़ता। इसमें गतिशीलता आध्यात्मिक स्वतन्त्रता से अबौद्धिक तत्त्व का अवतार होना चाहिए। साम्यवाद भी इसका विकल्प नहीं है। इसमें आयेगी अतः आज व्यक्ति पर समाज का दबाव बढ़ता जाता है और अराजक विचारों में वृद्धि होती है। अतः अरविन्द का कथन है कि “एक आध्यात्मिक आन्तरिक स्वतन्त्रता ही एक पूर्ण मानव-व्यवस्था उत्पन्न कर सकती है।” सामाजिक विकास का आदर्श आध्यात्मिकता की प्राप्ति है। अतः व्यक्ति का आध्यात्मिक रूपान्तर करना आवश्यक है। व्यक्ति में परिवर्तन के माध्यम से ही समुदाय में परिवर्तन की सम्भावना है। आध्यात्मिक जीवन बिताने वाले पुरुष ओ मिल जाते हैं किन्तु सम्पूर्ण समाज को आध्यात्मिकता पर आधारित करने का प्रयास अभी तक नहीं हुआ। सम्पूर्ण समाज का आध्यात्मिक रूपान्तर करने के लिए मानव को आध्यात्मिक प्रयास करने की आवश्यकता है।
प्राचीन वाङ्मय में ‘माया’ जटिल प्रत्यय है। इस गुत्थी को सुलझाने के लिये अरविन्द घोष ‘माया’ शब्द के स्थान पर ‘लीला’ शब्द को अधिक उपयोगी मानते हैं। इस सिद्धान्त के अन्तर्गत सृष्टि परमात्मा की लीला मात्र है। अतः परमात्मा की लीलारूपी सृष्टि को कदापि मिथ्या नहीं कहा जा सकता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर अरविन्द घोष दर्शन पर शाक्त दर्शन का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। अरविन्द दर्शन के समान ही शाक्त द्वैतवाद मत में भी जगत् चित् शक्ति का परिणाम होने के कारण चित रूप एवं सत्य है। इसके अतिरिक्त शक्ति एवं शक्तिमान का अदिनाभाव भी शाक्त दर्शन एवं अरविन्द दर्शन में समान ही है। अरविन्द घोष के एक कथन से उन पर पड़े शाक्त दर्शन के प्रभाव का स्पष्ट ज्ञान परिलक्षित होता है । अरविन्द घोष के इस कथन से यह स्पष्ट है कि जगत पूर्णतया आनन्द रूप है। जगत् आनन्द से ही उत्पन्न, आनन्द से ही जीवित एवं आनन्द के ही क्षेत्र में घूमता रहता है। इस प्रकार अरविन्द घोष के मतानुसार जगत् की सत्ता आनन्द एवं शक्ति रूप है।