राजनीति विज्ञान (Political Science)

राज्य का मार्क्सवादी सिद्धान्त- MARXIST THEORY OF STATE IN HINDI

राज्य का मार्क्सवादी सिद्धान्त- MARXIST THEORY OF STATE IN HINDI
राज्य का मार्क्सवादी सिद्धान्त- MARXIST THEORY OF STATE IN HINDI

राज्य का मार्क्सवादी सिद्धान्त- MARXIST THEORY OF STATE IN HINDI

राज्य का मार्क्सवादी सिद्धान्त- MARXIST THEORY OF STATE IN HINDI-राज्य-सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्तों में मार्क्स का राज्य-सिद्धान्त भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। मार्क्सवाद को अच्छी तरह से समझने के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्थल है। मार्क्स के पूर्व सभी राजनीतिक विचारक यह मानते आये थे कि राज्य नागरिकों के हित के लिए बना और इसे सदा बना रहना चाहिए। आदर्शवादी विचारकों का कहना है कि राज्य ने ही समाज की सभी अच्छाइयों को प्राप्त किया है। राज्य का काम सामान्य हित को देखना है, किसी वर्ग के हित को नहीं। आदर्शवादी विचारकों ने राज्य को ईश्वर की कृति माना है, परन्तु मार्क्स ने राज्य के संबंध में इस सिद्धान्त को नहीं स्वीकार किया और उसने एक अलग सिद्धान्त दिया।

मार्क्स ने राज्य की उत्पत्ति पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जब समाज में वर्गभेद होता है, तब राज्य की उत्पत्ति होती है।वर्गभेद के कारण संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है जिससे निपटने के लिए एक शक्ति की आवश्यकता होती है। मार्क्स के इस विचार को एंजिल्स (Engels) ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-“राज्य एक प्राकृतिक संस्था नहीं है। श्रम विभाजन और व्यक्तिगत संपत्ति जैसी संस्थाओं के विकास के साथ शक्ति के लिए संघर्ष शुरू हुआ और राज्य का उदय इस कारण हुआ कि संपत्ति के अधिकारी गैर संपत्तिवान वर्ग का शोषण करके अपनी संपत्ति की रक्षा कर सकें।”

स्पष्ट है कि मार्क्स राज्य को वर्ग संगठन मानता है, जो संपन्न वर्ग के हितों की रक्षा के लिए अस्तित्व में आता है । ग्रे (Gray) के शब्दों में, “राज्य का वर्ग संगठन है, जो प्रभावी वर्ग के हित का प्रतिनिधित्व तथा उनके विचारों को प्रतिबिंबित करता है। मार्क्स और एंजिल्स ने राज्य के पूँजीपति वर्ग की कार्यकारिणी समिति (Executive Committee of Bourgeoisic) की संज्ञा दी है। एंजिल्स ने राज्य को वर्ग संघर्ष की जननी कहा है। वह कहता है, “राज्य एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग का शोषण करने की मशीन से अधिक कुछ नहीं है।”

मार्क्स का कहना है कि राज्य हमेशा आर्थिक कारणों से आगे बढ़ा है। सामाजिक संबंध आर्थिक संबंध पर ही निर्भर हैं। प्रारंभिक काल में आर्थिक समस्या जटिल नहीं रहने के कारण राज्य का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। उस समय के मनुष्य गिरोह में रहते थे और आपस में मिल- जुलकर जीविकोपार्जन कर लेते थे। वर्ग-संघर्ष का प्रश्न ही नहीं था। सामंत-युग के साथ ही वर्ग का जन्म हुआ और समाज स्वामी और सेवक, इन दो भागों में बँट गया। आधुनिक समाज भी पूंजीपतियों और श्रमिकों में विभक्त है।

मार्क्स ने अपने राज्य-सिद्धान्त की व्याख्या राजनीतिक विकास की तीन अवस्थाओं के अंतर्गत की है। मार्क्स प्रथम अवस्था में राज्य के गठन की प्रक्रिया का उल्लेख करता है । इसके साथ ही, मार्क्स ने क्रान्ति की अवस्था और कान्ति के बाद शासन-व्यवस्था का क्या स्वरूप होगा, इस पर भी प्रकाश डाला है। उसके राज्य-सिद्धान्त के तीन स्तर हैं-

1. प्राक्-क्रांतिकाल (Pre-revolutionary Stage)-

मार्क्स ने यह विचार व्यक्त किया है कि पूँजीवादी समाज में पूँजीपतियों के हाथों में ही राज्य की वास्तविक शक्ति रहती है। ऐसी स्थिति में प्रजातंत्र की स्थापना नहीं की जा सकती है। पूँजीवादी व्यवस्था में प्रजातंत्र की स्थापना प्रजातंत्र का मखौल उड़ाना है। फिर भी, प्रजातन्त्र में सर्वहारा वर्ग को कुछ सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं, जिनका उपयोग वह अपने को संगठित कर अपनी शक्ति में वृद्धि कर अंतिम संघर्ष में विजय प्राप्त करने की तैयारी करने के लिए कर सकता है। पूँजीपतियों से यह आशा करना मूर्खता है कि वे कभी स्वेच्छा से अपनी स्थिति में परिवर्तन स्वीकार करेंगे। मार्क्स का कहना है कि शक्ति के प्रयोग से ही वर्तमान व्यवस्था का अंत कर समाजवाद की स्थापना की जा सकती है। पूँजीवादी व्यवस्था के कारण सारी संपत्ति सिकुड़कर कुछ व्यक्तियों के हाथ में आ जाती है, जिससे अधिकांश लोग निर्धन हो जाते हैं। हजारों मजदूर कारखाने में काम करते हैं और वे आपस में एकता स्थापित कर पूँजीवाद के लिए कब्र खोदना प्रारंभ कर देते हैं। जब वे समझ जाते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था में उनकी दशा कभी सुधर नहीं सकती, तब वे सशस्त्र क्रान्ति कर देते हैं। इस क्रान्ति के बाद पूँजीवादी व्यवस्था समाप्त हो जाती है तथा उसके साथ ही शोषण भी समाप्त हो जाता है।

2.क्रान्तिकाल (Revolutionary-Stage)-

क्रांति-स्तर पर राज्य की आवश्यकता रहती है, परन्तु उसका स्वरूप दूसरा हो जाता है । क्रान्ति का उद्देश्य नये वर्ग की स्थापना करना है और पुराने वर्ग को समाप्त कर देना है। यह नया वर्ग ही राज्य का प्रतिनिधि होगा और अधिक लोगों के हितों का संरक्षण करेगा। इस स्तर पर राज्य और कुछ नहीं, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व इस कारण आवश्यक है कि क्रांतिविरोधी या प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ पुनः सर नहीं उठाने की कोशिश करें। उनके ऐसे सभी प्रयलों को विफल बनाकर पूँजीवाद के समस्त तत्त्वों का उन्मूलन करना होगा। उत्पत्ति के समस्त साधनों पर समाज का अधिकार होगा। व्यक्तिगत संपत्ति का अंत कर दिया जायेगा। वर्ग संघर्ष समाप्त हो जायेगा। इस काल का सिद्धान्त होगा कि जो काम नहीं करता, उसे खाने का भी अधिकार नहीं है । केवल वृद्ध, बालक और असमर्थ व्यक्ति ही बिना काम के भी भोजन पाने के अधिकारी होंगे। इस राज्य और पूँजीवाद राज्य में अन्तर यह है कि इसमें वस्तुओं का उत्पादन सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाएगा, मुनाफा कमाने के लिए नहीं। इसमें बहुसंख्यकों के हितों पर विशेष ध्यान दिया जायेगा।

3. उत्तर-क्रांतिकाल (Post-revolutionary.Stage)-

सर्वहारा वर्ग राज्य को वर्ग विभेद समाप्त करने के लिए बनाये रखना चाहता है। मार्क्स के अनुसार राज्य की आवश्यकता स्वतंत्रता के हित के लिए नहीं, बल्कि अपने विरोधियों को कुचलने के लिए है। जब इस उदेश्य की पूर्ति हो जाती है, तब राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी। एंजिल्स के शब्दों में, “जब अंततोगत्वा राज्य संपूर्ण समाज का प्रतिनिधि बन जायेगा, तब यह अपने आपको बेकार बना देगा, राज्य को समाप्त नहीं किया जायेगा, वह अपने-आप विलुप्त हो जायेगा,” इस प्रकार, मार्क्स के अनुसार उत्तर- क्रांतिकाल में पूँजीपति-वर्ग और पूँजीवादी व्यवस्था के अंतिम अवशेष भी मिट जायेंगे। समाज में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रह जायेगा। वर्गहीन समाज में व्यक्तियों में साहचर्य की भावना उत्पन्न होगी, जिसके कारण राज्य के नियंत्रण की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। ऐसी अवस्था में राज्य स्वतः लुप्त हो जायेगा। इसे साम्यवादी अवस्था माना जायेगा।

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shubham yadav

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